सर्वोच्च न्यायालय में इन दिनों ‘मैरिटल रेप’ या ‘वैवाहिक बलात्कार’ को लेकर बहस चल रही है। इसके पक्ष में कथित नारीवादी सक्रिय हैं तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो इसके विरोध में हैं। केंद्र सरकार ने भी न्यायालय में इसका विरोध किया है। सरकार की तरफ से इस संबंध में कहा गया है कि यदि ऐसा हुआ तो वैवाहिक संबंध बाधित होंगे।
केंद्र सरकार ने इस समस्या को कानूनी से अधिक सामाजिक माना है। उसकी तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए शपथ-पत्र में कहा गया है कि यदि इसे ‘बलात्कार’ के रूप में अपराध घोषित कर दिया जाएगा तो विवाह संस्था अस्थिर हो सकती है। जब स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के प्रति हर प्रकार से समर्पित होने का संकल्प लेने के साथ देह-प्राण से एक होने का प्रण लेते हैं, तभी वे विवाह बंधन में बंधते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि आपसी संबंध किसी कारण बिगड़ जाते हैं। ऐसे संबंधों से बाहर निकलने के लिए विवाह-विच्छेद के कानून हैं। महिलाओं के प्रति होने वाली तमाम तरह की घरेलू हिंसा से बचाव के लिए कानून हैं, जो पहले 498ए था तो अभी भारतीय न्याय संहिता में धारा 85 और 86 है।
हाल ही में घरेलू हिंसा को लेकर भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 और 86 की समीक्षा के लिए भी इस आधार पर विधि मंत्री सहमत हुए कि इनका दुरुपयोग न हो। पिछले कई वर्षों से यह देखा गया है कि महिलाओं के अधिकारों के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग उसके पति और ससुराल पक्ष के खिलाफ किया गया। इस को लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी टिप्पणी कर चुका है। पुरुषों के विरुद्ध होने वाले कानून के इस दुरुपयोग को लेकर संस्था के प्रमुख बरखा त्रेहन लिंग निरपेक्ष कानून की मांग को लेकर मुखर रहती हैं।
उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में वैवाहिक बलात्कार के विरोध में याचिका दायर कर रखी है। उन्होंने कहा, ‘‘जो लोग वैवाहिक बलात्कार का समर्थन कर रहे हैं, उनसे मेरा सवाल यही है कि वे शादीशुदा संबंधों में यह कैसे निर्धारित करेंगे कि संबंध आम सहमति से बने हैं या असहमति से? आखिर एक पति कैसे यह साबित करेगा कि वह निर्दोष है? चूंकि यह मामला महिला और पुरुष दोनों से संबंधित है और परस्पर विश्वास का मामला है।’’
इस संबंध में युवा पत्रकार और लेखक सौरभ भारद्वाज का कहना है,‘‘वैवाहिक रिश्ते में सहमति उतनी ही आवश्यक है जितनी गैर वैवाहिक प्रेम के रिश्ते में। उनका कहना है,”यह बहुत जटिल और नाजुक मामला है। इसे काले और सफेद की श्रेणी में रखकर नहीं देखा जा सकता। इस मामले में युवाओं को सहमति की महत्ता के विषय में बताया जाना चाहिए। इसे अपराध के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए। इसे पारिवारिक संस्कृति को जीवित रखने के लिए बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। कथित नारीवादी इसे अपराध बनाना चाहते हैं। महिला कार्यकर्ताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो इसे दंडनीय अपराध बनाना चाहता है। उनका तर्क हैं कि दुष्कर्म एक अपराध है, तो विवाहोपरांत बिना सहमति से बने संबंध को अपराध में शामिल किया जाना चाहिए।’’
