अभी कुछ समय पहले 18वीं लोकसभा के चुनाव हुए थे, जिसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बहुमत हासिल करने से चूक गई। हालांकि भाजपा के लिए राहत की बात यह रही कि वह अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में सफल रही। सर्वाधिक चौंकाने वाले नतीजे उत्तर प्रदेश से आए जहां भाजपा को बड़ा झटका लगा। 2019 में यहां भाजपा ने 80 में से 63 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि इस बार वह महज 33 सीटों पर सिमट गई।
‘संविधान बचाओ, भाजपा हराओ’
कुछ सेकुलर विश्लेषक कहते हैं कि अखिलेश यादव का पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फार्मूला भाजपा पर भारी पड़ा। इंडी गठबंधन को यह मनगढ़ंत विमर्श प्रचारित करने में सफलता मिली कि, ‘‘भाजपा का ‘इस बार 400 सीट पार’ का लक्ष्य संविधान में परिवर्तन करने से प्रेरित है, जिसके अंतर्गत पिछड़ों, दलितों आदि के लिए संवैधानिक गारंटी समाप्त कर दी जाएगी। नौकरियों में आरक्षण खत्म हो जाएगा।’’ मुसलमानों को भी लगा कि संविधान में प्रतिष्ठापित समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांत को निष्प्रभावी कर दिया जाएगा। संविधान को बदलने और कुछ नियम-धाराओं को हटा देने का खौफ एक भावनात्मक मुद्दा बन गया। ‘संविधान बचाओ, भाजपा हराओ’ के भ्रामक आह्वान ने एक अभियान का रूप ले लिया। भाजपा कारगर ढंग से इसका प्रतिकार नहीं कर पाई।
इन चुनावों में दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी ने भाग लिया था। देश के 13 प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने 20 प्रतिशत या उससे अधिक मुस्लिम आबादी वाली 100 सीटों के लिए 90 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे, जिनमें 24 जीत पाए। दिलचस्प बात यह कि उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार बहुजन समाज पार्टी ने खड़े किए लेकिन उसका एक भी उम्मीदवार जीत नहीं पाया, जबकि इससे पहले उसे मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलता रहा है।
सीएसडीसी लोकनीति के सर्वेक्षण के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर अधिकतम मुसलमानों ने भाजपा को हराने के लिए मतदान किया। भाजपा ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ मंत्र के अंतर्गत जिन कल्याणकारी योजनाओं को कार्यरूप दिया है, उसके सर्वाधिक लाभार्थी मुस्लिम समुदाय के लोग रहे हैं। इसके बावजूद यदि भाजपा को मुसलमानों के नगण्य मत मिले हैं तो उसकी तह में जाकर समझने-परखने की जरूरत है।
जड़ में है कट्टर सोच
यह एक कड़वी ऐतिहासिक सचाई है कि भारत के मुसलमानों की समस्या की जड़ में पाकिस्तान और भारत विभाजन है। आजादी से ठीक पहले 1946 में पृथक निर्वाचन पद्धति के अंतर्गत संविधान सभा और प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव हुए थे। ये चुनाव मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग ‘होमलैंड’ (पाकिस्तान) की मांग पर लड़े थे। मांग नहीं माने जाने पर ‘इस्लाम खतरे में’ का नारा लगाया गया था। उस समय अधिकतम मुसलमानों पर पाकिस्तान का नशा सवार हो गया था। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा के चुनाव में मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी 30 की 30 सीटें जीत लीं। कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। मुस्लिम लीग ने प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव में मुसलमानों के लिए आवंटित 492 में से 428 सीटें जीत लीं। राष्ट्रवादी मुसलमान यानी पाकिस्तान की मांग का विरोध करने वाले कांग्रेसी मुसलमान मात्र 52 सीटें जीत सके। कांग्रेस के कई पराजित उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गयी थी।
हिंदू-मुसलमानों में फूट डालने वाली ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग, दोनों, कांग्रेस को हिंदू पार्टी मानते थे। उस समय भारत के अधिसंख्य मुसलमानों ने मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के बजाय मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान को अपना नेता माना। उन्होंने वोट के बल पर पाकिस्तान की मांग को अपना पुरजोर समर्थन प्रदान किया और अंतत: पाकिस्तान हासिल कर लिया। मुस्लिम कट्टरवाद जीत गया।
97 प्रतिशत सदस्य हिंदू
