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ज्यादा की चाह खतरनाक राह

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डॉ. प्रियंका द्विवेदी

पिछले दिनों पुणे में अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) में काम करने वाली एक युवा चार्टर्ड अकाउंटेंट एना सेबेस्टियन पेरायिल की ‘काम के बोझ’ के चलते मृत्यु हो गई। देश में अभी इस पर बहस चल ही रही थी कि लखनऊ में निजी क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित बैंक अधिकारी की मृत्यु हो गई। कहा जा रहा है कि 45 वर्षीया सदफ फातिमा की मौत भी ‘काम के बोझ’ के कारण हुई है। लगातार दो मौतों ने अत्यधिक काम और तनाव को लेकर विमर्श को तेज कर दिया है। इसी के साथ कामकाजी जीवन में संतुलन पर भी चर्चा हो रही है। ठीक एक वर्ष पहले अक्तूबर 2023 में इन्फोसिस के सह-संस्थापक एन.आर. नारायण मूर्ति ने देश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए युवाओं को 70 घंटे काम करने की नसीहत दी थी। साथ ही, यह कहा था कि वे स्वयं सप्ताह में 85-90 घंटे काम करते थे। काम के घंटों को लेकर संसद में भी सवाल उठा था। इस पर श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री रामेश्वर तेली ने कहा था कि सरकार के पास 70 घंटे काम से संबंधित कोई प्रस्ताव नहीं है।

डॉ. प्रियंका द्विवेदी
टेक्निकल टुडे पत्रिका की एसोसिएट एडिटर

इधर, एना की मौत पर केंद्र सरकार ने सख्ती दिखाई है। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री मनसुख मंडाविया ने 24 सितंबर को कहा कि एना की मृत्यु से जुड़े मामले की जांच की जा रही है। इस बारे में राज्य के अधिकारियों से जानकारी मांगी गई है। रिपोर्ट मिलने के बाद ही सरकार कोई कार्रवाई करेगी।

अत्यधिक काम और तनाव

केरल के कोच्चि में रहने वाली एना सेबेस्टियन 26 वर्ष की थीं और पुणे स्थित ईवाई ग्लोबल की सदस्य कंपनी एसआरबीसी में काम करती थीं। कहा जा रहा है कि दो माह पहले जुलाई में हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई थी। लेकिन दो महीने बाद उनकी मौत का मामला तब प्रकाश में आया, जब उनकी मां अनिता आगस्टीन ने न्याय की मांग करते हुए ईवाई इंडिया के प्रमुख राजीव मेमानी को तीन पन्ने का एक मार्मिक पत्र लिखा। यह पत्र सोशल मीडिया में वायरल हुआ, तब इस पर बहस शुरू हुई।

उन्होंने पत्र में आरोप लगाया कि कंपनी ने उनकी बेटी पर काम का बहुत अधिक बोझ डाल दिया था, जिसके कारण उसकी मौत हो गई। दरअसल, 20 जुलाई को देर शाम एना कार्यालय से जब घर लौटीं तो अचानक बेहोश हो गईं। उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। अनिता आगस्टीन का कहना है कि एना को स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या नहीं थी। वह आधी-आधी रात तक काम करती थी। कंपनी उसे साप्ताहिक अवकाश पर भी कार्यालय बुलाती थी। पर एनका को छुट्टी के दिन काम करने के बदले मिलने वाला प्रतिपूरक अवकाश (कंपनसेटरी आफ) नहीं दिया जाता था।

