‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ अर्थात इस जगत् में जितनी भी स्त्रियाँ हैं, वे सब माँ जगदंबा का ही स्वरुप हैं। ‘मार्कंडेय पुराण’ की ये पंक्तियाँ आधुनिक व तथाकथित ‘नारीवादी’ आंदोलन के ढोल पीटने से बहुत समय पहले से ही ‘सशक्त नारी’ की तेजस उपस्थिति, भारतीय समाज में विद्यमान थी।
यजुर्वेद का एक श्लोक यहाँ उल्लेखनीय है-
“मंहीमूषु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम।
तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूची सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्”॥
अर्थात हे नारी! तू महाशक्तिमती है। तू सुव्रती संतानों की माता है। तू सत्यशील पति की पत्नी है। तू भरपूर क्षात्रबल से युक्त है। तू परेशानियों के आक्रमण से जीर्ण न होनेवाली अतिशय कर्मशील है। तू कल्याण करनेवाली और शुभनीति का अनुसरण करने वाली है।
यह एक उदहारण मात्र है वस्तुत: समूचा वैदिक साहित्य ‘नारीशक्ति’ की गाथा से भरा पड़ा है। उदहारण के लिए देखें तो-
- वेद कहते हैं कि ‘कन्याएँ ब्रह्मचर्य के पालन से पूर्ण विदुषी होकर ही विवाह करें (अथर्ववेद 11।5।18।।),
- इसी तरह माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर भेजते समय उसे ज्ञान और विद्या का उपहार दें (अथर्ववेद 14।1।6।।),
- हमारे वेद स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार देते हुए कहते हैं कि राजा ही नहीं, रानी भी न्याय करने वाली हों (यजुर्वेद 10।26।।)।
- और वेदों ने तो स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया है। (यजुर्वेद 17।45।।)।
वैदिक काल में बालकों के समान बालिकाओं का भी उपनयन संस्कार होता था और वे भी गुरुओं के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन कर विद्या अध्ययन करती थीं। क्षत्रिय स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में भी उल्लेख मिलता है कि श्रीराम के गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल में संगीत व पर्यावरण संरक्षण का शिक्षण उनकी महान विदुषी पत्नी अरुंधती ही देती थीं।
इसी तरह वेदों की रचना करने वाली व वेदों की प्रकांड विद्वान विदुषी स्त्रियों की बात करें तो देवमाता अदिति, देवसम्राज्ञी शची, सती सतरूपा, साकल्य देवी, अपाला, घोषा, विश्ववारा, रोमशा, गार्गी, मैत्रेयी सहित न जाने कितने ही उद्धरण हमारे सामने ‘सशक्त नारी’ के रूप में उपस्थित हैं। ध्यातव्य है कि 26 विदुषी नारियों ने वेदों की रचना में सहभाग किया है, उल्लेखनीय यह भी है कि वेदों में वार्निं विवाह व्यवस्था की रचना भी एक महिला विदुषी ने ही की है; लेकिन आज-कल तथा विशेष रूप से पश्चिम द्वारा ‘नारीवादी आन्दोलन’ की आड़ में भारतीय नारी का स्वरुप विकृत कर जो ‘नारी सशक्तिकरण’ का ढकोसला परोसा जा रहा है, उस षड़यंत्र को समझने की आवश्यकता है। सामान्यतः देखने में आता है कि विगत कुछ वर्षों से ही देश में स्त्रियों के हक में आवाजें उठनी शुरू हुईं हैं; परन्तु यह विचार पूरी तौर पर गलत है, भ्रामक है। सनातन वैदिक साहित्य के तमाम उद्धरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज में पुरातन काल से ही महिलाओं की स्थिति अत्यंत सम्मानजनक व गौरवपूर्ण रही है। हमारे लिए एक समाज के रूप में खेद का विषय है कि पश्चिमी और तालिबानी मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों और वामपंथी विचारधारा वाले तथाकथित इतिहासकारों की एक बड़ी संख्या स्वतंत्रता के बाद से ही हमारे धर्म ग्रंथों की अनुचित व्याख्या के द्वारा हिंदूधर्म में स्त्रियों के शोषण व अपमान की तमाम मनगढ़ंत व तथ्यहीन बातें प्रचारित कर भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा को धूमिल करने के षड्यंत्र में जुटे हुए हैं।
