हाल ही में केंद्र सरकार ने वक्फ अधिनियम-1995 में संशोधन के लिए नया विधेयक प्रस्तुत किया है, जिसका नाम है-‘यूनाइटेड वक्फ मैनेजमेंट एंपावरमेंट एफिशिएंसी एंड डेवलपमेंट एक्ट’ (उम्मीदा)। परंतु इस विधेयक का विपक्ष और तथाकथित मजहबी नेताओं द्वारा विरोध किया जा रहा है और मुसलमानों के बीच तरह-तरह की भ्रातियां फैलाई जा रही हैं कि यह विधेयक वक्फ बोर्ड को खत्म कर देगा और मस्जिदों, दरगाहों पर सरकार का अतिक्रमण हो जाएगा। परंतु विपक्ष और तथाकथित मजहबी नेता यह नहीं बता रहे कि मोदी सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए संशोधन विधेयक में ऐसे कौन-से नियम हैं जो मुसलमानों के हित के विरोध में है या इस विधेयक के पारित हो जाने से मस्जिदों और दरगाहों को कैसे नुकसान होगा?
ऐतिहासिक रूप से जांच-पड़ताल करें तो पता चलता है कि ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों की संपत्ति जैसे मस्जिद, दरगाह और कब्रिस्तान आदि के संरक्षण के लिए 7 मार्च, 1913 को एक कानून बनाया गया था। इसके बाद 1923, 1930 और 1937 में इस कानून को संशोधित किया गया। उसके बाद स्वतंत्र भारत में 1954 में पहला वक्फ कानून बना। 1984 और 1995 में वक्फ बोर्ड को और शक्तिशाली बनाया गया।
परंतु तार्किक दृष्टिकोण से देखें तो यहां प्रश्न उठता है कि क्या वक्फ बोर्ड की स्थापना से लेकर अब तक इस कानून की समीक्षा नहीं होनी चाहिए? यदि वक्फ बोर्ड मुस्लिम समाज के हित के लिए है तो यह विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए कि अब तक कितने मुसलमानों को इसका लाभ मिला है? अब तक कितने प्रतिशत मुसलमानों का विकास हुआ है? या मुस्लिम महिलाओं का कितना सशक्तिकरण हुआ है?
दरअसल, यह संशोधन विधेयक मोदी सरकार द्वारा पसमांदा मुस्लिमों के विकास और उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की दिशा में एक उपक्रम है। भारतीय मुसलमानों में सबसे ज्यादा जनसंख्या पसमांदा मुसलमानों की है। तो क्या यह जांच नहीं की जानी चाहिए कि पसमांदा मुसलमानों के लिए वक्फ बोर्ड लाभप्रद साबित हुआ है या नहीं? उन्हें उनका उचित हक मिला या नहीं? क्या वक्फ जमीन पर पर्याप्त मात्रा में अस्पताल, स्कूल या कॉलेज बने हैं? वक्फ बोर्ड ने मुसलमानों में शिक्षा के उद्देश्य से क्या प्रयास किए हैं? यदि ये सब लाभ प्राप्त हुए हैं तो अभी तक इनसे जुड़े आंकड़े क्यों नहीं सामने आए? क्या इन सब तथ्यों का विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए।
वास्तव में इस संशोधन विधेयक का विरोध मुसलमानों को यथार्थवादी तथ्यों से भटकाने की साजिश का हिस्सा है। दरअसल, इस संशोधन विधेयक के विरोध के अन्य कारण हैं। इससे इस्लाम खतरे में नहीं है, बल्कि उन मुस्लिम अभिजात्य वर्ग और उच्च जाति के हित खतरे में है, जिन्होंने कई वर्षों से वक्फ की जमीन से करोड़ों-अरबों रुपए का गबन किया है। यह संशोधन विधेयक का विरोध नहीं है, यह भय है वक्फ से भ्रष्टाचार खत्म होने का, यह भय है अनुचित कमाई का धंधा चौपट होने का, यह भय है मुस्लिम अभिजात्य वर्ग का वर्चस्व खत्म होने का। यह संशोधन विधेयक प्रहार है उन चुनिंदा लोगों पर जिनका वक्फ की संपत्ति पर अवैध कब्जा है। वक्फ बोर्ड का उचित प्रबंधन होता तो मुस्लिम समाज आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा नहीं होता।