जैसे आज भाजपा पर ‘हिंदू पार्टी’ होने का ठप्पा लगा हुआ है, वैसा ही ठप्पा अंग्रेजों और मुस्लिम लीगियों ने कांग्रेस पर लगा दिया था जो उस पर चस्पां हो गया था। कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन पद्धति (1909) और खिलाफत आंदोलन (1920) से लेकर आजादी मिलने तक उनकी मिजाजपुर्सी का, उन्हें अपने साथ जोड़ने का हर सभंव प्रयास किया, लेकिन उसका जो नतीजा निकला उसे सिफर ही कहा जाएगा। 1885 में बंबई में कांग्रेस पार्टी की स्थापना के लिए जो अधिवेशन हुआ था, उसके कुल 72 प्रतिनिधियों में मात्र दो मुस्लिम प्रतिनिधि थे। 1885 और 1905 के बीच हुए अधिवेशनों में 21 अध्यक्ष चुने गए, जिनमें मुस्लिम अध्यक्ष सिर्फ दो थे। 1906 से 1946 के बीच की अवधि में जब कांग्रेस एक आंदोलनकारी पार्टी बन गई थी, तब छह अध्यक्ष मुस्लिम थे।
आजादी के बाद 77 वर्ष में एक भी मुसलमान कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बना। कांग्रेस के पंथनिरिपेक्ष दावों के बावजूद कांग्रेस शुरू से ही भारी भरकम हिंदू संस्था बनी रही। 1914 में इसके मुस्लिम सदस्यों की संख्या एक प्रतिशत से भी कम थी। यह संख्या 1915 में दो प्रतिशत और 1916 में तीन प्रतिशत हो गई। आजादी के आंदोलन के आखिरी दौर में यह संख्या कुछ बढ़ गई। 15 मई, 1941 को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई ने लिखा, ‘‘कांग्रेस के 30 लाख सदस्यों में मुस्लिम सदस्यों की संख्या लगभग डेढ़ लाख है। इसमें एक लाख तो फ्रंटियर प्रांत के लोकप्रिय कांग्रेस नेता सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के अनुयायी शामिल हैं। इनको निकाल देने पर बाकी क्या बचता है?’’ कांग्रेस के सर्वोच्च नेता गांधी और नेहरू यह मान कर चल रहे थे कि वे पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी धारणा थी कि मुसलमान भी उनके साथ हैं। लेकिन जब इसकी परीक्षा की नौबत आई तो कांग्रेस उसमें विफल रही। अधिकतम मुसलमानों ने कांग्रेस के बजाय मुस्लिम लीग का साथ दिया। उन्होेंने मौलाना आजाद के बजाय जिन्ना को तरजीह दी। भारतीय मुसलमानों ने आजादी के बाद भी मौलाना आजाद को अपना नेता नहीं माना। मुस्लिम नेतृत्व पर मुल्ला-मौलवी और कट्टरपंथी तत्व हावी हो गए।
नजर सिर्फ वोट पर
क्या कारण है कि इस बार लोकसभा के चुनाव में केवल 24 मुस्लिम उम्मीदवार जीत कर आए हैं। 1952 में पहली बार 36 और 1980 में सर्वाधिक 46 मुस्लिम सांसद थे, जबकि भारत में मुसलमानों की करीब 15 प्रतिशत आबादी के हिसाब से यह संख्या 70-80 तक हो सकती थी। लेकिन यह संख्या ज्यादातर 25-30 के आसपास रही है। इसका कारण यह है कि सेकुलरवाद का ढिंढोरा पीटने वाली राजनीतिक पार्टियों को जितनी दिलचस्पी मुसलमानों के मतों में है, उतनी दिलचस्पी उनके प्रतिनिधित्व और उत्थान में नहीं है। मिसाल के तौर पर झारखंड में मुसलमानों की आबादी राष्ट्रीय औसत, यानी 15 प्रतिशत के लगभग है। दो जिलों में उनकी आबादी 20 प्रतिशत और एक जिले में 30 प्रतिशत से भी अधिक है।
झारखंड में लोकसभा की 14 सीटें हैं। किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल ने एक भी सीट पर किसी मुस्लिम उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया, जबकि ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के राहुल फार्मूले के अनुसार इंडी गठबंधन को तीन लोकसभा सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करने चाहिए थे। ऐसा मुस्लिम समुदाय का कहना है। उनका कहना है कि हमारे दर्द से किसी पार्टी को कोई मतलब नहीं, सिर्फ हमारे वोट से मतलब है। अपने को सेकुलर कहने वाली पार्टियों ने मुस्लिम समुदाय के लिए क्या किया, इसको जानने के लिए सच्चर कमेटी की जरूरत नहीं है। ब्रिटिश काल में ‘हिंदू पार्टी’ कांग्रेस का भय दिखाकर जो कुछ किया गया था वही आज ‘हिंदू पार्टी’ भाजपा का भय दिखाकर किया जा रहा है। ब्रिटिश शासनकाल के अंतिम वर्षों में 11 से पांच प्रांतों (बंगाल, पंजाब, सिंध, फ्रंटियर प्रांत और असम) में (कुछ समय के लिए) मुस्लिम मुख्यमंत्री थे। भारत विभाजन पर टिप्पणी करते हुए खान अब्दुल गफ्फार खान के पुत्र पख्तून नेता वली खान ने कहा था कि ‘बंटवारा हिंदुस्थान का नहीं, मुसलमान का हुआ।’ मुस्लिम लीगियों को उन्होंने कहा था कि आपका दर्द बंबई में था तो पेशावर में पाकिस्तान क्यों बनाया?
