आज जब भारत राष्ट्रीय कायाकल्प के युग के ‘अमृत काल’ में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने विभिन्न संसदीय संबोधनों के साथ ही, सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर और अपने रेडियो संवाद ‘मन की बात’ में अनेक बार ‘आत्मनिर्भरता’ और ‘जनभागीदारी’ की महत्ता पर बल दे चुके हैं।
अपने देश के अप्रतिम विचारक व चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी अपने व्याख्यानों में इस मंत्र को बार-बार दोहराते थे। वे भारत के आमजन की आत्मा को हमेशा झकझोरते थे। वे कहते थे, स्वाभिमानी बनो। कैसे? अपने पुरुषार्थ से। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में निपुण बनकर। मन, बुद्धि, आत्मा, शरीर का संतुलन रखकर। अपनी ताकत पर भरोसा रखकर।
वर्तमान केन्द्र सरकार की ‘अमृत सरोवर’, ‘विश्वकर्मा योजना’, ‘आत्मनिर्भर भारत’, ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसी नीतियां ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के प्रति मुखर होने की भावना को विकसित करने, चुनौतियों के सामने भारत की सामूहिक चेतना को सशक्त बनाने तथा जनशक्ति के आदर्श को मूर्त रूप देने पर केंद्रित हैं। दूसरे शब्दों में, इसके माध्यम से राष्ट्र की अंतरात्मा को पुरुषार्थ के लिए प्रेरित किया गया है। भारत के पुरुषार्थ को ललकारा है। उसकी उस सामूहिक चेतना का आह्वान किया है, जिसे दीनदयाल जी चिति कहते थे।
एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाला समाज अपनी खोई हुई सभ्यतागत विशिष्टताओं को पुन: पाने के लिए प्रयासरत है। वह अपने इतिहास, संस्कृति, परंपराओं और अपनी गौरवशाली विरासत का स्मरण कराने वाली स्मृति से बहुत अधिक प्रेरित है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने उत्थान, विकास आदि के मापदंड स्वयं तय करें। दीनदयाल जी भी कहते थे कि अंतरराष्ट्रीय संगठन और विदेशी एजेंसियां कौन होती हैं जो हमें बताएं कि हम विकसित हैं या नहीं, पढ़े-लिखे हैं या अनपढ़ हैं, स्वस्थ हैं या अस्वस्थ हैं? उन्होंने कहा था कि हमें अपना विकास मॉडल खड़ा करने के लिए अपने ही मापदंड गढ़ने होंगे, नहीं तो वे लोग अपना एजेंडा हम पर थोपते रहेंगे। ऐसा हमने सच होते हुए देखा है।
संतोष की बात है कि बीते कुछ समय में भारत के भीतर प्रसिद्ध विचारकों ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों और उनके संकेतकों द्वारा भारत के विकास अनुमानों की पुनर्समीक्षा की है। वैश्विक सूचकांकों को संकलित करने के लिए प्रयोग की जा रहीं उन विधियों का एक महत्वपूर्ण अध्ययन भारत कर रहा है, जिन्हें विश्व बैंक, विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) जैसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त संस्थानों द्वारा भारत के संबंध में प्रयोग किया जा रहा है।
एक वैचारिक मॉडल पर पहुंचने के लिए अपनी वैभवशाली परंपरा और वर्तमान परिस्थितियों को डीआरआई टीम ने भारतीय दृष्टिकोण से देखने व समझने का प्रयास किया, जो स्थानीय मानदंडों का उपयोग करके विकास का आकलन करने पर केंद्रित है। वह दृष्टिकोण जो संसाधनों, परिसंपत्तियों और राष्ट्र की सभ्यतागत, आत्मनिर्भर संस्कृति के संरक्षण का समर्थन करता है। हमने शासन और मूल्यांकन ढांचे में प्रभावी, पारंपरिक शासन सिद्धांतों की अपनी समझ और अनुप्रयोग में संवर्धन करने का प्रयास किया है—
—जो संदर्भ के अनुसार प्रासंगिक है,
—उचित मैट्रिक्स से मापा जा सकता है,
—अनौपनिवेशित ज्ञान पर आधारित है,
—विकास प्राथमिकताओं को संबोधित करता है, और,
—सभी वर्गों के लोगों की स्वामित्व और भागीदारी सुनिश्चित करता है।