उनका आरोप है कि कंपनी ने बेटी का बकाया अंतिम भुगतान भी देर से किया। यही नहीं, कंपनी का कोई भी कर्मचारी-अधिकारी एना के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुआ। एना इससे बेहतर की हकदार थी और वे सभी कर्मचारी जो ऐसी परिस्थितियों में काम करते हैं, वे भी बेहतर के हकदार हैं। उन्होंने मीडिया को बताया कि काम का बोझ, नया माहौल और लंबे समय तक काम करने के कारण एना पर शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक रूप से बहुत बुरा असर पड़ा। महाराष्ट्र श्रम विभाग के अधिकारी 25 सितंबर को जब जांच के लिए कंपनी के कार्यालय गए तो उन्हें बताया गया कि एना को प्रतिपूरक और साप्ताहिक अवकाश मिलता था। लेकिन अनिता आॅगस्टीन ने इसका खंडन किया।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, उनका कहना है कि एना ने 20 जुलाई, 2024 तक काम किया था, न कि कंपनी के अनुसार 19 जुलाई तक। एना 11 मार्च से एसआरबीसी में काम कर रही थी और मात्र चार महीने में उस पर काम का इतना बोझ पड़ा कि उसकी जान चली गई। उस पर काम का इतना दबाव था कि उसकी भूख-प्यास तक खत्म हो गई थी। दिन-रात कम करने की वजह से उसे नींद नहीं आती थी। एना की मौत के लिए उन्होंने आज की विषाक्त कार्य संस्कृति को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने कहा कि अक्सर जब क्रिकेट मैच होते थे, तब एना का मैनेजर मीटिंग्स को रीशेड्यूल करता था और दिन खत्म होने पर उसे काम सौंपता। इससे उनकी बेटी का तनाव बढ़ता जा रहा था।

दूसरी तरफ, एचडीएफसी बैंककर्मी सदफ फातिमा की मृत्यु कार्यालय में ही हुई। वे काम करते समय कुर्सी से गिर गईं। उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत में ‘आक्यूपेशनल डेथ’ (कार्यस्थल पर मौत) के आंकड़े आने वाले दिनों में और बढ़ेंगे? डॉक्टरों का कहना है कि भारत में काम के बोझ का चलन बहुत आम बात है। एक शोध के अनुसार, देश में अधिकांश युवाओं की मौत काम के बोझ के कारण होती है। डॉक्टर इसे ‘आक्यूपेशनल डेथ’ कहते हैं। आने वाले दिनों में भारत जब विकसित देश बनेगा तो कंपनियों और फैक्टरियों में इस तरह की मौत के मामले और बढ़ेंगे।

निशाने पर कॉरपोरेट घराने

भारत में वैसे तो काम के घंटे तय हैं। यहां लोग प्रतिदिन 8 से 9 घंटे के हिसाब से सप्ताह में 45 से 48 घंटे काम करते हैं। हालांकि, कुछ कंपनियों में पेशेवरों को तय घंटे के बाद भी काम काम करना पड़ता है। एना की मौत के बाद ईवाई के कई कर्मचारियों ने कंपनी के साथ अपने खराब अनुभवों को साझा किया। ईवाई के एक पूर्व वरिष्ठ आडिटर ने मीडिया को बताया कि उनके एक परिचित ने कंपनी में ‘पीक सीजन’ के दौरान प्रतिदिन 15-16 घंटे काम किया, फिर भी उसे खराब रेटिंग दी गई। कारण, उसके काम का श्रेय उसके वरिष्ठ ने ले लिया। इसी तरह, सीए अमित विजयवर्गीय ने कंपनी के चेयरमैन राजीव मेमानी और अन्य वरिष्ठ सहकर्मियों को भेजे गए ईमेल का स्क्रीन शॉट लिंक्डइन पर साझा किया। साथ ही, लिखा है, ‘कर्म का फल वाकई मिलता है।’ उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि उन्हें परेशान किया गया और इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया।

एक अन्य पूर्व कर्मी सीए नसीरा काजी ने बताया कि कंपनी के पास बदलाव की कोई योजना नहीं है। उत्पीड़न, मानसिक स्वास्थ्य, दुर्व्यवहार, भेदभाव आदि जैसे संवेदनशील मामलों को संबोधित करने के लिए कंपनी में नैतिकता हॉटलाइन तो है, लेकिन इसका उपयोग कंपनी के विरुद्ध बोलने वाले लोगों की बोलती बंद कराने के लिए किया जाता है। एना की मां ने राजीव मेमानी को लिखे पत्र में कंपनी की विषाक्त कार्य संस्कृति को सुधारने को कहा है। उन्होंने यह भी कहा कि अत्यधिक काम के कारण कई कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया था, इसलिए एना के बॉस ने उनकी बेटी को इस्तीफा देने से रोक दिया था।

