भोपाल के भारत भवन में दो दिन (17 और 18 अगस्त) का एकात्म पर्व मध्य प्रदेश में जारी शंकर व्याख्यानमाला की 70वीं प्रस्तुति का स्मरणीय प्रसंग था। आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास की यह वैचारिक पहल सांस्कृतिक रूप से समृद्ध मध्य प्रदेश के जीवन में एक मोहक धड़कन बन चुकी है, जिसका केंद्र देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर है। ओंकारेश्वर की प्रतिष्ठा आदि शंकराचार्य के नाम से लोक में प्रसिद्ध आचार्य शंकर की ज्ञान भूमि के रूप में भी है।
एक वर्ष पहले 21 सितंबर को 108 फुट ऊंची बहुधातु प्रतिमा की स्थापना के कारण ओंकारेश्वर ने सबका ध्यान आकर्षित किया। यह धरती पर किसी बारह वर्ष की आयु के बालक की एकमात्र प्रतिमा होगी। केरल के एक मुस्लिम परिवार में मुमताज अली के रूप में जन्मे पद्मभूषण श्री एम इस बार एकात्म पर्व के मुख्य वक्ता थे।
पहले दिन उनका व्याख्यान हुआ और दूसरे दिन एक संवाद। श्री एम एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक आचार्य हैं, जो भारत की सनातन ज्ञान परंपरा के एक प्रतिष्ठित प्रवक्ता होने के नाते संसार भर में जिज्ञासुजनों के बीच जाते हैं। नाथ परंपरा में दीक्षित श्री एम के गुरु महेंद्रनाथ बाबा हैं, श्रद्धापूर्वक जिनका स्मरण वे अपने हर व्याख्यान में करते हैं। एक समाज सुधारक के रूप में भी वे समाज में सतत् सक्रिय रहे हैं। 2015-16 में कन्याकुमारी से कश्मीर तक 7,500 किलोमीटर लंबी ‘वॉक आफ होप’ में उन्होंने 15 माह में 10 लाख नागरिकों से संपर्क किया और बीस वर्ष पूर्व सत्संग फाउंडेशन की स्थापना की।
वे व्याख्यान के आरंभ में बोले, ‘‘मैं भी केरल में जन्मा हूं। अक्सर सोचता हूं जब आचार्य शंकर केरल से निकले और पूरे देश का भ्रमण किया तब वे किस भाषा में बोले होंगे? वह मलयालम में तो नहीं ही बोले होंगे। निश्चित ही उनके संवाद की भाषा संस्कृत ही थी। आज हमारी मातृभाषा हिंदी है, लेकिन यह संस्कृत होनी चाहिए।’’
उपनिषद् काल के ऋषियों की भांति उन्होंने लघु कथाओं के माध्यम से अपनी बात कही। जैसे यह कथा- एक बार इंद्र, अग्नि और वायु आदि देवों का अहंकार बढ़ गया। तब परम ब्रह्म एक यक्ष के रूप में प्रकट हुए। अग्नि देव उनके सम्मुख पहुंचे। पूछा-तुम कौन हो? अग्नि ने कहा- मैं संसार को जलाने की क्षमता रखता हूं, अग्नि हूं। यक्ष ने जलाने के लिए तृण का एक टुकड़ा दिया। अग्नि देव उसे जला नहीं पाए। निराश होकर लौटे और यह विचित्र घटना वायु और इंद्र को सुनाई। अब वायु देव आए। परिचय हुआ।
बोले मैं सब कुछ उड़ा सकता हूं। प्राणियों के श्वांस में मैं ही आता-जाता हूं। किंतु वे भी तृण के उस टुकड़े को उड़ा नहीं सके। जब इंद्र आए तो यक्ष दृष्टि में ही नहीं आए। वे लौटकर बोले-वहां कोई नहीं है। तभी शक्ति प्रकट होती हैं। देवों को बताती हैं कि वह यक्ष कोई और नहीं, स्वयं परम ब्रह्म हैं। तुम्हारा अहंकार इतना है कि उन्हें देख ही नहीं पाए। सार यह है कि परम ब्रह्म को सीमित बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। मन को शुद्ध करके और वृत्तियों को निकालकर साधना से ही उसे जान सकते हैं।