दीनदयाल शोध संस्थान की टीम ने अपने अध्ययन में देश के विभिन्न हिस्सों में सुशासन के कुछ ऐसे उदाहरण ढूंढे जो भारतीय ज्ञान परंपरा व सनातन संस्कृति के उत्कृष्ट नमूने हैं। दीनदयाल जी इसी चिरंतन सांस्कृतिक व्यवस्था को एकात्म मानवदर्शन की अभिव्यक्ति कहते थे। भारतीय ज्ञान प्रणालियों के पास प्रशासन का ऐसा दृष्टिकोण है जो समय के साथ परीक्षित और व्यापक वैश्विक दृष्टि पर आधारित मार्गदर्शक सिद्धांतों के स्थापित मानदंडों के साथ कार्य करता है। यह विकास और उसके परिणाम के प्रति शासन को एक सम्पूर्ण दृष्टिकोण देता है, साथ ही समग्र रूप से मानवता और पारिस्थितिकी कल्याण को प्राथमिकता प्रदान करता है। इससे आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और आध्यात्मिक आयाम भी एकीकृत होता है।
इसने एक सुनियोजित क्षेत्र अनुसंधान पद्धति, एक गुणात्मक अनुसंधान पद्धति का पालन किया है, जिसमें दीनदयाल शोध संस्थान की टीम के सदस्यों ने 7 जिलों में कई गांवों का दौरा किया। इन क्षेत्रों में ग्रामीणों के साथ सर्वेक्षण-आधारित और बातचीत आधारित साक्षात्कार किए। इस प्रमुख योजना के दो उद्देश्य थे—
1. अपने गांवों में उपलब्ध सेवाओं और उनके सामने आने वाली चुनौतियों को समझना, और
2. उन मूल ज्ञान परंपराओं का दस्तावेजीकरण करना जिन्हें उन्होंने अपनाया था, और यह समझना कि किस प्रकार ये परम्पराएं उनके समग्र कल्याण और जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाती हैं।
इस सर्वेक्षण के लिए भौगोलिक विविधता और मूल समुदायों में विविधता के आधार पर चयनित 7 जिले हैं- चित्रकूट, मध्य प्रदेश; इमालिया कोडर, उत्तर प्रदेश; कनेरी, महाराष्ट्र; गोवा; जोधपुर, राजस्थान; माण्डव एवं मझगंवा, मध्य प्रदेश, और होसागुंधा, कर्नाटक।
प्रत्येक जिले से दो गांवों का चयन नीति-आधारित उन विकास मापदंडों के आकलन और ज्ञान परंपराओं की निरंतरता के आधार पर किया गया था, जिन्हें संभवत: अभिलेखित किया जा सकता था। प्रत्येक गांव के 50 परिवारों से बात की गई। उनके द्वारा दी गई जानकारी को पीआरए या भागीदारी ग्रामीण मूल्यांकन के प्रारूप में दर्ज किया गया है।
इन क्षेत्रों का चयन इसलिए किया गया था क्योंकि वे गांवों के भीतर आजीविका और सभ्यतागत निरंतरता के प्रमुख क्षेत्रों के रूप में कार्य कर रहे हैं। वे शासन इकाई के भीतर प्रगति और विकास का आकलन करने के इच्छुक नीति-निर्माताओं और शोधकर्ताओं के लिए प्रासंगिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। इसमें निम्नलिखित विषयों को चुना गया—
1. कृषि, 2. वनवासियों के बीच पारंपरिक ज्ञान, 3. सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महिलाओं का योगदान, 4. मछली पकड़ने की परंपरा, 5. जल संरक्षण एवं प्रबंधन, 6. मंदिरों—मठों के माध्यम से भोजन, और 7. पंच ‘ज’- जन, जल, जंगल, जानवर, जमीन।
पारंपरिक ज्ञान को रेखांकित करते हुए ये कुछ निष्कर्ष निकले—
जल संबंधी ज्ञान
अध्ययन के अंतर्गत आए गांवों में प्रत्येक घर में एक टांका है, चूने के गारे से बना एक पक्का, भूमिगत ढांचा है जो टांके को ठंडा, साफ रखता है और बारिश के जल को संग्रहित करने के लिए एक सक्षम तंत्र है। इससे चिलचिलाती गर्मी में जल भाप बनकर नहीं उड़ता है या जमीन के नीचे या किनारों से किसी भी तरह का रिसाव नहीं होता है। इसे मंदिर के गर्भगृह जितना ही पवित्र माना जाता है।
जोधपुर के गांवों में देखे गए परिवारों में 100 प्रतिशत घरों में एक या उससे अधिक टांके थे। ध्यान देने योग्य बात है कि इस क्षेत्र में चूना प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, ऐसी संरचनाएं बनाने के लिए राजमिस्त्री स्वाभाविक रूप से कुशल हैं और प्रत्येक गांव में ऐसे अनुभवी बुजुर्ग हैं जो आकार, स्थान, जलग्रहण क्षेत्र आदि के बारे में सभी का मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्थानीय संसाधनों व स्थानीय कौशल का समुचित उपयोग पंडित जी के दर्शन का मूलमंत्र था।
प्रधानमंत्री की अमृत सरोवर योजना वर्तमान में जिला कलेक्टर के नेतृत्व में है। आमजन से बातचीत में पता चला कि यदि समुदाय को भी ऐसी जल संरचनाओं के रखरखाव में एक साझीदार बनाया जाता है तो वे नल से जल योजना के लिए सबसे प्रभावी स्रोत बन सकते हैं। इस प्रकार, ऐसे क्षेत्रों के लिए लक्ष्यों में से एक उपयुक्त नीति ढांचे के भीतर इस देशज परंपरा का संवर्धन और पुनरुद्धार हो सकता है।