सिर्फ अर्न्स्ट एंड यंग इंडिया ही नहीं, देश की कई नामी कॉरपोरेट कंपनियों के पूर्व और वर्तमान कर्मचारी खुलकर कार्यस्थल पर तनाव और विषाक्त कार्य संस्कृति पर अपनी ‘भयावह’ आपबीती सुना रहे हैं। इस कड़ी में टीसीएस की पूर्व कर्मी रोमा ने एक्स पर लिखा कि जब वह फ्रेशर थीं, तब टीसीएस में उनके टीम लीड ने न केवल उन्हें, बल्कि अन्य फ्रेशर्स का भी ‘यौन उत्पीड़न’ किया था। जब उन्होंने इसका विरोध किया, तो उन पर अधिक काम का दबाव डाला गया। इसी तरह, डिलॉएट के एक पूर्व कर्मचारी जयेश जैन ने एक्स पर ट्वीट किया है। अपने पोस्ट में उन्होंने अपनी टीम के साथ सुबह 5 बजे की बातचीत के स्क्रीनशॉट भी साझा किए, जिसमें वे अपने अत्यधिक काम और स्वास्थ्य के बारे में चर्चा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि उन्हें 20-20 घंटे काम करना पड़ा।

काम के कितने घंटे?

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार, भारतीय प्रति सप्ताह औसतन 48-50 घंटे काम करते हैं, जबकि वैश्विक औसत 34-36 घंटे है। कोरोना के बाद काम के बोझ के बढ़ने के साथ-साथ काम के घंटे भी बढ़ गए हैं। स्थिति यह है कि कार्यालय और काम के दबाव के कारण भारतीय कर्मचारी वे छुट्टियां भी नहीं ले पाते, जो उन्हें मिलती हैं। 2018 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, दुनिया में सबसे अधिक भारतीयों को अवकाश से छुट्टियों से वंचित किया गया।

आंकड़े बताते हैं कि दो लाख से अधिक भारतीयों की मौत आवश्यकता से अधिक काम करने के कारण उत्पन्न बीमारियों के कारण होती है। मैकिन्से की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में नौकरीपेशा लोगों में ‘बर्नआउट’ के 60 प्रतिशत लक्षण पाए जाते हैं, जो सबसे अधिक हैं। मैकिन्से की यह रिपोर्ट विश्व के 30 देशों में सर्वेक्षण पर आधारित है। भारत में 20 ऐसे क्षेत्र हैं, जहां लोग सप्ताह में 50 से अधिक घंटे काम करते हैं। इनमें टेलीकॉम, आईटी, मीडिया, पुलिस विभाग आदि शामिल हैं। टेलीकॉम क्षेत्र में तो प्रति सप्ताह औसतन 57.5 घंटे काम होते हैं, जो सबसे अधिक है। यह आईएलओ के कानून से लगभग 9 घंटे अधिक है। आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार, खासतौर से युवा अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के मुकाबले अधिक घंटे काम करते हैं। भारत में 20 वर्ष तक के युवा सप्ताह में लगभग 58 घंटे, 30 वर्ष की उम्र के लगभग 57 और 50 वर्ष के होने पर औसतन 53 घंटे काम करते हैं।

संतुलन जरूरी

युवा घंटों काम करने के कारण तनाव, अवसाद, सर्वाइकल, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग सहित अन्य गंभीर बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। सप्ताह में 50 घंटे से अधिक काम करने से अवसाद का खतरा काफी बढ़ जाता है। घंटों बैठे रहने से शरीर में रक्त प्रवाह ठीक से नहीं होता, जिससे कई अंगों को नुकसान पहुंच सकता है। जैसे- फेफड़ों में खून के थक्के जमना।