श्री एम ने कहा, ‘‘आचार्य शंकर अद्वैत के सबसे बड़े आचार्य हैं। सौंदर्य लहरी में उनकी शक्ति और श्रीविद्या की उपासना अध्यात्म की अनुपम देन है और वह कैसे आरंभ होती है? कि जब सब शांत हो जाता है तब एक बिंदु रूप में शक्ति अनुभव में उतरना आरंभ होती है। कुंडलिनी शक्ति ही है। उसे बलपूर्वक गति में नहीं ला सकते। प्रार्थना से ही संभव है। शक्ति पर श्रीसूक्त ऋग्वेद से आया है किंतु सामान्य जन के लिए प्रार्थना ही परब्रह्म तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है।’’
एकात्म पर्व की दूसरी संध्या के आकर्षण बने प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता और निर्देशक नीतीश भारद्वाज, जो भारतीय सिनेमा और टेलीविजन का एक चिर-परिचित नाम हैं, किंतु उनका परिचय केवल छोटे या बड़े परदे तक ही सीमित नहीं है। दूरदर्शन पर प्रसारित सर्वाधिक लोकप्रिय धारावाहिक ‘महाभारत’ में कृष्ण की भूमिका ने उनका विराट परिचय दिया, किंतु कम ही लोग जानते होंगे कि व्यक्तिगत जीवन में वे एक गहरे साधक हैं, जिनकी समृद्ध आध्यात्मिक पारिवारिक पृष्ठभूमि है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर वे समय-समय पर अपने जीवन से जुड़े इस अनछुए पहलू पर अपने अनुभव और सक्रियता के बारे में लिखते, बोलते रहे हैं। श्री एम के साथ इस संवाद में नीतीश जी के प्रश्नों से उनके इसी अनछुए शोध और साधना पक्ष का परिचय भी हुआ।
भारत भर के गुरुकुलों में ‘यूथ रिट्रीट’ के नाम से चल रहे अद्वैत जागरण शिविरों में अब तक जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और पंजाब सहित 26 राज्यों के 700 युवा आ चुके हैं। ये शंकरदूत हैं, जिनके एक समूह से श्री एम का परिचय एकात्म पर्व में हुआ। आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास का यह प्रयोग सभी राज्यों के प्रतिष्ठित गुरुकुलों, आध्यात्मिक संस्थानों, साधना केंद्रों और आश्रमों के बीच एक प्रभावशाली अंतरराज्यीय जीवंत नेटवर्क बना चुका है।
शिव और शक्ति में क्या अंतर है? इस पर उन्होंने कहा, ‘‘जब सारा संसार शांत है,जब उसमें कोई गति नहीं होती तब वह शिव है, और जैसे ही संसार में किसी भी तरह की गति होती है, सक्रियता होती है, तब वह शक्ति के कारण होती है।’’
अध्यात्म में स्वच्छ पर्यावरण का क्या महत्व है? उन्होंने पूछा, ‘‘वेदांत के अध्ययन या आध्यात्मिक उन्नति के लिए स्वच्छता अत्यधिक आवश्यक है। चाहे वह मन की हो, शरीर की हो या खासकर वातावरण और पर्यावरण की। अद्वैत और पर्यावरण का घनिष्ठ संबंध है। प्राचीन समय में वनों में अध्ययन और साधना होती थी। वह प्रकृति के साथ जीवंत संबंध स्थापित करना ही था। आज हमने चारों तरफ कंक्रीट के जंगल बना लिए हैं और प्रकृति से हमारा संबंध छिन्न-भिन्न है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि वृक्षों और पौधों का संरक्षण करें, जिससे आपको प्राणवायु मिल सके, इतना ही नहीं, पशुओं का भी संरक्षण करना चाहिए। हमारे ग्रंथों में प्रत्येक पशु को किसी न किसी देव का वाहन माना गया। यह प्राणियों से जुड़ा एक संबंध था, जिससे वे भी पूजनीय हो गए।’’
जो संन्यास, ज्ञान, भक्ति मार्ग में जाते हैं, उनकी संसार से अरुचि हो जाती है? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा बिल्कुल नहीं है, जो इन मार्गों पर सच्चे अर्थों में चलता है, उनके अंदर संसार के प्रति उच्च और श्रेष्ठ भावना, करुणा, ममता और दया जागृत होती है। जो सांसारिक लोगों से अधिक होती है। बस अंतर यह होता है कि वे इन मानवीय भावनाओं में आसक्त नहीं होते।’’
