आज का दौर तेज रफ्तार, गलाकाट स्पर्धा का दौर है। समाज का संस्कार और समाज की संस्कृति बदल गई है। हमने बचपन में पढ़ा था- ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय।’ किंतु लगता है, अब इन बातों की सार्थकता नहीं रही। प्रौद्योगिकी के इस युग में मनुष्य मशीन बन कर रह गया है। कम समय और कम से कम लागत में अधिक से अधिक उत्पादन की मशीन। सभी को जल्दी है। 24 घंटे में 48 घंटे का काम करने की जल्दी। एक अजीब-से पागलपन का दौर है। आधुनिक प्रबंधन विज्ञान की भाषा में इसे ‘रैट रेस’ यानी ‘चूहा दौड़’ कहते हैं। लेकिन स्पष्ट है कि इसके परिणाम घातक साबित हो रहे हैं।
‘टॉरगेट’ पूरा करने का दबाव
अत्यधिक तनाव इस दौड़ की आवश्यक, किंतु खतरनाक शर्त है और इससे बचना लगभग नामुमकिन है। लोग यह सचाई भूल रहे हैं कि जीवन एक लंबी दूरी की दौड़ है और बहुत तेज दौड़ने वाले बहुत दूर तक नहीं दौड़ पाएंगे। पिछले दिनों एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की पुणे की शाखा में कार्यरत एक युवा महिला इसी मानसिकता का शिकार हुई और उसे जान से हाथ धोने पड़े। वह अत्यधिक तनाव का दबाव नहीं झेल पाई। सूचना प्रौद्योगिकी और कृत्रिम बुद्धि के इस युग में इन कार्यस्थलों में काम करने वाले मानव रोबोट की तरह हो गए हैं। उन पर अधिक से अधिक उत्पादन करने का अनावश्यक दबाव दिया जाता है। इसे आज के प्रबंधन की भाषा में टॉरगेट कहते हैं। वर्ष 1936 में हॉलीवुड में बनी चार्ली चैपलिन की एक मूक फिल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ में आज के इस दौर का बड़ा ही सटीक एवं जीवंत वर्णन किया गया था। आज के कार्यस्थल उसकी सार्थकता को स्थापित करते हैं। पुणे की घटना तो एक बानगी है जो वर्तमान समय के कार्यस्थलों की भयावह परिस्थिति को दर्शाती है।
उत्पादन बना प्राथमिकता
दरअसल यह घटना भी सुर्खियों में नहीं आती अगर मृत युवती की माता ने अपने मार्मिक एवं विस्तृत पत्र के माध्यम से घटना को उजागर नहीं किया होता। पत्र के अनुसार उक्त कर्मी पर कार्य का दबाव उसकी बर्दाश्त करने की क्षमता से अधिक था जिसकी परिणीति इस दुखद घटना में हुई। श्रम एवं नियोजन मंत्रालय ने ऐसे संकेत तो दिए हैं कि घटना की गंभीरता से जांच की जाएगी, लेकिन प्रश्न है कि क्या इस तरह के अनावश्यक दबाव से पीड़ित कर्मचारी खुद को बचा पाएंगे। इस घटना के बाद बहुत से ऐसी अन्य जगह कार्यरत कर्मियों ने अपने अनुभव साझा किए हैं। उत्पादकता बढ़ाने का दबाव आज के प्रबंधकों की सबसे बड़ी प्राथमिकता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इस तरह की नीतियां कर्मियों पर अनावश्यक दबाव डालती हैं जो सही नहीं है।
बढ़ती है नकारात्मकता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस तरह के दबाव से उत्पन्न मानसिक स्थिति को वर्ष 2019 में ‘बर्नआउट’ का नाम दिया था। ‘बर्नआउट’ अत्यधिक दबाव से पैदा हुए मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को कहा जाता है। इसके चलते कर्मियों को स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं हो सकती हैं। कैसी विडम्बना है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए दिया जाने वाला यह दबाव अंतत: कार्य के प्रति नकारात्मकता बढ़ाता है और कार्य क्षमता को घटा देता है, क्योंकि अक्सर कर्मचारी इन परिस्थितियों में खुद को चुका हुआ महसूस करते हैं। औद्योगिक मनोविज्ञान के शोधकर्ताओं ने आज से एक सदी से भी अधिक समय पहले यह स्थापित किया था कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए दबाव नहीं बल्कि कार्यस्थल को खुशहाल बनाना ज्यादा जरूरी है। तब से लेकर आज तक ऐसे अनेक शोध यह साबित कर चुके हैं कि कर्मियों की उत्पादकता उनकी सुखद मानसिकता पर अधिक निर्भर है ना कि दबाव द्वारा उत्पन्न भय, असुरक्षा और तनाव के माहौल पर।