70 घंटे काम की नसीहत

पिछले वर्ष नारायण मूर्ति ने एक पॉडकास्ट में कहा कि भारत की कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है। चीन जैसे देशों के साथ मुकाबला करने के लिए युवाओं को अधिक घंटे काम करना होगा। अगर गरीबी दूर करनी है, तो अधिक काम करना एकमात्र तरीका है। बेंगलुरु के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. दीपक कृष्णमूर्ति ने नारायण मूर्ति के बयान का विरोध किया था। उन्होंने एक्स पर समझाते हुए लिखा था कि रोज 12 घंटे काम करने का सीधा असर दिल पर होगा। एक दिन में 24 घंटे होते हैं। सप्ताह में 6 दिन रोजाना 12 घंटे काम के हिसाब से 12 घंटे बचे। इनमें से 8 घंटे सोने में और बेंगलुरु जैसे शहर में 2 घंटे तो ट्रैफिक में ही बीत जाएंगे। शेष 2 घंटे में खाना, नहाना, और सारी तैयारी करना। ऐसे तो हमारे पास न तो किसी से मिलने और न ही परिवार से बात करने का समय होगा। कंपनियां उम्मीद करती हैं कि कर्मी घंटों काम के बाद भी आॅफिस के फोन उठाएं, ईमेल, मैसेज देखें और जवाब दें। फिर हैरान होते हैं कि आखिर युवाओं को दिल का दौरा क्यों पड़ रहा है?

इसके बाद भी नारायण मूर्ति अपने बयान पर कायम रहे। लेकिन बाद में जब उन्होंने बच्चों के साथ दो-तीन घंटे बिताने और उन्हें पढ़ाने की बात कही, तो उन्हें फिर से लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। एक्स पर रेनुका जैन नामक एक यूजर ने लिखा, ‘‘…लेकिन आपकी सलाह के अनुसार अगरि माता-पिता 72 घंटे काम करेंगे तो वे बच्चों को समय कब देंगे?’’ एक अन्य यूजर रूपाली राजपूत ने कहा कि जब लोग 72 घंटे काम ही करेंगे तो बच्चे कहां से होंगे? वहीं, भरत नामक एक यूजर ने लिखा कि मूर्ति सर की यह सलाह कंपनी के निदेशकों, सीईओ और संस्थापकों के लिए है, न कि हमारे जैसे कामगार वर्ग के लोगों के लिए।

यदि उच्च रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल से दूर रहना है तो काम के बीच अंतर रखें और नियमित व्यायाम करें ताकि तनाव न हो। काम के दबाव से दिल का दौरा पड़ने का खतरा भी रहता है। इसलिए खानपान का ख्याल रखते हुए खाने के बाद कुछ कदम जरूर चलना चाहिए। यही नहीं, लगातार लंबे समय तक बैठने से आंतों के कैंसर का खतरा भी रहता है। लंबे समय तक काम करने के कारण न केवल कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दबाव के कारण वे मानसिक तौर पर कमजोर हो जाते हैं, इसलिए आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। बीते दिनों पुणे के 35 वर्षीय एलेक्स रेगी नामक व्यक्ति ने अटल सेतु से समुद्र में कूद कर जान दे दी।

पुलिस जांच में पता चला कि वह एक राष्ट्रीय बैंक में काम करते थे। उनकी पत्नी का कहना था कि उन्होंने काम के दबाव के कारण आत्महत्या की। डब्ल्यूएचओ और आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार सप्ताह में 52 घंटे से अधिक काम करने वालों में टाइप-2 मधुमेह का खतरा 95 प्रतिशत अधिक होता है। यानी विश्व में बढ़ते मधुमेह के पीछे थकाऊ कार्यशैली सबसे बड़ा कारण है। वहीं, हृदय रोग और हृदयाघात से होने वाली मौतों के मामले भी बढ़ रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, अत्यधिक काम के कारण सर्वाधिक मौतें भारत में हो रही हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, बीते दो दशक में काम के तनाव के कारण भारतीयों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की दर में लगभग ढाई गुना (2.4 गुना) की वृद्धि हुई है।

