विश्लेषण

रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा को लेकर DDA की भूमि पर मुस्लिमों का इनकार? राष्ट्रीय नायिका से ऐसी क्या असहिष्णुता?

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सोनाली मिश्रा

वर्ष 1857 में भारत ने आजादी का सपना पूरा करने के लिए पहला देशव्यापी संगठित कदम उठाया था। इस कदम में हिन्दू और मुस्लिमों के मध्य की दीवार गिर गई थी। इस कदम में हिन्दू और मुस्लिम मिलकर अपने साझे दुश्मन अंग्रेजों के अत्याचारों से लड़े थे और हिन्दू शासकों ने एक सुर में 1857 की क्रांति में मुगल बहादुरशाह को अपना स्वाभाविक नेतृत्व माना था।

यह क्रांति यद्यपि अपने वांछित परिणाम पाने में सफल नहीं हो पाई थी, मगर उसने अंग्रेजी शासन को यह तो चेताया था कि अब लोग उसके अत्याचारों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे उसके मनमाने नियम मानने के लिए तैयार नहीं हैं और वे अपना ही नेतृत्व चाहते हैं और 1857 की क्रांति का ही परिणाम था कि शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से हटकर ब्रिटिश सरकार के पास गया था। हालांकि यह भी हल नहीं था, मगर यह एक मार्ग बना जिसके माध्यम से भारतीयों की भावनाओं का संवाद वहाँ तक पहुंचा था और ईस्ट इंडिया कंपनी की मनमानी और अत्याचारों पर लगाम लगी थे।

जब भी 1857 की क्रांति की बात होती है तो जितने आदर से झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम लिया जाता है, उतने ही आदर से बेगम हजरत महल का नाम लिया जाता है। हिंदुओं ने या कहें भारत से प्यार करने वाले लोगों ने 1857 के क्रांतिकारियों को कभी भी धर्म और मजहब के आईने से नहीं देखा। बहादुरशाह जफर के रंगून निर्वासन पर आज भी लोग लिखते हैं। वे उस पीड़ा को अनुभव करते ही हैं। फिर आज ऐसा क्या हुआ है कि 1857 की क्रांति के नायकों को धर्म के आधार पर देखा जाने लगा है? आज ऐसा क्या हुआ है कि जिस रानी लक्ष्मीबाई ने दिल्ली का बादशाह बहादुरशाह को बनाने के लिए नेतृत्व की बात की, उन्हीं की प्रतिमा को दिल्ली में कुछ मुस्लिम उस सरकारी पार्क में नहीं लगने देना चाह रहे हैं जहां पर नमाज होती है?

आखिर नमाज पढ़ने वालों को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा से आपत्ति क्या है? क्या रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन में किसी भी मुस्लिम के साथ कोई अन्याय किया था? क्या उन्होंने अपने राज्य में धर्म के आधार पर भेदभाव किया था? या फिर वे हिन्दू राष्ट्र के लिए लड़ी थीं? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर न में है। फिर ऐसा क्यों है कि उनकी प्रतिमा को उन्हीं के देश के एक पार्क में स्थान नहीं मिल पा रहा है।

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क्या उन्होंने अपनी मुस्लिम प्रजा को नमाज पढ़ने से कभी रोका था? ऐसा तो उल्लेख इतिहास में नहीं प्राप्त होता है। बल्कि, एक नहीं कई उदाहरण इस बात के मिलते हैं कि कैसे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुस्लिम लड़े थे। रानी की सेना में ही मुस्लिम थे। जब रानी लक्ष्मीबाई ने और उनके साथियों और सैनिकों में आपस में न ही कोई मतभेद था और न ही कोई दीवार तो दिल्ली के ईदगाह मैदान में रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा का विरोध क्यों?

विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि इस्लाम में बुतपरस्ती हराम है। मगर प्रश्न यही है कि अपने मुल्क के नायकों का सम्मान भी करना गलत है? जब यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय पहुंचा तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी विरोध करने वालों को आईना दिखाते हुए प्रश्न किया कि रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति से नमाज पढ़ने में क्या दिक्कत आ रही है? रानी लक्ष्मीबाई कोई धार्मिक हस्ती नहीं है। वह राष्ट्रीय नायिका हैं। हम 1857 की लड़ाई को नहीं भूल सकते।

उत्तरी दिल्ली के सदर बाजार में डीडीए के पार्क पर वक्फ बोर्ड ने अपना दावा पेश किया था, मगर इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय की सिंगल बेंच ने पार्क को डीडीए की संपत्ति बताया है। उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी भीड़ न केवल झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा लगाने का विरोध करने के लिए पहुंची थी, बल्कि वहाँ पर अशान्ति भी फैलाने की कोशिश की गई थी। प्रश्न यही है कि जहां पर नमाज पढ़ी जाती है वहाँ पर किसी भी धार्मिक व्यक्ति की प्रतिमा नहीं लगाई जा रही है, बल्कि देश को एक सूत्र में बांधने के लिए, अंग्रेजों से बहादुरी से दो-दो हाथ करने वाली लक्ष्मीबाई की प्रतिमा लगाई जा रही है, तो ऐसे में आपत्ति क्या है?

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न्यायालय ने भी यह स्पष्ट किया है कि आखिर इतनी समस्या क्या है? हम विरोध का कारण नहीं समझ पा रहे हैं। झांसी की रानी कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं है! इस पार्क में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा के विरोध में शाही ईदगाह मैनेजिंग कमिटी ने अपनी याचिका में काफी निंदनीय दलीलें दी थी, जिन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय ने विभाजनकारी बताया था। अब इसकी सुनवाई 4 अक्टूबर को होगी और यह देखना होगा कि याचिका में कुछ अति निंदनीय बातों के लिए माफी मांगने वाले लोग एक राष्ट्रीय नायिका के लिए अपनी घृणा कम करते हैं या वह केवल उनके लिए एक “हिन्दू” महिला ही रहेंगी?

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