यूं दुनिया भर में महिलाओं के श्रम के लिए कहा गया है कि जिस दिन इसका हिसाब होगा, दुनिया का सबसे बड़ा झूठ पकड़ा जाएगा। लेकिन इसे बेटियों के खिलाफ अपराध के आईने से देखें, तो अनगिनत झूठ हैं देश में, जो पकड़े ही नहीं जाएंगे कभी। क्योंकि जुर्म करने वाले, उसका हिसाब दर्ज करने वाले और उन पर फैसला देने वाले, सब एक ही जमात के हैं। रसूखदार, अय्याश, भ्रष्ट और जहीन मुखौटे वाले हैवान।
नब्बे के दशक का यह वह दौर था जब राजस्थान में कई आंदोलन परवान पर थे। कानूनों की बेहतरी, नागरिकों के अधिकार, चुनावों में अच्छे प्रत्याशियों को मत देने की आड़ में स्वार्थ की राजनीति चलती रहती थी। स्टेचू सर्किल से लेकर राजस्थान विश्वविद्यालय तक के रास्तों पर हम यही धरना-प्रदर्शन देखते, और उनके ढोल-ढमाकों में दबी कई गंभीर घटनाओं पर सोचा करते। जरा-जरा सी बात पर शोर- शराबा करने वाले इनमें से एक भी आंदोलनकारी और बौद्धिक का 1992 के अजमेर सामूहिक बलात्कार कांड के खुलासे पर कभी कोई बयान सुनाई नहीं दिया।
हैरानी यह भी थी, कि तब इस मामले पर सत्ता और प्रतिपक्ष भी एक ही दिखे। जबकि कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के नाम खुलासे के साथ ही चर्चा में थे, और ये बात भीतर-भीतर सबको मालूम थी। विधानसभा में भी कभी मुद्दा नहीं गूंजा। तब भी और आज भी दिमाग इस बात पर ठनकता है कि आखिर ये लोग कौन हैं? किस मकसद से मैदान में हैं और कहां से पोषित हैं? इनका खून चुनिंदा मामले में ही क्यों खौलता है? असल संजीदा मामलों में ये चुप्पी क्यों साध लेते हैं? तोल-मोल कर काम करने वाली इस लॉबी के हितों की थाह पाना आसान नहीं। लेकिन ये मसले गहरे हैं, और अभी के संदर्भ में भी इन पर गौर करेंगे, तो हमें सारे तंत्र और उसकी सड़ांध बेहद अखरेगी।
सफेद चोलों और पर्दों के पीछे
जिस मामले में हाल ही अजमेर के पॉक्सो कोर्ट के न्यायाधीश रंजन सिंह ने छह गुनहगारों को उम्रकैद और पांच लाख जुर्माने की सजा दी है, वह मामला तीन दशक पुराना है। आज भी दुनिया में इस जैसा कोई और मामला नहीं है। शुरुआत में इस मामले में 18 लोगों के नाम दर्ज हुए। कुछ बरी हुए, कुछ ने थोड़ी सी सजा पाकर खैर मनाई। और अब नफीस, नसीम, सलीम, इकबाल, सोहेल और सैयद सब सलाखों के पीछे दिखेंगे, लेकिन कब तक?
यह कहना अब भी मुश्किल है। इन सबके शिकंजे में आई बेटियों में से ज्यादातर एक ही धर्म की थीं। उन सबकी जिंदगी तो कब की खाक हुई। सबकी उम्र बीत गई, सबके सपने, सबकी हिम्मत चूर-चूर हुई। कुछ ने खुदकुशी कर ली, कुछ अवसाद में चली गई। कुछ ने चौकियों और अदालतों में मिली जिल्लत के आगे हार मान ली। कुछ शहर छोड़कर गुमनामी में गर्इं, तो वहां भी बदनामी पीछा करते आ गई। समाज पर असर यह भी था कि अजमेर की हर बेटी को शक की नजर से देखा जाने लगा, शादियां हुईं नहीं, या टूट गई। और आखिर में बचा क्या, खौफनाक थ्रिलर सरीखा किस्सा। जिस पर फिल्म बनाने का ऐलान होने के बाद, उसका सिर्फ ट्रेलर दिखा। यहां भी असल पर्दे के पीछे क्या घटा, क्या और किससे लेन-देन हुआ, किसे मालूम? फिल्म की बात करने से पहले एक नजर में मामले को समझ लें।
अशोक गहलोत ने तोड़ा प्रोटोकॉल
इस अपराध के राजनीतिक पक्ष को करीब से देखने वाले पत्रकार श्रीपाल शक्तावत कहते हैं, ‘‘इस मामले के आरोपित, कांग्रेस के अग्रिम संगठन, यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई के प्रमुख पदाधिकारी तो थे ही, उन पर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अशोक गहलोत और राजस्थान यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष रघु शर्मा की मेहरबानियां भी चर्चा का विषय रही। इसी दौरान गहलोत जब प्रोटोकॉल तोड़कर अजमेर में तत्कालीन एसपी से मिलने पहुंचे तो शक की सुई खुद उन पर भी घूमने लगी। लेकिन तबसे लेकर अब तक ना कभी गहलोत ने स्पष्ट किया कि वे प्रोटोकॉल तोड़कर एसपी से मिलने क्यों गए थे।
