बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदुओं पर हमलों ने वहां उनकी नाजुक स्थिति को उजागर किया है। इस्लामी कट्टरपंथी चुन-चुन कर हिंदुओं, उनके घरों, मंदिरों और उनके कारोबार को निशाना बनाते रहे, लेकिन ‘लिबरल इको-सिस्टम’ और मानवाधिकार के झंडाबरदार चुप रहे। उलटे लिबरल-वामपंथी गिरोह हिंदुओं पर हमलों की खबरों को झुठलाते रहे। इसमें देसी मीडिया और ‘टूलकिट’ की तरह काम करने वाले कुछ पत्रकार और विदेशी मीडिया भी शामिल है। लेकिन बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के गृह मंत्री ब्रिगेडियर जनरल (से.नि.) मुहम्मद सखावत हुसैन की इस स्वीकारोक्ति कि ‘हिंदुओं पर हमले हुए’, ने उन्हें आईना दिखा दिया। हुसैन ने यह भी कहा कि जो मंदिर तोड़े या जलाए गए हैं, उनके पुनर्निर्माण के लिए सरकार आर्थिक सहायता देगी। साथ ही, हिंदू समाज को सुरक्षा का आश्वासन भी दिया है।
बांग्लादेश के 64 में से 61 जिलों में बड़ी संख्या में हिंदू रहते हैं, जो पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग के समर्थक माने जाते हैं। इसीलिए अब वे कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। लेकिन लिबरल कह रहे हैं कि बांग्लादेश संकट को केवल भारतीय मीडिया हिंदू बनाम मुस्लिम नैरेटिव की तरह पेश कर रहा है। प्रश्न है कि जब हिंदुओं पर हमले नहीं हुए, मंदिरों में तोड़फोड़ नहीं हुई तो नई सरकार ने क्यों कहा कि हिंदुओं पर बहुत से स्थानों पर हमले हुए? क्यों हाथ जोड़कर माफी मांगी? मंदिरों के पुनर्निर्माण और हिंदुओं को सुरक्षा देने की बात क्यों कही? बांग्लादेश में आज जो हो रहा है, वह नया नहीं है। वहां जब भी अवामी लीग कमजोर होती है, हिंदुओं पर हमले होते हैं। राजनीतिक विद्वेष की आग में हमेशा हिंदू ही क्यों झुलसते हैं?
तख्ता पलटने वाले सत्ता में
ढाका विश्वविद्यायल के तीन छात्रों नाहिद इस्लाम, आसिफ महमूद और अबु बकर मजूमदार के आरक्षण विरोधी आंदोलन को कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी की छात्र इकाई बांग्लादेश इस्लामी छात्र शिबिर ने हाईजैक कर लिया। फिर बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) भी इसमें कूद गई। कुछ दिन पहले ही शेख हसीना सरकार ने जमात-ए-इस्लामी, इसके छात्र संगठन और इससे जुड़े अन्य संगठनों पर प्रतिबंध लगाया तो वह जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश नाम से अस्तित्व में आया। जमात के पाकिस्तान और आईएसआई केसाथ संबंध जगजाहिर हैं।
इस आंदोलन में बीएनपी की छात्र इकाई छात्र दल, वामपंथी छात्र संगठन प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स अलायंस, इस्लामी संगठन हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश और इस्लामी राजनीतिक पार्टी जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश भी शामिल थी। इन सब ने मिलकर आरक्षण विरोधी आंदोलन को हवा दी, फिर उसे सरकार विरोधी आंदोलन बना दिया और शेख हसीना को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद आंदोलनकारी छात्रों ने देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ओबैदुल हसन को पद छोड़ने के लिए विवश किया।
नए मुख्य न्यायाधीश ने पद संभालते ही आंदोलनकारी छात्रों पर दर्ज मुकदमे वापस लेने की घोषणा की। फिर छात्रों ने मुहम्मद युनूस को सरकार बनाने का न्यौता दिया, जिसे उन्होंने लपक कर स्वीकार कर लिया। उधर, सेना में भी बड़े बदलाव किए गए। मेजर जनरल जियाउल अहसन को सेवा मुक्त कर दिया गया। लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद सैफुल आलम को विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई और लेफ्टिनेंट जनरल मिजानुर शमीम सेना को चीफ आफ जनरल स्टाफ नियुक्त किया गया है।
क्या होगा अंजाम?
