पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति और राष्ट्रवादी विचारधारा के एक ऐसे स्तंभ हैं, जिन्होंने न केवल जनसंघ की नींव रखी बल्कि “एकात्म मानवदर्शन” और “स्वदेशी” के विचारों को भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग बनाया। उन्होंने अपने जीवन में जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, वे आज के भारत में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उनके विचार और दृष्टिकोण आज के “मेक इन इंडिया”, “वोकल फॉर लोकल”, और “एक भारत श्रेष्ठ भारत” जैसे अभियानों के प्रेरणास्रोत बने हैं।
भारतीयता की जड़ों से जुड़ा विचार
पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्वदेशी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि यदि हम विदेशी पूंजी, विचार और उत्पादों पर निर्भर हो जाएंगे, तो एक बार फिर गुलामी की जंजीरों में जकड़ जाएंगे। उन्होंने गर्व से स्वदेशी को अपनाने का आह्वान किया और कहा कि यदि हम अपनी जड़ों से कटकर विदेशी मॉडल अपनाते हैं, तो यह समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। उनका यह विचार आज के समय में “आत्मनिर्भर भारत” और “वोकल फॉर लोकल” की सोच को सशक्त बनाता है।
समग्र विकास की परिकल्पना
दीनदयाल उपाध्याय का “एकात्म मानवदर्शन” केवल अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं था, बल्कि यह मानव जीवन के हर पहलू में संतुलन की बात करता है। पश्चिमी देशों के “जो कमाएगा, वही खाएगा” के सिद्धांत का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि जीवन जीने का अधिकार केवल कमाई पर निर्भर नहीं करता। उन्होंने भारतीय परंपरा में कर्म को धर्म के रूप में देखा, न कि केवल आर्थिक लाभ के रूप में। उनका विचार था कि हर व्यक्ति को उसके जीवन के आधार पर उसकी जरूरतें पूरी की जानी चाहिए, चाहे वह कमाए या न कमाए।
भारत के विकास की दिशा
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि यदि हमें अपनी अर्थव्यवस्था की दिशा बदलनी है, तो “विकेन्द्रीकरण” और “स्वावलंबन” के सिद्धांतों को अपनाना होगा। उनका मानना था कि देश का विकास तभी हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति, गांव और जिला आत्मनिर्भर हो। आज के “एक जिला, एक उत्पाद” (ODOP) और “मेक इन इंडिया” जैसी योजनाएं उन्हीं के सिद्धांतों पर आधारित हैं। ये योजनाएं स्थानीयता, संस्कृति और संसाधनों का अधिकतम उपयोग करके भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कदम उठा रही हैं।
राष्ट्र सेवा के लिए राजनीति
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से गहरे रूप से जुड़ा हुआ था। 1951 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ उन्होंने भारतीय जनसंघ की नींव रखी, जिसका उद्देश्य केवल चुनाव जीतना नहीं था, बल्कि समाज की पुनर्रचना करना था। उनका मानना था कि राजनीति का उद्देश्य राष्ट्र को सशक्त बनाना होना चाहिए, न कि केवल सत्ता प्राप्त करना। उन्होंने राष्ट्र की सेवा को सर्वोपरि मानते हुए राजनीति को एक माध्यम के रूप में देखा।
नए भारत की यात्रा, भारतीयता के साथ विकास
दीनदयाल उपाध्याय के लेख “यात्रा से पूर्व” में उन्होंने कहा था कि भारत की विकास योजनाएं तभी सफल हो सकती हैं जब वे भारतीय हृदय और आत्मा से जुड़ी हों। उन्होंने कहा कि योजनाओं में भारतीयता का समावेश होना चाहिए, ताकि वे न केवल पाश्चात्य सिद्धांतों पर आधारित हों, बल्कि भारत की जनता के लिए भी स्वाभाविक और लाभकारी प्रतीत हों। उन्होंने यह भी कहा कि आत्मविकास और आत्मप्रेरणा ही भारत के संपूर्ण विकास का आधार बन सकती है।
विरोधियों की सराहना
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के वैचारिक विरोधी प्रोफेसर हीरेन मुखर्जी ने भी उनकी प्रशंसा की थी। उन्होंने कहा था कि “श्री उपाध्याय अपने समय के सबसे अद्वितीय व्यक्ति थे। वे अजातशत्रु थे।” दीनदयाल जी की यह सार्वभौमिक स्वीकार्यता इस बात का प्रमाण है कि उनके विचार समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए थे, और इसीलिए वे समय से परे प्रासंगिक बने हुए हैं।
शताब्दी समारोह और भविष्य के लिए प्रेरणा
2016 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शताब्दी वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में मनाया गया, जिसमें उनके विचारों और सिद्धांतों को एक बार फिर से जीवंत किया गया। “एकात्म मानवदर्शन” और “स्वदेशी” के विचारों को आज भी भारतीय समाज और राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
फिलहाल, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार केवल एक समय या परिस्थिति तक सीमित नहीं थे। उनका स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, विकेन्द्रीकरण और राजनीति को राष्ट्र सेवा का साधन बनाने का सिद्धांत आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जैसा कि उनके विचारों में स्पष्ट था, “दीनदयाल जी कल भी प्रासंगिक थे, आज भी प्रासंगिक हैं, और आगे भी प्रासंगिक रहेंगे।” उनका जीवन और दर्शन हमें यह सिखाता है कि आत्मनिर्भरता, भारतीयता और समग्र मानव विकास ही एक सशक्त और समृद्ध राष्ट्र की नींव है।
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