विश्नोई समाज का अमर बलिदान, अमृता विश्नोई, उनकी तीन बेटियों समेत 363 लोगों ने दे दी थी जान

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बद्रीनारायण विश्नोई

संत जाम्भोजी महाराज (सन् 1451-1536) की 120 से अधिक सबद वाणियों, उनके ज्ञानोपदेश के मूल में समाज सुधार के साथ-साथ जीव रक्षा, प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण का संदेश निहित है। इसी उद्देश्य के लिए उन्होंने सन् 1485 में विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना कर, उनके अनुयायियों के लिए दैनिक जीवन के व्यवहार और आचरण से जुड़ें 29 नियमों का प्रतिपादन किया।

संत जाम्भोजी ने क्रमश: 19वें और 20वें नियम में ‘जीव दया पालणी, रूँख लीला नहिं घावै ‘ द्वारा आज से तक़रीबन 571 वर्ष पूर्व जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया, जोकि समय के साथ और ज्यादा प्रासंगिक हुआ है। ग़ौरतलब है कि विश्नोई समाज पेड़ों को अपनी संतान के समान समझकर, उनका सम्वर्द्धन और संरक्षण भी करता है। यही वज़ह है कि केवल विश्नोई बाहुल्य क्षेत्रों में वन्य जीव स्वच्छंद विचरण करते हैं। विश्नोई महिलाओं द्वारा नवजात हिरण को प्रायः स्तनपान करवाते हुए भी देखा जाता है।

खेजड़ी वृक्षों के रक्षार्थ बहादुर अमृता विश्नोई के बलिदान को भला कौन विस्मृत कर सकता है ? जहां आज से लगभग 292 वर्ष पूर्व (सन् 1730, भाद्रपद, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि) विश्नोई समाज के 363 पर्यावरण प्रेमियों ने अमृता विश्नोई के आह्वान पर, खेजड़ियों को बचाने के लिए अपने प्राण दिए। इस संबंध में उपलब्ध प्रमाण दर्शाते हैं कि जोधपुर प्रान्त के तत्कालीन महाराजा अभयसिंह ने किला निर्माण हेतु चूना पकाने के लिए जंगल से लकड़ियां कटवा लाने का आदेश अपने मंत्री को दिया। जिस पर राजा के मंत्री सहित सैनिकों ने जोधपुर जिले के निकटवर्ती गाँव खेजड़ली पहुंचकर, निर्ममता से पेड़ों की कटाई प्रारंभ करवा दी। राजा के मंत्री ने अपने सैनिकों को बड़े खेजड़ी के पेड़ काटने का आदेश दिया। उस समय बहादुर अमृता विश्नोई ने संत जाम्भोजी द्वारा विश्नोई संप्रदाय सहित पूरी दुनिया को बताए 29 नियमों और खेजड़ी वृक्ष के धार्मिक महत्त्व के बारे में बताते हुए खेजड़ी नहीं कटवाए जाने का आग्रह मंत्री से किया। लेकिन अमृता विश्नोई के आग्रह को राजा के मंत्री ने अनदेखा करते हुए, खेजड़ी के हरे वृक्ष कटवाए जाने का निश्चय कर लिया। ऐसी स्थिति में बहादुर अमृता विश्नोई स्वयं खेजड़ी से चिपक गईं। राजा के मंत्री ने अमृता विश्नोई को बहुत समझाया। लेकिन बहादुर अमृता विश्नोई ने राजा के मंत्री से कहा ‘सिर साटै, रूंख रहे, तो ई सस्तौ जांण’ (अर्थात् सिर कट जाए और वृक्ष बच जाए, तो भी समझो कि यह सस्ता है!) और वह खेजड़ी वृक्ष से लगातार चिपकी रहीं। यह दृश्य देखकर अमृता देवी की तीनों पुत्रियां भी वहां पर पहुंच गईं और वे भी अमृता की भांति खेजड़ी से चिपक गईं। निर्दयी सैनिकों ने अमृता विश्नोई, उनकी तीनों पुत्रियां सहित 363 पर्यावरण प्रेमियों के सिर काट डाले। इस प्रकार खेजड़ी वृक्षों के रक्षार्थ, 363 विश्नोई पर्यावरण प्रेमी बलिदान हो गए। कदाचित् यह विश्व इतिहास का प्रथम ‘चिपको आंदोलन’ रहा होगा !

अतिक्रमित सरकारी भूमियों का सीमांकन ज़रूरी

विचारणीय है कि इसके प्रत्युत्त आज वन-जंगलात् भूमि पर बढ़ते अवैध क़ब्ज़े, खनन आदि ने जैव सम्पदा को बड़ी क्षति पहुंचाई है। ऐसे में सैटेलाइट आधारित तकनीक से अतिक्रमित सरकारी भूमियों का चिह्नीकरण कर, उसका सीमांकन किया जाना ज़रूरी है। जिससे राजस्व और वन-विभाग के मध्य बढ़ते विवादों के निस्तारण के प्रयासों को गति मिलेगी। इसके लिए राजस्व, वन विभाग सहित सभी को अपना भू-अभिलेख समय-समय अपडेट करना होगा। चारागाह और ओरण की सरकारी भूमियों पर अतिक्रमणों को रोकने में ग्राम-पंचायतों और जागरूक सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी सकारात्मक भूमिका अदा करनी चाहिए। हमें यह याद रखना होगा कि इस वर्ष आईपीसीसी ने अपनी छठी आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण असंतुलन से उत्पन्न दुष्प्रभावों, जोखिमों आदि के लिए मानव जाति को ज़िम्मेदार ठहराते हुए, हमें सावधान किया है। इसलिए आज मानव और प्रकृति के बीच ताने-बाने को और मज़बूत करने के प्रयास करने होंगे, जिससे मानव पेड़ों से प्यार करे और उसके और क़रीब आए। इस दिशा में विश्नोई सम्प्रदाय सदृश प्रकृति और पर्यावरण प्रेमी विभिन्न समाजों और अमृता जैसे कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है, जिनसे आगामी पीढ़ियां प्रेरित हो और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विभिन्न सामाजिक आंदोलनों को और गति मिले, ताकि विश्व को प्रकृति जनित विभिन्न भावी आपदाओं से बचाया जा सके।

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