मोहम्मद युनूस ने हिफाजत-ए-इस्लाम जैसे संगठनों के प्रति निष्ठा रखने वाले इस्लामी कट्टरपंथियों को अपनी टीम में शामिल किया है। सरकार बनते ही जमात-ए-इस्लाम पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। अंतरिम सरकार में दो आंदोलनकारी छात्रों नाहिद इस्लाम और आसिफ महमूद को भी शामिल किया गया है, जिन्हें शासन का बिल्कुल भी अनुभव नहीं है। उधर, मोहम्मद युनूस पर दर्ज भ्रष्टाचार के मामले एक-एक कर वापस लिए जा रहे हैं। सरकार में सलाहकार नूरजहां बेगम को भी बरी कर दिया गया है।
दोनों के विरुद्ध शेख हसीना के कार्यकाल में मामले दर्ज किए गए थे। कहा जा रहा है कि मोहम्मद यूनुस ने उल्फा को 10 ट्रक हथियारों और विस्फोटकों की खेप भेजने के आरोप में मृत्युदंड की सजा पाए लोगों को भी बरी करने की सहमति दे दी है। उनमें पूर्व मंत्री मोहम्मद लुत्फज्जमान बाबर व अब्दुस सलाम पिंटु, बीएपी के कार्यकारी अध्यक्ष रहे तारीक रहमान, डीजीएफआई के पूर्व निदेशक मेजर जनरल (से.नि.) रेजाकुल हैदर चौधरी, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा गुप्तचर निदेशक व बर्खास्त विंग कमांडर शहाबुद्दीन शामिल हैं। ये सभी 2001-2006 तक बीएनपी गठबंधन सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर थे।
इसका परिणाम क्या होगा, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। इस सब के बीच, अमेरिका न तो हिंदुओं के नरसंहार से और न ही इस्लामी कट्टरपंथियों के सत्ता के केंद्र में आने की संभावित संभावनाओं से बहुत चिंतित है। इसकी कीमत हिंदुओं को चुकानी पड़ रही है, पर लोकतंत्र और पश्चिम में मानवाधिकारों के चैम्पियन हिंदू नरसंहार पर चुप्पी साधे हुए हैं। यहां तक कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी हिंसा को ‘बदले का हमला’ बताकर तर्कसंगत बनाने की कोशिश की है। 1971 के युद्ध के दौरान और उसके बाद के समय में हिंदुओं के नरसंहार पर अमेरिकी रुख आज से अलग नहीं था।
शेख हसीना को देश में अस्थिरता, आतंकवाद और सैन्य शासन के विरुद्ध एक ढाल के रूप में देखा जाता था। वे बांग्लादेश को संघर्षों से निकालकर आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर ले आईं। नतीजा, बांग्लादेश में प्रति व्यक्ति आय तीन गुना हो गई और वह परिधान निर्यात में चीन के बाद दुनिया का दूसरा बड़ा देश बन गया। तख्तापलट के बाद देश फिर से अस्त-व्यस्त हो गया है। यह चीन, पाकिस्तान और डीप स्टेट के लिए ही नहीं, बल्कि आतंकियों व कट्टरपंथियों के लिए भी एक सुनहरा अवसर है। बांग्लादेश में राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता का असर भारत पर भी पड़ेगा। घुसपैठिए और इस्लामी आतंकी दोनों देशों के लिए चुनौती बन सकते हैं। जिस तरह से मौका पाते ही कट्टरपंथियों ने बांग्लादेश के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय प्रतीकों को मटियामेट किया, उससे बामियान में तालिबान के कृत्यों की यादें ताजा हो गईं।
ईसाई देश बनाने की साजिश!
क्या कोई कल्पना कर सकता था कि बांग्लादेश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार और प्रधानमंत्री के साथ ऐसा होगा! सवाल है कि हालात बिगड़े कैसे? जनवरी 2024 में 5वीं बार प्रधानमंत्री बनने के बाद शेख हसीना ने कई बार आसन्न खतरों की ओर संकेत किया था। मई में उन्होंने कहा कि एक ‘श्वेत व्यक्ति’ ने उन्हें ‘एक प्रस्ताव’ भेजा है। साथ ही, आगाह किया था कि बांग्लादेश और म्यांमार को मिलाकर एक नया ‘ईसाई देश’ बनाने की साजिश रची जा रही है। वह ‘श्वेत’ कौन है? उसने क्या‘प्रस्ताव’ भेजा था?
शेख हसीना एक माह के भीतर दो बार भारत के दौरे पर आई थीं। फिर जुलाई में चीन गईं, पर बेटी के खराब स्वास्थ्य के बहाने दौरा अधूरा छोड़कर लौट आईं। वास्तव में वे चीन से अपेक्षित वित्तीय सहायता और उचित प्रोटोकॉल न मिलने से नाराज थीं। चीन ने उन्हें उचित प्रोटोकॉल क्यों नहीं दिया? क्या शेख हसीना को अपदस्थ करने की अमेरिकी डीप स्टेट के षड्यंत्रों की जानकारी चीन को पहले से थी? डीप स्टेट चीन के साथ सहयोग क्यों कर रहा है?