3 सितंबर, 2022 को भारत सरकार द्वारा दिए गए विवरण के अनुसार भारत में रेलवे और रक्षा विभाग के बाद सबसे ज्यादा संपत्ति वक्फ बोर्ड के पास है। देश भर में 32 वक्फ बोर्ड के पास 8,58,230 अचल और 16,628 चल संपत्ति है। 57,486 वक्फ संपत्ति पर गैर-कानूनी कब्जा है। 4,35,417 वक्फ संपत्ति की कोई जानकारी ही नहीं है।
परंतु इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि वोट बैंक की राजनीति के कारण मुस्लिम समाज के विकास के लिए बनाई गई इस संस्था पर मुट्ठीभर, भ्रष्ट और ताकतवर लोगों का प्रभुत्व है। क्या लगभग नौ लाख एकड़ जमीन की निगरानी के लिए उचित नियम-कानून नहीं होना चाहिए? सरकार ने संसद में बताया कि विधेयक लाने का उद्देश्य वक्फ संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन और संचालन करना है। यही कारण है कि सरकार ने विधेयक के नाम में संशोधन का प्रस्ताव भी रखा है।
संशोधन विधेयक में वक्फ संपत्तियों के रजिस्ट्रेशन और प्रबंधन, पारदर्शिता और दक्षता पर बल दिया गया है। इसके लिए एक सेंट्रल पोर्टल और डेटाबेस का प्रावधान है। इस विधेयक के अनुसार अब किसी भी संपत्ति को वक्फ के रूप में दर्ज करने से पूर्व सभी संबंधितों को उचित नोटिस दिया जाएगा और राजस्व कानूनों के अनुसार एक विस्तृत प्रक्रिया से गुजरना होगा। परंतु विपक्ष अंधविरोध के कारण इसका विरोध कर रहा है, जिसमें कोई तार्किकता नहीं है।
केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरण रिजिजु ने संसद में बताया कि वक्फ की संपत्तियों का उचित विधि से प्रबंधन नहीं किया गया है। वक्फ बोर्ड का कंप्यूटरीकरण करना चाहिए, म्यूटेशन रेवेन्यू रिकॉर्ड में होना चाहिए। उचित प्रबंधन नहीं किया गया तो गरीब और पिछड़े मुसलमानों को न्याय नहीं मिलेगा। 2013 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 1995 के वक्फ एक्ट में संशोधन किया और वक्फ बोर्ड को और ज्यादा अधिकार दे दिए गए। वक्फ बोर्ड को संपत्ति छीनने की असीमित शक्तियां देने के लिए अधिनियम में संशोधन किया गया था, जिसे किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
परन्तु अब नए कानून में वक्फ कानून 1995 की धारा 40 को हटाया जा रहा है। इस कानून के तहत वक्फ बोर्ड को किसी भी संपत्ति को वक्फ की संपत्ति घोषित करने का अधिकार था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा। ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि क्या यह तरीका लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ नहीं है? आखिर देश में कोई भी कानून लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ नहीं हो सकता। आज मुस्लिम देशों में भी महिलाएं संवैधानिक और उच्च पदों पर आसीन हैं। यहां तक कि भारत में भी मुस्लिम महिलाएं सांसद, विधायक, मंत्री और उपराष्ट्रपति तक बन चुकी हैं। पर वक्फ बोर्ड की सदस्य नहीं बन सकतीं। क्या यह बराबरी के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है? क्या यह भारतीय संविधान का उल्लंघन नहीं है?