‘‘यह बहुत संवेदनशील मामला है। विवाह व्यवस्था परिवार व्यवस्था की रीढ़ है, जो एक दूसरे के प्रति सम्मान, सामंजस्य और सहयोग पर टिकी है। जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही निजी संबंधों में एक-दूसरे की इच्छा को सम्मान देना आवश्यक है।’’– कहानीकार वंदना वाजपेई‘‘सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले जीवन की जटिलताओं को बहुत नजदीकी से देखते हैं, वे युवाओं के जीवन की अनिश्चितताओं को देखते हुए यह महसूस करते हैं कि कैसे उनके जीवन में जाटिलताएं पैर पसारती जा रही हैं और कैसे ये तमाम अनिश्चिता और जटिलता उनके व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित कर रही है। विवाह पूर्णत: आपसी भरोसे पर आधारित व्यवस्था है और यदि वैवाहिक संबंधों मे असहमति को बलात्कार के दायरे में लाया जाएगा तो इससे विवाह संस्था ही खतरे में आ जाएगी।’’
– कोंचिंग संस्थान में सहायक महाप्रबंधक पुरुषोत्तम
‘‘वैवाहिक संबंधों में सहमति और असहमति का आदर परस्पर प्रसन्नता का स्रोत है, और अनादर हिंसा से पैदा होने वाली विपरीत परिस्थितियां बनाता है, जो निश्चित रूप से परिवार और समाज के लिए हानिकारक है। यह एक सामाजिक मुद्दा है और इसे संवाद और संस्कारों के माध्यम से ही युवाओं को समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए।’’ -आकाशवाणी में सहायक निदेशक अनिल कुमार सिंह‘‘वैवाहिक बलात्कार शब्द ही सुनने में ही अजीब लगता है। आखिर यह कैसे तय किया जाएगा कि कब संबंध जबरदस्ती बनाए गए? यदि इसे अपराध की श्रेणी में लाकर सजा का प्रावधान हुआ तो ये परिवार जैसी पवित्र संस्था को ही नष्ट कर सकता है।’’ -उपन्यासकार अर्चना चतुर्वेदी
विवाह मतलब एक-दूसरे पर भरोसा
महिलाओं के तमाम विषयों पर मुखर होकर लिखने वाली और ‘अटूट बंधन’ के नाम से मंच चलाने वाली दिल्ली की कहानीकार वंदना वाजपेई का कहना है, ‘‘यह बहुत संवेदनशील मामला है। विवाह व्यवस्था परिवार व्यवस्था की रीढ़ है, जो एक दूसरे के प्रति सम्मान, सामंजस्य और सहयोग पर टिकी है। जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही निजी संबंधों में एक-दूसरे की इच्छा को सम्मान देना आवश्यक है।’’
लेखक, विचारक और सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने वाले एक कोंचिंग संस्थान में सहायक महाप्रबंधक पुरुषोत्तम का कहना है, ‘‘सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले जीवन की जटिलताओं को बहुत नजदीकी से देखते हैं, वे युवाओं के जीवन की अनिश्चितताओं को देखते हुए यह महसूस करते हैं कि कैसे उनके जीवन में जाटिलताएं पैर पसारती जा रही हैं और कैसे ये तमाम अनिश्चिता और जटिलता उनके व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित कर रही है। विवाह पूर्णत: आपसी भरोसे पर आधारित व्यवस्था है और यदि वैवाहिक संबंधों मे असहमति को बलात्कार के दायरे में लाया जाएगा तो इससे विवाह संस्था ही खतरे में आ जाएगी।’’
लेखक एवं आकाशवाणी में सहायक निदेशक अनिल कुमार सिंह का कहना है, ‘‘वैवाहिक संबंधों में सहमति और असहमति का आदर परस्पर प्रसन्नता का स्रोत है, और अनादर हिंसा से पैदा होने वाली विपरीत परिस्थितियां बनाता है, जो निश्चित रूप से परिवार और समाज के लिए हानिकारक है। यह एक सामाजिक मुद्दा है और इसे संवाद और संस्कारों के माध्यम से ही युवाओं को समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए।’’ वंदना वाजपेई कहती हैं, ‘‘केंद्र सरकार ने अपने शपथ पत्र में स्पष्ट कहा है कि वह महिलाओं पर किसी भी तरह की जोर जबरदस्ती के खिलाफ है। मगर इसे बलात्कार के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता।’’