मंदिर और मठ: समृद्ध समाज के केंद्र
कोल्हापुर में लिंगायत समुदाय का 13वीं शताब्दी का कनेरी मठ ढेरों धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, शैक्षणिक, कृषि गतिविधियों आदि का केंद्र बना हुआ है। मठ आस-पास के गांवों की गतिविधियों में एक धुरी और सक्षम मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है। ग्रामीण मेलों में कारीगरों और शिल्पकारों को अधिक से अधिक बाजार उपलब्ध कराया जाता है, जिन्हें कनेरी, होसागुंधा और मांडव में मंदिरों और मठों द्वारा बड़े पैमाने पर समर्थन दिया जाता है।
कनेरी मठ द्वारा गोद लिए गए गांव में महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया में वैदिक काल से चली आ रही परंपरा द्वारा प्रदत्त उचित स्थान तथा पारिवारिक संपत्ति में अधिकार प्राप्त है। पंचगव्य या चरणामृत या अन्य प्रसाद के रूप में पोषण तो इन मंदिरों में वितरित किया जाता ही रहा है। इसका एक उदाहरण 20,000 से भी कम की जनसंख्या वाले छोटे से शहर मांडू के मंदिरों से मिलता है, जहां लोग नियमित रूप से अन्नदान के लिए एकत्रित होते हैं।
अन्नक्षेत्र, लंगर और धार्मिक यात्राएं जैसे कांवड़, महाराष्ट्र में वारी, कश्मीर में अमरनाथ यात्रा, राजस्थान में रामदेवरा यात्राएं आदि कुछ और उदाहरण हैं जहां लोग भंडारों के माध्यम से श्रद्धालुओं के लिए व्यवस्था करते हैं। वनवास के दौरान साढ़े 11 वर्ष तक भगवान राम की कर्मभूमि रहे चित्रकूट में कामदगिरि की परिक्रमा हर महीने लाखों लोगों को आकर्षित करती है, जहां हर भक्त को पौष्टिक भोजन हमेशा उपलब्ध रहता है। देशभर के गुरुद्वारों में लंगर की परंपरा तो जगप्रसिद्ध है।
अपने समाज ने हमेशा विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया है कि पोषण सभी जीवों तक पहुंचे। गाय की खीस (कोलोस्ट्रम), छाछ-मठ्ठा, दो खेतों के बीच मेड़ पर उगने वाली सब्जियां, सार्वजनिक तालाबों में उगने वाली कमल ककड़ी (जिसकी छंटाई से तालाबों की सफाई में भी मदद मिलती है), ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो समाज के वंचित वर्ग के लिए पोषण सुनिश्चित करते हैं।
निर्जला एकादशी के दिन जून के महीने में जब सूर्य का ताप चरम पर होता है, तब महिलाएं दिनभर खुद जल की बूंद तक नहीं पीती हैं, जबकि भक्तों को शरबत या मीठा ठंडा दूध या लस्सी पिलाती हैं।
जोधपुर, होसागुंधा और कोल्हापुर में सर्वेक्षण में दिखा कि गांवों में यह परंपरा अभी तक जारी है कि पहली रोटी गाय के लिए और दूसरी रोटी सफाई की चिंता करने वाले बंधुओं के लिए तथा बाती और भी कुछ अन्य कौमों के लिए अपने भोजन से पहले से ही निकाल कर रखी जाएं। यहां तक कि भारत-नेपाल के सीमावर्ती इलाकों (बलरामपुर जिले में) के गांवों में भी यह परंपरा जारी है। वनवासियों द्वारा भी इसका नियमित रूप से पालन किया जाता है।
ग्रामीणों की सांस्कृतिक परंपराओं में भीतर तक पैठ बनाए देशी, स्वदेशी, पारंपरिक ज्ञान के कुछ किस्सों से तो हमारी टीम आश्वस्त हुई कि हमारी कालजयी परंपराएं ही देश के उत्थान में महत्वपूर्म भूमिका निभा सकती हैं। हां, देशानुकूल होने के साथ उन्हें युगानुकूल भी बनाना होगा। यही दीनदयाल जी और नानाजी देशमुख का मंत्र था।
प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं कहा कि अयोध्या में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर का निर्माण एक दिव्य और सभ्यतागत क्षण था, जो हमें एक ऐसे राष्ट्र का स्मरण कराता है, जो अपने महान भविष्य की ओर देख रहा है, जिसका निर्माण और सुदृढ़ीकरण महान अतीत के तत्वावधान में हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने श्री राम राज्य के आह्वान में कहा कि राम मंदिर भारत की दृष्टि, दर्शन और दिशा का मंदिर है। यह श्री राम के रूप में राष्ट्रीय चेतना का मंदिर है। आत्मनिर्भरता का आदर्श राम राज्य के विचार के मूल में है। इस विचार को लेकर चलना ही दीनदयाल जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।
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