नए विधेयक के प्रावधानों के अनुसार केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों की भूमिका में भी संशोधन किया गया है। इन निकायों में मुस्लिम महिलाओं और गैर-मुसलमानों का प्रतिनिधित्व भी होगा। केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्ड में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम का भी उचित प्रतिनिधित्व होगा, केंद्रीय परिषद और राज्य वक्फ बोर्ड में दो महिलाओं को रखना अनिवार्य होगा। एक केंद्रीय पोर्टल और डेटाबेस के जरिए वक्फ के रजिस्ट्रेशन के तरीके को व्यवस्थित रूप दिया जाएगा। साथ ही विधेयक में आगाखानी और बोहरा वक्फ को भी परिभाषित किया गया है। बोहरा और आगाखानियों के लिए एक अलग बोर्ड बनाए जाने का प्रस्ताव है। प्रस्तावित प्रावधान में मुस्लिम समुदायों में अन्य पिछड़ा वर्ग, शिया, सुन्नी, बोहरा और आगाखानी समुदाय को प्रतिनिधित्व दिए जाने का प्रावधान है।
मूल अधिनियम में वक्फ संपत्ति के सर्वे के लिए सर्वेक्षण आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान है। लेकिन संशोधन विधेयक में कलेक्टर या डिप्टी कलेक्टर ही सर्वेक्षण आयुक्त होगा। इससे नीचे के अधिकारी को जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। विरोधी इसे मजहबी मामलों में सरकार का हस्तक्षेप बता रहे हैं। पर देश के प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों की व्यवस्था भी कई जगहों पर सरकार के अधीन है। दूसरे इतनी बड़ी संपत्ति से कानून और व्यवस्था का सवाल भी खड़ा होता है। इसलिए सरकार का कोई अधिकारी यह सर्वे करे तो बेहतर है और यह अधिकारी किसी भी धर्म का हो सकता है। अदालत के आदेश पर जब श्रीराम जन्मभूमि की जमीन का पुरातात्विक सर्वेक्षण हो रहा था तब के.के मुहम्मद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय किसी भी हिंदू ने यह मांग नहीं उठाई थी कि श्रीराम जन्मभूमि का सर्वे हिंदू अधिकारी द्वारा ही किया जाए।
इसके अलावा चौकाने वाला तथ्य यह है कि इतने शक्तिशाली बोर्ड के पास गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए धन ही नहीं है, क्योंकि ताकतवर मुसलमानों ने बोर्ड पर अवैध कब्जा किया हुआ है। मुस्लिम समाज में ऐसे ताकतवर लोग हैं, जो वक्फ की संपत्तियों को पट्टे पर लेकर वर्षों से कब्जा जमाए हुए हैं। दिल्ली में जमीयत-ए-उलेमा हिंद के पास वक्फ की काफी संपत्ति है। लेकिन इसका कोई फायदा न बोर्ड को हो रहा है, न ही वंचित मुसलमानों को। इस विधेयक के माध्यम से केंद्र सरकार वक़्फ बोर्ड की संपत्ति के मामले में होने वाली मनमानी को रोकेगी। इससे भू-माफिया की मिलीभगत से होने वाली वक्फ संपत्ति को बेचने या पट्टे पर देने के अनुचित धंधे पर रोक लगेगी। वक़्फ बोर्ड की जमीन का अभी तक दुरुपयोग होता आया है। ज्यादातर जमीनें बेच दी गई हैं और जो बची हैं, उनका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। वक्फ की जितनी संपत्ति है, उसके हिसाब से 3500 करोड़ रु. की वार्षिक आय होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है।
अगर वक्फ बोर्ड सही मायने में अपना काम करते तब पूरे देश के मुसलमान मुख्यधारा से वंचित न रहते। बुजुर्गो ने अपनी संपत्तियां इसलिए वक्फ कर दी थीं कि इसकी आमदनी से मुसलमानों के गरीब और कमजोर बच्चों और बच्चियों की तालीम का अच्छा इंतजाम किया जा सकेगा लेकिन इसके सुखद परिणाम नहीं मिल सके। वास्तव में यह विधेयक लागू होगा तो पारदर्शिता आएगी, साथ ही पिछड़े और पसमांदा मुसलमानों के लिए यह विधेयक रामबाण साबित होगा।
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