पुरुषों की पीड़ा पर उपन्यास लिखने वाली और पुरुष विमर्श को अपनी रचनाओं के माध्यम से उठाने वाली उपन्यासकार अर्चना चतुर्वेदी का कहना है, ‘‘वैवाहिक बलात्कार शब्द ही सुनने में ही अजीब लगता है। आखिर यह कैसे तय किया जाएगा कि कब संबंध जबरदस्ती बनाए गए? यदि इसे अपराध की श्रेणी में लाकर सजा का प्रावधान हुआ तो ये परिवार जैसी पवित्र संस्था को ही नष्ट कर सकता है।’’
दहेज कानून की तरह होगा दुरुपयोग
जिस तरह हमारे देश में दहेज कानून का दुरुपयोग किया गया उसी तरह इस कानून का सहारा लेकर इसका दुरुपयोग होने की पूरी संभावना है। अगर इसी तरह के कानून बनते रहे तो वे दिन दूर नहीं जब लड़के शादी के नाम से ही भाग खड़े होंगे। यदि ऐसा हुआ तब भी लड़कियों को ही परेशानी होगी। पुरुषोत्तम प्रतीक इस विषय को और विस्तार देते हुए कहते हैं, ‘‘सहमति का आधार केवल स्त्री की सहमति को ही नहीं बनाया जा सकता है, ऐसा करने से आधार बहुत संकुचित हो जाएगा। वे अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि क्या पुरुष की सहमति का कोई मसला नहीं है? उन्होंने कहा कि पहले तो यह कि इससे साबित होता है कि पुरुष की सहमति या असहमति का कोई अर्थ नहीं है, वह हर मामले में सहमत ही है और दूसरा कि स्त्री की असहमति को प्रमाणित करना मुश्किल हो जाएगा और इसके दुरुपयोग और संबंधों में भय बनाने की संभावना भी बढ़ती जाएगी।’’
इस संबंध में ‘द फेमिनिस्ट लाई’ नामक पुस्तक में लेखक बॉब लूइस ने लिखा है, ‘‘नारीवादी आंदोलन समानता का नहीं बल्कि ‘स्त्री केंद्रवाद’ की बात करता है। जिसका अर्थ है कि किसी भी बात को केवल महिलाओं के हितों की दृष्टि से देखना या महिलाओं की दृष्टि से देखना।’’ भारतीय पौराणिक चरित्रों पर लेखन करने वाले ध्रुव कुमार द्विवेदी कहते हैं, ‘‘हिंदुओं में विवाह एक अत्यंत पवित्र अवधारणा है। इसकी नींव पति व पत्नी के बीच विश्वास पर टिकी होती है। ‘वैवाहिक बलात्कार’ जैसा विचार इस पवित्र रिश्ते की पूरी नींव ही हिला देगा। भारत में पत्नी को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया है अत: यदि कोई पति उस पर अत्याचार व हिंसा करता है तो उसे रोकने के लिए घरेलू हिंसा व दहेज उन्मूलन जैसे कानूनों को मजबूत किया जाना चाहिए लेकिन वैवाहिक बलात्कार जैसे विचारों को पूरी तरह नकारना आवश्यक है।’’
वह कहते हैं, ‘‘जब विवाह होगा तो विवाह का मूल उद्देश्य संतानोत्पत्ति भी होगा ही होगा। ऐसे में यदि पत्नी पति पर बलात्कारी होने का आरोप लगाएगी तो जाहिर है कि उस संबंध से पैदा हुए बच्चे को भी बलात्कारी की ही संतान कहा जाएगा। ऐसे में क्या उन बच्चों को अपने पिता, अपने पिता के परिवार और स्वयं अपने ही अस्तित्व से घृणा नहीं हो जाएगी? यही कारण है कि मुट्ठी भर अराजकता प्रेमियों के अतिरिक्त युवाओं से लेकर समाज के हर वर्ग का यही मानना है कि किसी भी स्थिति में वैवाहिक संबंधों में असहमति को बलात्कार की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इस विषय में जब दो वर्ष पहले अर्थात 2022 में दिल्ली उच्च न्यायालय का चौंकाने वाला विभाजित निर्णय आया था तो उस समय भी इसपर चर्चा हुई थी। तब वरिष्ठ वकील मोनिका अरोड़ा ने कहा था कि यदि इस तरह का कोई कानून बनता है तो यह परिवार व्यवस्था के लिए खतरा है और इसे अपराध की श्रेणी में रखना हितकर नहीं होगा अन्यथा इस कानून का गलत प्रयोग होने लगेगा।
इस समाजिक अराजकता का भय सभी को है और यदि लड़के विवाह से डरेंगे तो इससे उत्पन्न अराजकता का सामना समाज कैसे करेगा, इसका भी रोडमैप तैयार नहीं है।
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