पश्चिमी देश के ‘नारीवादी’ आंदोलनों जहाँ ‘नारी मुक्ति’ को अपने अन्दोलन का आधार बनाते हैं वहीं भारतीय सनातन संस्कृति प्राचीन काल से ही ‘नारी शक्ति’ के उद्देश्य को प्रस्तुत कर वास्तविक ‘नारी सशक्तिकरण’ की बात करती है ,जिस प्रकार पश्चिमी ‘नारीवादी’ आन्दोलन ‘पुरुषों’ के खिलाफ आन्दोलन की बात करते हैं वहीं हमारी मूल परंपरा के अनुसार ही ‘नारी शक्ति’ का उद्देश्य पुरुषों के खिलाफ खड़ा होना नहीं है बल्कि उनका भी सहयोग, समन्वय व सकारात्मक रूप को लेकर स्वयं को सशक्त रूप में स्थापित कर समाज को सशक्त बनाने की दिशा में आगे ले जाने का है।
भारतीय नारीवाद की परिपाटी आदिकाल से ही आदिशक्ति के रूप से ही दृष्टिगत है, आदिशक्ति को हम जगतजननी, जगदंबा के नाम से भी पुकारते हैं, देश के अलग-अलग हिस्सों में हम ‘नारी शक्ति’ का उत्सव मानते हैं। जैसे उत्तर भारत में नौ दिन माँ की उपासना की जाती है, इन नौ दिनों में लोग ‘दुर्गा सप्तसती’ का पाठ भी करते हैं, दुर्गासप्त्सती में इस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता को स्त्री स्वरुप में दर्शाया गया है, वो स्त्री इस जगत की निर्मात्री भी है, पालनकर्त्ता भी है और संहारक भी। जगदंबा में सभी पुरुष देवताओं की शक्तियां भी समाहित हैं, अर्थात जगदंबा ही ‘सर्वशक्तिमान’ हैं। उत्तर भारत में नवमी के दिन बालिकाओं को देवीस्वरूप मानकर भोजन कराया जाता है तथा उनका आशीर्वाद भी लिया जाता है। उल्लेखनीय विषय एक और है जब दशहरे वाले दिन रावण को मारकर विजयदशमी का उत्सव मानते हैं उसमें भी ‘नारीशक्ति’ का विशेष महत्त्व है चूँकि युद्ध के समय माँ दुर्गा को विजय का स्वरुप मन जाता है इसलिए प्रभु श्री राम ने भी रावण विजय प्राप्त करने से पूर्व माँ की आरधना की थी।
इसी तरह यदि दक्षिण भारत की नवरात्रि परम्पराओं की बात करें तो तेलंगाना में नवरात्रि की परंपराओं में से एक है बोम्माला कोलुवु, इस विशेष परंपरा में महिलाएँ गुड़ियों को सजाती भी हैं और कठिन से कठिन परेशानी का सामना करने के लिए ध्यान इत्यादि कर स्वयं को तैयार भी करती हैं, इसका तात्पर्य यही है कि नारी एक साथ ही उदात्त व तेजस्वी दोनों है।
बोम्माला की तरह ही कोलू का प्रचलन तमिलनाडु में भी है। इस उत्सव का एक हिस्सा “कोलू” की सजावट है जो वास्तव में नौ सीढ़ियों वाली एक सीढ़ी है, जो नौ रातों का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्येक सीढ़ी को सुंदर गुड़ियों और देवी-देवताओं की मूर्तियों से सजाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस्तेमाल की जाने वाली गुड़िया पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपी जाती हैं।
इसी तरह केरल में नवरात्रि की परंपरा शिक्षा परंपरा से जुड़ी है। केरलवासी अष्टमी के दिन माँ सरस्वती के सामने पुस्तकों और संगीत वाद्ययंत्र को रखते हैं और दशमी तक पुस्तकों और माँ सरस्वती की पूजा करते हैं। दशमी के दिन से पुस्तकें पढ़ने के लिए बाहर निकाली जाती हैं तो वहीँ अगर हम गुजरात की बात करें तो गुजराती संस्कृति नवरात्रि को नाच-गाकर और डांडिया खेलकर मनाने के लिए प्रसिद्ध है। गरबा और डांडिया के अलावा पूजा करने की भी कई पद्धतियाँ हैं मूल रूप से, गुजरात में नवरात्रि की परंपराएँ थोड़ी अलग हैं। गुजरती संस्कृति में, गरबा नामक एक मटका है जहाँ हम देवी माँ के समर्थन में 9 दिनों तक दीया जलाते हैं क्योंकि वह एक शैतान से लड़ती हैं, और 9 दिनों के लिए हम जवारे उगाते हैं। 9वें दिन जब यह पूरी तरह से विकसित हो जाता है तो इसे तिजोरी में डाल देते हैं और प्रवाहित भी करते हैं। गरबा और डांडिया महिलाओं को घर और चूल्हे की चारदीवारी से बाहर लाते हैं और उन्हें धर्म द्वारा स्वीकृत एक सहज, स्वतंत्रता प्रदान करते हैं।
महाराष्ट्र में भी नवरात्रि की परंपराएं गुजरात की नवरात्रि परंपराओं से काफी मिलती-जुलती हैं।