ध्यान को दिनचर्या का हिस्सा कैसे बनाएं? इस पर उन्होंने कहा, ‘‘ध्यान की कोई एक स्पष्ट प्रक्रिया नहीं है। जो लोग ध्यान करना चाहते हैं, वे संगीत को माध्यम बना सकते हैं। संगीत एकाग्रता लाता है और वह ध्यान की पहली सीढ़ी है। आपको बांसुरी पसंद है या वीणा या कोई भी वाद्य। उसे ही गहरे तल पर सुनिए और आप पाएंगे कि ध्यान घट रहा है।’’
जाति व्यवस्था के बारे में आपका क्या मत है? इस प्रश्न पर उन्होंने कहा, ‘‘देखिए भारत में प्राचीन समय में जाति व्यवस्था नहीं थी। वहां वर्ण शब्द का प्रयोग मिलता है। गीता में कहीं भी जाति शब्द का प्रयोग नहीं है। वहां वर्ण शब्द है जो कि किसी भी मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति को दर्शाता है। वर्ण कहीं ना कहीं रंग का सूचक है। ऋषि व्यक्ति के आभामंडल को देख सकते थे। जिसकी जितनी आध्यात्मिक उन्नति होती थी वह उतना तेज आभामंडल वाला उजले वर्ण का होता था। इस दृष्टि से वर्ण भी किसी भेदभाव का सूचक नहीं है।’’
भक्ति पर उन्होंने कहा, ‘‘भक्ति सीखी नहीं जा सकती। या तो वह आपके अंदर व्याप्त है या नहीं है। भक्ति कई जन्मों की
एक प्रक्रिया है। कई जन्मों की साधना, ईश्वर की विशेष कृपा या किसी आध्यात्मिक विभूति के सान्निध्य से ही भक्ति प्राप्त हो सकती है।’’
शंकराचार्य के संबंध में क्या कहेंगे? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘‘शंकराचार्य के समय सनातन धर्म संकटों से घिरा था। उसका ढांचा चरमराया हुआ था। कुरीतियां जड़ जमाए हुए थीं। दुष्प्रचार था। इसलिए वेद बाह्म विचारों को फैलने का अवसर मिला। आचार्य शंकर ने भारत के सनातन धर्म को उसके सच्चे स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का महान कार्य किया। वे उसके सच्चे प्रचार में देशभर में निरंतर यात्राएं करते रहे। देश के चार कोनों पर चारों दिशाओं में मठों की स्थापना सनातन व्यवस्था को एकसूत्र में बांधने का ही एक महान प्रयास थी। उन्होंने संन्यास को नए अर्थ दिए और संन्यासियों की परंपरा को व्यवस्थित ढांचे में ढाला। सदियों से वह परंपरा आज तक जीवंत है, जिसने भारत को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़कर रखा।’’
कहां से आरंभ करें? एक जिज्ञासु के इस प्रश्न पर श्री एम ने कहा कि आचार्य शंकर की कृति ‘विवेक चूड़ामणि’ आध्यात्मिक विरासत में उतरने के लिए एक अनुकूल आरंभ बिंदु है।
अंत में ओंकारेश्वर में निर्माणाधीन ‘एकात्म धाम’ की ऐसी पहल का उल्लेख आवश्यक है, जो तकनीकी रूप से संपन्न उच्च शिक्षित युवा पीढ़ी को भारत की महान ज्ञान परंपरा का अग्रदूत बना रही है। भारत भर के गुरुकुलों में ‘यूथ रिट्रीट’ के नाम से चल रहे अद्वैत जागरण शिविरों में अब तक जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और पंजाब सहित 26 राज्यों के 700 युवा आ चुके हैं। ये शंकरदूत हैं, जिनके एक समूह से श्री एम का परिचय एकात्म पर्व में हुआ। आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास का यह प्रयोग सभी राज्यों के प्रतिष्ठित गुरुकुलों, आध्यात्मिक संस्थानों, साधना केंद्रों और आश्रमों के बीच एक प्रभावशाली अंतरराज्यीय जीवंत नेटवर्क बना चुका है।
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