वोट बैंक है बस
2014 और 2019 में भाजपा ने लोकसभा के लिए क्रमश: सात और छह मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे। लेकिन कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका। मुसलमानों ने भी उनको वोट नहीं दिए। असम विधानसभा के पिछले दो चुनावों में भाजपा ने कुल मिलाकर 17 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे, उनमें केवल एक ही जीता। कोई भी पार्टी जब चुनाव लड़ती है तो वह अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए खड़ा करती है, किसी सिद्धांत का प्रदर्शन करने के लिए नहीं। भाजपा ने दो मुस्लिम राज्यपाल नियुक्त किए हैं। इस पद पर नियुक्ति के लिए किसी मतदान की जरूरत नहीं होती। आज मुस्लिम वोट बैंक एक संभावित /परिकल्पित खतरे का बंधक बन गया है जिससे उसका बड़ा अहित हो रहा है और छवि भी बिगड़ रही है।
क्या बदल रही सोच?
यह संतोष की बात है कि मुस्लिम समाज के विवेकशील वर्ग समाज की वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए कट्टरपन से निजात पाने के लिए मुखर हो रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी ने लिखा है, ‘‘भारतीय मुसलमानों का अपना कोई नेतृत्व कभी उभर नहीं सका, ऐसा नेतृत्व जिसे राजनीतिक पेचीदगियों की समझ हो, जिसकी विश्व दृष्टि व्यापक हो, जो भारत की जटिल सामाजिक संरचना को समझता हो, जिसमें यह सलाहियत हो कि वह मुसलमानों के विभिन्न फिरकों को मतभेद भुलाकर एकजुट कर सके, साथ ही मजहबी एजेंडे को परे रखकर मुसलमानों को आर्थिक विकास और अच्छी शिक्षा के लिए प्रेरित कर सकें।’’
फोरम फॉर पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के अध्यक्ष रामिश सिद्दीकी ने लिखा है, ‘‘पिछले कई दशकों से मुस्लिम समाज को एक ही झूठ पर वोट देने के लिए उकसाया जाता है कि अगर किसी विशेष दल के लोग सत्ता में आए तो उनके लिए जीवन मुश्किल हो जाएगा और यह चुनाव उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है। जब कुछ राजनीतिक दल मुस्लिम समाज और अन्य समाज को लेकर अपना चुनावी गणित बैठाते हैं तो इसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया जाता है और जब यही काम कोई दूसरा करता है तब उसे ध्रुवीकरण का नाम दे दिया जाता है।’’
इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर के अध्यक्ष सिराजुद्दीन कुरैशी का कहना है, ‘‘पाकिस्तान की आबादी से ज्यादा भारत में अल्पसंख्यक हैं। इनमें मुसलमान सर्वाधिक हैं। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि भारत का मुसलमान विश्व के हर देश के मुसलमानों से अच्छी हालत में है। भारत का संविधान यहां के मुसलिम अल्पसंख्यकों को सुरक्षा और कल्याण की सबसे बड़ी गारंटी है। इस संविधान ने जो अधिकार आम नागरिकों को दिए हैं, उससे ज्यादा अपने अल्पसंख्यकों को दिए हैं।’’
मुसलमानों की जिम्मेदारी
वक्त का तकाजा है कि मुस्लिम समाज कट्टरपंथियों के जोशीले भाषाण और ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारों से निजात पाए। इन नारों को ठीक ही ‘सिर्फ वक्ती बुलबुले’ कहा गया है जो उठते हैं और हवा में फूट जाते हैं। लेकिन इनका जहर तो माहौल में घुल ही जाता है। लिहाजा यह सभी राजनीतिक दलों का दायित्व है कि वे अपने अल्पकालिक राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के बजाय राष्ट्र के व्यापक हित में देश के इतने बड़े समुदाय को हाशिए से हटाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करें। मुसलमानों को भी जमीनी सचाई को समझना होगा। देश के पंथनिरपेक्ष ढांचे को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी सिर्फ हिंदू समाज की ही नहीं है, मुसलमानों को भी इसे मजबूत करने के तरीके और सलीके सीखने होंगे।
केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार कार्यरत है। यह सरकार पांच साल तक चलेगी ही। इस बारे में किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए। अब सभी दलों को राष्ट्रहित में सकारात्मक और रचनात्मक सोच के साथ देश को आगे ले जाने के लिए सहयोग करना चाहिए।
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