रामायण से लें सीख
इस तरह के प्रकरण पर एक रोचक प्रसंग रामायण में है। जब प्रभु राम अपने कनिष्ठ भ्राता शत्रुघ्न को लवणासुर से युद्ध करने के लिए भेजते हैं तो उन्हें सेना का नेतृत्व सौंपते वक्त कुछ मंतव्य भी देते हैं जो आज के उच्च प्रबंधकों के लिए अच्छी सीख हो सकती है। वे शत्रुघ्न से कहते हैं, ‘‘भ्राता मैं तुम्हें अपनी प्रिय सेना का नेतृत्व सौंप रहा हूं। ये जांचे-परखे हुए हैं और हर तरह से सक्षम हैं। उनकी देखभाल अच्छी तरह से करना। इनको समय पर मेहनताना देना और किसी प्रकार का कष्ट मत देना। अच्छी तरह से देखभाल किए गए सैनिक पूरी निष्ठा से अपने राजा के लिए लड़ते हैं और यहां तक कि उसके लिए अपनी जान भी देने को तत्पर रहते हैं।’’ वहीं आज के आधुनिक प्रबंध विज्ञान से लैस प्रबंधक इन बुनियादी तथ्यों पर ध्यान नहीं देते और केवल दबाव से काम लेना चाहते हैं।
चिंतन की आवश्यकता
आजकल कार्यस्थलों पर जो कुछ हो रहा है उस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। पुणे की वह बहुराष्ट्रीय कंपनी, जिसमें यह दुखद घटना घटी, वहां कर्मियों को चेतावनी दी जा रही है कि इस मामले पर कुछ भी बोलना उनके लिए नुकसानदेह होगा। जिस प्रबंधक के नेतृत्व में वह काम करती थी उनका कहना था कि उसको उतना ही काम दिया गया जितना दूसरों को दिया गया था अत: कार्य की अधिकता उसके दबाव का कारण नहीं थी। प्रबंधकों के लिए दुनिया की मानी हुई पत्रिका हॉवर्ड बिजनेस रिव्यू के एक शोध में यह पाया गया कि जब कोई कर्मचारी दबाव महसूस कर रहा हो या क्षुब्ध हो तो उसके वरिष्ठ प्रबंधक क्या कहते या करते हैं इसका बहुत असर पड़ता है। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुनाफे की दौड़ में कर्मचारियों की आहुति देने से भी परहेज नहीं करतीं।
खतरनाक है मुनाफे की दौड़
किसी भी संगठन की कार्य संस्कृति उसके शीर्ष 10 प्रबंधकों के व्यवहार पर निर्भर करती है। आज आवश्यकता है कार्य स्थलों को कर्मी हितैषी बनाने की ताकि कोई भी कर्मी अपने मन की बात शीर्ष प्रबंधन से कह सके। प्रबंधन के साहित्य में ‘टेलरवाद’ के नाम से प्रचलित कार्यशैली इसके विपरीत इस सिद्धांत की हिमायती है कि कर्मियों को अधिक से अधिक उत्पादन के लिए लोभ या भय से प्रेरित किया जाए और उन्हें नायक का दर्जा दिया जाए और अन्य लोगों को नजर अंदाज किया जाए। जापान में बहुत से उद्योगों में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं और वहां के प्रबंधन की भाषा में इसे करोशी कहा जाता है। करोशी यानी कार्यस्थल के दबाव के चलते मौत। मुनाफे और उत्पादकता की अंधी दौड़ में मानवीय संवेदनाएं लुप्त हो रही हैं।
उत्पादकता की परिभाषा दोषपूर्ण
आंकड़े बताते हैं कि भारत में कोई 51 फीसदी कर्मी प्रति सप्ताह 49 घंटे या उससे अधिक काम करते हैं। संयुक्त अरब अमीरात में कोई 40 फीसदी लोग 50 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं। इस लिहाज से कई पश्चिमी देश काफी बेहतर स्थिति में है जहां ज्यादातर लोग 32 से 33 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं। कई जगहों पर तो कार्यालय की अवधि के बाद लोगों को टेलीफोन या मेल का जवाब न देने की छूट है। यह पूरी अवधारणा ही भ्रामक है है कि अधिक दबाव दे कर और अधिक घंटे काम कर आप उत्पादकता बढ़ा सकते हैं। मूलत: उत्पादकता की यह परिभाषा ही दोषपूर्ण है। मानव को मानव समझना और उससे मानव की तरह काम लेना ही उसके सर्वश्रेष्ठ कार्य निष्पादन का कारक हो सकता है।
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