न ही ऐसे मामलों की फाइलें सहेजने के लिए जाने जाते रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत ने इस पर कभी चुप्पी तोड़ी। यहां तक कि पुलिस पूछताछ में एक पीड़िता ने उसे जोधपुर समेत देश के कई शहरों में आरोपियों द्वारा कांग्रेसी नेताओं के पास ले जाने की बात कही, तो भी न पुलिस की इस मामले में आगे की जांच स्पष्ट हुई न ही कांग्रेस की ओर से इस पर कभी कोई स्पष्टीकरण आया।
हालांकि वसुंधरा सरकार में मंत्री रहे कालीचरण सर्राफ और खुद गहलोत सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र गूढा ने, विवादों में रहे कांग्रेस नेताओं के नार्को टेस्ट की भी मांग की। केंद्र सरकार के विश्वव्यापी संपर्कों के बावजूद, इस मामले में वांछित अलमास महाराज का अमेरिका से अब तक पकड़ा न जाना यह साबित करता है कि पीड़िताओं को अभी न्याय के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ेगा। साथ ही उन्हें इंसाफ की उसी चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा जिसके लिए एक पीड़िता अदालत में कह चुकी है कि उसे फिर बुलाया गया तो वह आत्महत्या कर लेगी। उनके मन पर दरिन्दगी के निशान इतने गहरे हैं कि वह पहचान छिपाकर अन्य राज्यों में रहने को मजबूर है।’’
खादिम, रसूख और जुर्म के गुंबद
यह किस्सा शुरू होता है कांग्रेस पार्टी के पदों पर बैठे अजमेर दरगाह के खादिमों और उसके साथी नेताओं द्वारा स्कूल की एक बच्ची को अपनी हवस का शिकार बनाने से। चोरी-छिपे उसकी अश्लील तस्वीरें लेकर, उसे बदनाम करने का डर दिखाकर एक-एक कर 11 से 20 की उम्र की लगभग 250 बच्चियों को अपने सेक्स रैकेट में शामिल कर लेने से। एक फोटो लैब से इनके फोटो लीक होने से मामला खुलने और एक-एक कर परतें सामने आने की छटपटाहट से। इस खुलासे के बाद, हवस के भूखे मुजरिमों के लिए पुलिस अफसर, डॉक्टर, वकील, जज, बड़े नेता और अखबार मालिक सब ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं।
लोगों को इस कांड की भनक भी न लगे, इसके इंतजाम में खूब पैसा फेंका जाता है। और फिर शुरू होता है अंतहीन सिलसिला, तीस साल तक बेटियों के जख्मों पर पूरे सिस्टम के नमक छिड़कने का। 250 में से सिर्फ 16 सामने आकर लड़ने की हिम्मत कर पाती हैं। और फिर सिर्फ छह ही बचती हैं, जिनमें इंसाफ के लिए आखिरी सांस तक खड़े रहने का जज्बा बचता है। इस बीच कानून भी कड़े होते हैं, मासूमों से जुड़े जुर्म की जल्द सुनवाई के लिए अलग अदालतें बनती हैं। और आखिरकार यह फैसला आता है, जिसे उच्च और उच्चतम अदालतों का सामना करने और वहां टिके रहने के लिए, अभी और कितना दमखम चाहिए, इसका अंदाज लगा पाना भी मुश्किल है। जमीर बेचने वाले भी हैं और कीमत लगाने वाले भी। जो सच के साथ हैं सिर्फ वही खाली जेब हैं, खाली हाथ हैं।
मदन की मौत, मां की माला
इस कहानी का एक अहम किरदार था मदन सिंह। इन बच्चियों की आवाज बनाने वाला ये क्रांतिकारी पत्रकार, जब इन बच्चियों की बंद कमरे की गवाही की 75वीं कड़ी छाप चुका, तब उनकी कहीं सुनवाई नहीं थी, कहीं खबरें नहीं थीं। सब नामी अखबार और पत्रकार धमकियों से डर चुके थे या बिक चुके थे। जिन्होंने फैसला आने के बाद, इन खबरों की वाहवाही लेकर पुरस्कार भी ले लिए, उनके मालिकों ने तो खबरें दबाने के एवज में बड़ा सौदा कर अपना हित साध लिया।
