अच्छा शासन यानी क्या? क्या हैं इसकी कसौटियां? विश्व भर में इसकी बात बहुत होती है किंतु क्या इसके मूर्त प्रतिमान भी हैं? इन सब प्रश्नों के उत्तर खंगालते हुए जब पाञ्चजन्य सुशासन संवाद– मध्य प्रदेश के आयोजन पर मंथन कर रहा था, तब मन में हर प्रश्न का एक ही उत्तर चित्र रूप में कौंध रहा था- लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर।
सुशासन अधिकार-संपन्न तंत्र के सार्वजनिक व्यवहार के आदर्शों की ऐसी संस्थागत शृंखला है, जिसकी आवश्यकता हर सभ्य समाज को है। यदि कहीं भी कोई विचलन दिखता है और उसके मूल में जाने की कोशिश की जाती है, तो पड़ताल जहां जाकर रुकेगी, वहां इस शृंखला की कोई न कोई कड़ी टूटी-बिखरी अवश्य मिलेगी। यदि यह कहें कि अवधारणा के रूप में यह ऐसी अवस्था है, जिसे उसकी पूरी व्यापकता के साथ व्यवहार में उतारना लगभग असंभव है, तो संभवत: अतिशयोक्ति नहीं होगी। किंतु इससे आदर्श नहीं बदलते! जो बात जरूरी है, वह यह कि क्या उन आदर्शों को पाने के यथासंभव प्रयास हुए और इन प्रयासों की निरंतरता के प्रति प्रतिबद्धता कैसी है?
सुशासन को संपूर्णता के साथ व्यवहार में उतारना निश्चित ही एक कठिन लक्ष्य है। यदि ऐसा नहीं होता तो हमें इसके अमिट हस्ताक्षर को खोजने के लिए सदियों पीछे अहिल्यादेवी के शासनकाल तक जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनका सुशासन भारत की सनातन संस्कृति से प्राण पाता है। आज हम उनके सुशासन की बात इसलिए कर रहे हैं कि उनकी रीति-नीति सुशासन के आधुनिक मानदंडों पर भी खरी उतरती है और इसलिए वह हमारे शासन-तंत्र के लिए प्रासंगिक हैं।
सुशासन की आधुनिक परिभाषा में इसके मुख्य घटक हैं- पारदर्शिता, जवाबदेही, न्यायप्रियता,कानून का राज, संस्थागत ढांचा, मानवाधिकारों का सम्मान। अहिल्याबाई के राजकाज में इन सभी मानदंडों से जुड़े उदाहरणों की कमी नहीं, किंतु यदि उनकी प्रशासनिक व्यवस्था के किसी एक अंग को लेकर इन कसौटियों पर कसें, तो संभवत: बेहतर परिणाम सामने आए। चलिए उनकी कर व्यवस्था की बात करते हैं।
सुशासन के मूल में होती है पारदर्शिता और इसका प्रभाव सुशासन के बाकी सभी घटकों पर पड़ता है। 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दार्शनिकों में से एक अमेरिका के जॉन रॉल्स पारदर्शिता की व्याख्या कुछ इस तरह करते हैं- ‘‘वह स्थिति जो खुली और दिखाई देने योग्य हो ताकि नागरिक सामाजिक और राजनीतिक संस्थानों के कार्यों को देख और समझ सकें जो उनके जीवन को प्रभावित करते हैं।’’
अब चलिए अहिल्याबाई के काल में। उनकी कर व्यवस्था बिल्कुल सरल थी। उनके शासन के दौरान कर की दर न्यूनतम थी। जिस व्यक्ति का जितना कर बनता था वह उसे आसानी से चुका पाने में समर्थ था। इसलिए लोगों को कर देने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। अब मान लीजिए कि किसी कर अधिकारी ने जबरदस्ती अधिक पैसे वसूल लिए तो आएगी जवाबदेही की बात। चूंकि हिसाब आसान था, इसलिए जनता को समझने में देर नहीं लगती थी कि उससे ज्यादा पैसे वसूल लिए गए हैं। उसकी शिकायत के लिए पंचायत से लेकर जगह-जगह बने न्यायालयों में जाने की व्यवस्था थी। ऐसे कई उद्धरण हैं, जब अहिल्याबाई तक शिकायत पहुंची और उन्होंने उसका तत्काल निपटारा किया। यहां तक कि ऐसे ही एक मामले में लोकमाता ने अपने विश्वस्त और उनके आधे राज्य का पूरा प्रशासन देखने वाले तुकोजीराव को भी नहीं बख्शा।
इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि जहां कहीं नियम-कानून को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश हुई, वहां जवाबदेही तय हो गई और जब जवाबदेही तय हो गई तो कानून ने अपना काम शुरू किया और आवश्यक दंड दिया। जवाबदेही तय करने से लेकर दंड देने का काम स्थानीय स्तर पर ही हो जाता था। उन्होंने इसके लिए गांवों में पंचायतों को प्रशासनिक और न्यायिक अधिकार दे रखे थे। इसके अतिरिक्त जगह-जगह न्यायालय खोले गए थे जिनमें योग्य न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाता था। उसके बाद भी पंचायत और न्यायलयों के कामकाज पर नजर रखी जाती थी। पंचायतों के सारे रिकॉर्ड अहिल्याबाई अपने पास मंगाती थीं और उनके निर्देशन में वरिष्ठ अधिकारी इन सबकी समीक्षा करते थे। ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि सिद्धांत से व्यवहार तक आते-आते पूरी प्रक्रिया का मूल उद्देश्य ही न खो जाए।
इसके बाद आती है मानवाधिकारों के सम्मान की बात। इस मामले में वह कई युगांतकारी निर्णयों के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने निसंतान विधवाओं को संपत्ति का अधिकार देने के साथ ही यह व्यवस्था की कि वह चाहे तो किसी को गोद ले लें या अपनी संपत्ति का जो चाहे करें। उस समय का चलन यह था कि निसंतान विधवा की संपत्ति राज्य के पास चली जाती थी। एक बार एक विधवा उनके पास आई और उसने अपनी संपत्ति राज्य को देने की पेशकश की। इस पर राजमाता ने उससे कहा कि उनकी संपत्ति को राज्य नहीं ले सकता। यदि उन्हें दान ही करना है तो किसी और तरह से धर्म के कार्य कराएं।
भारतीय संस्कृति में सुशासन को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से प्रभावित करने वाला एक और कारक होता है- नैतिक बल। संत तुल्य जीवन जीने वाली अहिल्याबाई ने इसके कई उदाहरण अपने आचरण से दिए। वह राजकाज को एक ईश्वरीय जिम्मेदारी मानती थीं और जनता की पाई-पाई का हिसाब रखती थीं। यहां तक कि उनके पति ने अपनी व्यक्तिगत निधि खत्म हो जाने के बाद जब उनसे राज्य के खजाने से पैसे मांगे, तो उन्होंने उसके लिए उन्हें भी स्पष्ट मना कर दिया।
उनकी न्यायप्रियता ऐसी थी कि सब बराबर थे। सूबेदारों से लेकर सरदारों तक को पता था कि यदि उन्होंने गड़बड़ की तो उनके लिए बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। एक बार जब जमीन के एक टुकड़े को लेकर ग्वालियर के साथ विवाद हुआ तो ग्वालियर की पहल पर उन्हें ही पंच चुना गया।
सत्ता को विशेषाधिकार मानने वाला आज का दौर अहिल्याबाई से बहुत कुछ सीख सकता है। लोकमाता के शासकीय आदर्श इस भूमि के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मूल्यों में पगे हैं। सार्वजनिक पदों पर आसीन और वहां तक पहुंचने की कोशिश करने वालों के लिए वह प्रकाश स्तंभ हैं। उनके आदर्शों का अंशत: भी पालन कर लिया तो प्रभाव क्रांतिकारी होगा।
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