भारत में जितनी भी कंपनियां और फैक्टरियां हैं, वे श्रम मंत्रालय के अंतर्गत आती हैं। श्रम मंत्रालय के अनुसार, जिस कंपनी या फैक्टरी में 500 कर्मचारी काम करते हैं, वहां ‘आक्यूपेशनल हेल्थ सेंटर’ होना जरूरी है। यानी वहां एक डॉक्टर, एक सुरक्षा अधिकारी, एक आक्यूपेशनल हाईजिनिस्ट अनिवार्य रूप से होना चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि देश की 5 प्रतिशत कंपनियों और फैक्टरियों में भी आक्यूपेशनल हेल्थ सेंटर नहीं है। यही नहीं, आपात स्थिति से निपटने के लिए डॉक्टर भी प्रशिक्षित नहीं हैं।

कार्यस्थल पर जबरन थोपे गए काम से लोगों का कामकाजी जीवन संतुलन गड़बड़ा रहा है। यही वजह है कि कार्यालय में अत्यधिक घंटे देने के बजाए कर्मचारी अपने निजी जीवन को प्राथमिकता देना पसंद करते हैं। बहरहाल, ताजा बहस के बीच माइक्रोसॉफ्ट कंपनी चर्चा में है, जहां कर्मचारी सप्ताह में मात्र 15-20 घंटे ही काम करते हैं। एक्स पर एक वायरल पोस्ट में रोना वांग नामक यूजर ने लिखा है, ‘‘माइक्रोसॉफ्ट में काम करने वाले अपने दोस्त से बात कर रही हूं और जाहिर तौर पर वह हफ्ते में 15-20 घंटे काम करता है और बाकी समय लीग खेलता है, जिसके लिए उसे 300 डॉलर मिलते हैं।’’ बीते दिनों में गूगल के सिंगापुर कार्यालय में एक कॉपोर्रेट कर्मचारी का वीडियो भी वायरल हुआ। सिंगापुर में काम करने वाली एक कोरियाई यूजर ने अपने फॉलोवर्स को गूगल में काम के एक दिन का अनुभव साझा किया।

विदेशों में व्यवस्था

हाल ही में आस्ट्रेलिया ने पेशेवरों के लिए ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ योजना लागू की है। इसका मतलब यह है कि कार्यालय में काम के घंटे पूरे होने के बाद कर्मचारी के लिए कार्यालय से आने वाले फोन को उठाना जरूरी नहीं होगा। व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन के बीच संतुलन जरूरी है। इसके लिए काम और व्यक्तिगत जीवन के बीच स्पष्टता अनिवार्य है। यह किसी व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपने व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन की प्राथमिकताएं तय कर उसका पालन करे। इसके लिए घर और कार्यालय, दोनों जगहों पर समय का प्रबंधन करने के साथ अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का भी ख्याल रखना होगा। कंपनियों को भी यह देखना चाहिए कि उसके कर्मचारी कामकाजी जीवन को संतुलित रख रहे हैं या नहीं, क्योंकि अंतत: इसका असर काम पर ही पड़ता है।

यदि व्यक्ति का कामकाजी जीवन संतुलित है, तो वह अपना श्रेष्ठ योगदान देगा। इसलिए कार्यस्थल पर सभी के लिए मनोवैज्ञानिक सहयोग भी उपलब्ध होना चाहिए। तनाव भरे माहौल में काम करने से उत्पादकता और मानसिक स्वास्थ्य, दोनों को नुकसान होता है। इसके अलावा, कर्मचारी और बॉस के बीच नियमित संवाद हो, ताकि वे अपनी बात खुलकर कह सकें। कार्यस्थल पर नए कर्मचारियों के लिए ‘मेंटरशिप प्रोग्राम’ भी होना चाहिए। इससे उन्हें सीखने और बढ़ने के लिए एक मंच मिल सकता है। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि परेशानी के समय किससे संपर्क करना है।