हवस का कारोबार ऐसे ही नहीं फलता-फूलता। कितने किरदार काले होते हैं, कितने स्वार्थ होते हैं, कितनों की बदनीयत होती है। तब जाकर जुर्म की दुनिया आबाद होती है। मदन सिंह को अपनी दिलेरी का ये सिला मिला कि उसके कत्ल में शामिल कांग्रेसी विधायक और बाकी लोगों के खिलाफ सारे सबूत होने पर भी सजा नहीं हो पाई। मदन सिंह की मां ने गोली से अधमरे हुए अपने बेटे को अस्पताल में फिर गोलियों से छलनी होते देखा। भागते हुए एक मुजरिम के पांव, अपने माला जपते हाथों से कसकर पकड़ भी लिए। फिर भी अपने बेटे को इंजेक्शन से तड़प-तड़प कर दम तोड़ते देखा। दूसरे बेटे को भी इन्हीं लोगों के हाथों खोया।
अपने गहने बेचकर मदन सिंह के उस अखबार को तब तक जिंदा रखा, जब तक उसकी हिम्मत बची। मदन सिंह की दिलेरी न होती, तो घटना के छह साल में ही जिला अदालत में 8 दोषियों को उम्रकैद की सजा न सुनाई गई होती। इनमें से चार को 2001 में उच्च न्यायालय ने बरी किया और बाकी की सजा दस साल कर दी। इस बीच कई मुजरिम फरार हो गए। सालों तलाश हुई, तो धौलाकुआं में नफीस बुर्के में मिला, नसीम और इकबाल भी कहीं पकड़े गए, सलीम चिश्ती भी हत्थे चढ़ा। लेकिन मदन का कत्ल करने वाले सब मुजरिम, पहचान के बाद भी खुले घूम रहे हैं।
नेता, फिल्म और सम्पादक
एक टीवी चैनल ने जोश में आकर इस पर फिल्म बनवाई। हश्र यह हुआ कि पहले तो उसका पोस्टर पोस्ट करते ही उनके उर्दू चैनल और मुख्य सम्पादक दोनों ने ऐतराज जताया कि इसमें ‘द ब्लैक चैप्टर आॅफ दरगाह शरीफ’ क्यों लिखा? इसे बदल कर ‘द ब्लैक चैप्टर आफ अजमेर’ किया गया। पचास मिनट की इस फिल्म को चैनल ने दो हिस्सों में अपने यूट्यूब पर डाला मगर अगले ही दिन हटा भी दिया।
दरगाह के हर शॉट हटाने और उसमें कई बदलाव करने का दबाव बनाया गया। आखिरकार फिल्म बनाने वाले को ही बाहर का रास्ता दिखाया गया। अब इस फिल्म के निशान कहीं नहीं दिखते, सिर्फ एक अदद प्रोमो के सिवाय। एक फिल्म और बनी, जिसमें वह पक्ष दिखाया गया जो मुजरिम और उनके आका दिखाना चाहते थे। मदन सिंह को इस फिल्म में ‘विलन’ की तरह दिखाया गया। झूठ, अपनी जेबें भरकर, पूरी दुनिया का चक्कर भी लगा आया। और सच, अपनी पहचान छिपाते हुए, अपने बयान दर्ज करवाता, गुहार लगाता, बिलखता हुआ, अदालतों में और बाहर, अपनी बारी की बाट जोहता रहा।
राजनीति, सेक्स और कुछ राज
इस कांड का मुख्य गुनहगार फारुख अजमेर यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष था। नफीस स्थानीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष और अनवर संयुक्त सचिव था। उस वक़्त इस मामले की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार बताते हैं कि शुरुआती शिकायत में कुछ बड़े कांग्रेसी नेताओं का भी नाम था। एक पीड़िता ने यह भी बताया कि उसे और कई नेताओं के यहां ले जाया गया था। यह कांड खुला, तब कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री, अजमेर में प्रोटोकॉल तोड़कर जिला पुलिस अधीक्षक से भी मिले। बाद में, जांच से जुड़े पुलिस अधिकारी को कांग्रेस कार्यकाल में जिलों में एसपी और अहम पदों पर रखा।
राजस्थान कर्मचारी चयन बोर्ड का अध्यक्ष भी बनाया। इन पोस्टिंग पर सवाल भी उठे। इसके अलावा अजमेर के उस वक्त के डीजी पुलिस को कांग्रेस सरकार ने हमेशा प्राइम पोस्टिंग से नवाजा। बहुत ख्याल रखा। शुरुआती रिपोर्ट के कई नाम हटाए गए, जिसमें पुलिस खूब मददगार बनी। इसी साल, अजमेर में अरबाज और इरफान ने बच्चियों को फंसाकर मोबाइल से अश्लील रिकॉर्डिंग कर इसी तरह का एक और कांड दोहराया है। मतलब साफ है, कानून-व्यवस्था, पुलिस, पैसा सब इनकी जेब में है। नेता इनके अपने ही हैं, इसलिए इन्हें आज भी किसी का खौफ नहीं।
खुराफाती दिमाग और हवस, कत्ल, खुदकुशी, गवाही, अवसाद, गुनाह के मददगारों को पद और पैसा, फिर से यही देखना नियति है। पीड़िता जीवन भर पीड़ा ही भुगतेगी। व्यवस्था यही इनाम दे सकती है उसे उसकी हिम्मत का। उनकी चीखें अगर सुनाई नहीं दे रहीं, तो सभ्य समाज के लिए इससे खौफनाक कुछ भी नहीं।
टिप्पणियाँ