महाराष्ट्र में घरों में, विवाहित महिलाएँ अपनी महिला मित्रों को आमंत्रित करती हैं, उनके माथे पर हल्दी और कुमकुम लगाती हैं और उन्हें नारियल, पान और सुपारी भेंट करती हैं। इस दौरान महिलाएँ एक-दूसरे को उपहार भी देती हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल व असम ‘दुर्गा पूजा’ को सबसे भव्य तरीके से मनाने के लिए जाने जाते हैं। हर मोहल्ले में देवी दुर्गा की प्रतिमाओं और विस्तृत रूप से डिजाइन किए गए पंडाल , ढोल, ढाक, धुनुची नाच की ध्वनियाँ, अगरबत्ती की खुशबू हवा को ताज़गी और पवित्रता से भर देती है भव्य उत्सव के अलावा, अगर कोई बारीकी से देखे तो हम इस उत्सव में सशक्तिकरण का प्रतीक देख सकते हैं। दुर्गा की मूर्तियाँ और चित्र इस तथ्य पर जोर देते हैं कि महिला ही निर्माता, पालनहार और विध्वंसक है और वह पूजा की हकदार है। जब देवी की मूर्ति पंडालों में अकेले राजसी ढंग से खड़ी होती हैं, तो निडरता से सन्देश देती हैं कि एक महिला अपनी पहचान बनाने में सक्षम है।
जहाँ तक हमारी संस्कृति में महिलाओं के पारिवारिक अधिकारों की बात करें तो हमारे समाज में स्त्री की सत्ता व स्वायत्तता इतनी ऊँची व सम्मानजनक थी कि संतानें अपनी माँ के नाम से जानी जाती थीं; जैसे कौशल्यानंदन, सुमित्रानंदन, देवकीनंदन, गांधारीनंदन, कौन्तेय व गंगापुत्र इत्यादि। इसी तरह पत्नी का नाम भी पति से पहले रखा जाता था- लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर, सीताराम व राधाकृष्ण इत्यादि। क्या किसी अन्य धर्म-संस्कृति में अथवा नारीवाद का राग अलापने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों को नारी को सम्मान देने के ऐसे उदाहरण मिलते हैं ? भारतीय नारी सदैव ही विद्वता और शक्ति की पर्याय रही है, ऐसे उद्धरण भी भरे पड़े हैं, बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित मिथिला के राजा विदेहराज की जनसभा में अपने समय के सर्वोच्च तत्ववेत्ता याज्ञवल्क्य का परम विदुषी ब्रह्मवादिनी गार्गी के साथ जीवन और प्रकृति जैसे गूढ़ विषय पर हुआ शास्त्रार्थ भारतीय नारी की विद्वता को प्रतिष्ठित करने वाला हिन्दू दर्शन की अनमोल ज्ञान संपदा माना जाता है। वहीँ वैदिक नारी की विद्वता का ऐसा ही एक अन्य प्रसिद्ध उदाहरण जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के जीवन से जुड़ा है; जब देश के चारो कोनों – बद्रिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवधर्न पीठ की स्थाापना करने वाले शंकरचार्य भी एक स्त्री के आगे नतमस्तक हुए थे। वह विद्वानस्त्री थी अपने समय के प्रकांड संस्कृत विद्वान मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी उभय भारती। प्रारंभ में उन्होंने शंकराचार्य एवं मण्डन मिश्र के मध्य हुए शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका निभाई लेकिन जब उनके पति उस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य से हार गये तो वे खुद को पति की अर्धांगिनी का तर्क देकर स्वयं उनसे शास्त्रार्थ को प्रस्तुत हुईं और काम शास्त्र से जुड़े प्रश्न पूछ कर शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया। भारतीय सनातन संस्कृति को छोड़ नारी जाति का ऐसा गौरवशाली रूप दुनिया के किसी अन्य धर्म में नहीं मिलता।
भारतीय संस्कृति में नारी सदैव से ही ‘मुक्ति’ का विषय न होकर ‘शक्ति’ का विषय है। इसीलिए भारतीय नारी को और अधिक सशक्त होने के लिए किसी पाश्चात्य नारीवादी आन्दोलन की आवश्यकता नहीं है बल्कि ‘स्व’ को पहचानकर अपने गौरवबोध को जानकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करने की आवश्यकता है और जब भारतीय नारी अपने स्वत्व को पहचानकर आगे बढ़ेगी तो निश्चित ही सारा संसार इसकी ‘शक्ति’ को पहचानकर ‘भारतीय नारी शक्ति वंदन’ को विवश होगा।
लेखक वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान) में शोधार्थी हैं, जनजातीय समाज के लिए सक्रियता से कार्य कर रहीं हैं)
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