ऐसे दूर करें काम का तनाव

मनोचिकित्सकों के अनुसार, काम का तनाव मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालता है। कई बार लोग काम की चिंता, कार्यस्थल पर प्रदर्शन और नौकरी में मन न लगने के कारण मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। दरअसल, आप जिस जगह पर काम या नौकरी कर रहे हैं, वहां पर तनाव के कई कारण हो सकते हैं। कभी-कभी यह स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है और इसकी वजह से लोग मानसिक समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। हाल के एक शोध के अनुसार, 50 प्रतिशत से अधिक लोग अपने काम या नौकरी से संतुष्ट नहीं हैं या फिर काम की चिंता यानी ‘वर्क एंग्जाइटी’ से ग्रसित होते हैं।

मुंबई के जगजीवनराम अस्पताल के विख्यात मनोचिकित्सक डॉ. (प्रो.) पीके समान्तरि के अनुसार, अगर आप काम को लेकर सीमा का निर्धारण नहीं करेंगे तो इसका आपके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। इसलिए व्यक्तिगत जीवन और कामकाजी जीवन की प्राथमिकता तय करें और उसी के अनुसार काम करें। काम के समय व्यक्तिगत जीवन को दूर रखें और परिवार के साथ समय बिता रहे हैं तो काम से दूरी बनाएं। काम के दबाव का प्रबंधन करने के लिए दिन की शुरुआत के साथ ही अपनी प्राथमिकता तय कर लें। इससे आप पर अचानक काम का दबाव नहीं आएगा और आप अपने सभी काम समय पर पूरा कर सकेंगे।

काम की डेडलाइन कई बार तनाव और चिंता जैसी मानसिक समस्याओं का कारण बन सकती है। इसलिए सोच-विचार कर डेडलाइन तय करें। काम के दबाव को कार्यालय तक ही सीमित रखें और कार्यालय में ही इसे पूरा करने की कोशिश करें। हम सब अपने भविष्य या कॅरियर को लेकर हमेशा चिंतित रहते हैं। आजकल हर कोई अपनी नौकरी को लेकर असुरक्षित महसूस करता है। इसलिए भी लोग मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान रहते हैं। कुल मिलाकर काम के तनाव के प्रबंधन के लिए सरकार के साथ-साथ सामुदायिक स्तर पर पहल की जरूरत है। साथ ही, देश में काम के घंटे का कड़ाई से पालन करने की जरूरत है।

2014 में जापान मे एक कानून बना था, जिसे करोशी एक्ट कहा जाता है। इसमें काम के दौरान और कार्यस्थल पर होने वाली मौत के बारे में दिशानिर्देश दिए गए हैं, जिसका पालन नियोक्ता करते हैं। इसी तरह, 2018 के बाद जापान ने ओवरटाइम के घंटों को सीमित कर दिया। इसके अनुसार, कर्मचारी महीने में 45 घंटे से अधिक और वर्ष में 360 घंटे ही ओवरटाइम कर सकता है। आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार, प्रशांत महासागर स्थित वनातू नामक देश में लोग सबसे कम घंटे काम करते हैं। यहां एक कर्मचारी हर हफ्ते मात्र 24.7 घंटे काम करता है।

वनातू की मात्र 4 प्रतिशत आबादी ही हफ्ते में 49 घंटे या उससे अधिक काम करती है। इसके बाद प्रशांत महासागर क्षेत्र का ही किरिबाती दूसरे स्थान पर है। यहां पर एक कर्मचारी हर हफ्ते औसतन 27.3 घंटे काम करता है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि भारत सबसे कम काम के घंटे वाले शीर्ष 20 देशों में भी शामिल नहीं है। भारत में 51.4 प्रतिशत नौकरीपेशा सप्ताह में 49 घंटे या इससे अधिक काम करते हैं। इस हिसाब से भारतीय औसतन प्रति सप्ताह 46.7 घंटे काम करते हैं। आईएलओ की रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में नौकरीपेशा लोग काम के बोझ के तले दबे हुए हैं। इस मामले में भूटान 61.3 प्रतिशत के साथ दुनिया में पहले स्थान पर है।

 

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