डीप स्टेट का चेहरा है-जॉर्ज सोरोस। वामपंथी और हिंदू विरोधी सोरोस का एजेंडा पश्चिमी वर्चस्व बनाए रखना है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ उसका वैचारिक जुड़ाव है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को छोड़कर क्लिंटन, ओबामा और बुश आदि अमेरिकी राष्ट्रपतियों को डीप स्टेट और सोरोस परिवार ने ही सत्ता में बिठाया और उन्हें कठपुतली की तरह नचाया। हिंदू विरोधी होने के कारण डीप स्टेट का स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान के साथ गहरा नाता है। हाल ही में जॉर्ज सोरोस के बेटे एलेक्स सोरोस ने हुमा आबेदीन से सगाई की घोषणा की थी। हुमा पाकिस्तानी मूल की है और हिलेरी क्लिंटन की सचिव रह चुकी है।
यह सगाई इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ डीप स्टेट के संबंधों का प्रमाण है। डीप स्टेट ने कनाडा, यूरोप, यूक्रेन और कई अन्य देशों में कठपुतली सरकारें स्थापित की हैं। सोरोस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी सत्ता से दूर करने के लिए एक अरब डॉलर फंड देने की घोषणा की थी। शेख हसीना को हटाकर डीप स्टेट और चीन अब भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर करने और भारत को बांटने की साजिश में जुटे हुए हैं। उनकी मंशा बांग्लादेश के माध्यम से भारत के पूर्वोत्तर में आपूर्ति मार्ग को बाधित करना है। चीन पूर्वोत्तर को भारत से काटकर कर अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा मजबूत करने की ताक में है।
दरअसल, चीन शेख हसीना से नाराज था। वह तीस्ता परियोजना हासिल करना चाहता था, पर शेख हसीना चाहती थीं कि भारत इसे पूरा करे। इसलिए जब वह चीन गईं तो चीनी राष्ट्रपति उनसे नहीं मिले। वापस लौटते ही उन्होंने कहा कि तीस्ता परियोजना के लिए चीन तैयार है, लेकिन वह इसे भारत को देंगी, क्योंकि इससे जुड़ी भारत की कुछ चिंताएं हैं। इसी से चिढ़कर चीन डीप स्टेट के साथ तख्तापलट की योजना पर तेजी से काम करने लगा। आरक्षण विवाद ने उसे मौका दे दिया। बांग्लादेश ग्रामीण उन्नति समिति (बीआरएसी) और अन्य विश्वविद्यालयों में आंदोलन को उग्र बनाने के लिए डीप स्टेट द्वारा जारी टूलकिट का इस्तेमाल हुआ। डीप स्टेट ने सूचनाओं को दबाने, फर्जी खबरें फैलाने, सर्च इंजन को आप्टिमाइज करने, शिक्षाविदों तथा मीडिया आउटलेट का वैश्विक गठबंधन तैयार करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल किया। — नंदन दास
जहां षड्यंत्र, वहां कांग्रेस
बांग्लादेश में उथल-पुथल के बीच कांग्रेस का रवैया भी संदिग्ध रहा। वहां के हिंदुओं पर हो रहे हमलों पर चिंता जताने के बजाए सलमान खुर्शीद, मणिशंकर अय्यर और सज्जन वर्मा ने जो बयान दिए, वे गंभीर और चिंता में डालने वाले हैं। खुर्शीद ने धमकाने वाले लहजे में कहा, ‘‘बांग्लादेश जैसे हालात भारत में भी हो सकते हैं।’’ फिर राहुल के करीबी मणिशंकर अय्यर ने यह कहकर कि ‘बांग्लादेश जैसी परिस्थितियां कुछ-कुछ भारत में भी बन रही हैं’ कांग्रेस की भूमिका को लेकर आशंकाओं को और गहरा कर दिया। ऐसा लगता है कि ये बयान कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की स्वीकृति के बाद दिए गए थे।
यदि ऐसा नहीं होता तो मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री सज्जन सिंह वर्मा यह नहीं कहते कि ‘श्रीलंका और बांग्लादेश की तरह भारत में भी जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आवास में घुसने वाली है।’ तो क्या कांग्रेस भी मौके की ताक में है? बांग्लादेश में जो हुआ, क्या उसकी जानकारी कांग्रेस को थी? क्योंकि हिंदुओं को ‘हिंसक’ बताने वाले राहुल गांधी, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नफरत या भाजपा के विरोध के नाम पर देश-विदेश में भारत को बदनाम करने में माहिर हैं, उन्हें पता था कि बांग्लादेश में क्या पक रहा है। अंग्रेजी साप्ताहिक ब्लिट्ज के बांग्लादेशी संपादक सलाहुद्दीन शोएब चौधरी ने भारत के दो प्रमुख टीवी चैनलों पर दावा किया है कि बीते माह के प्रारंभ में लंदन की संक्षिप्त यात्रा के दौरान राहुल ने बीएनपी के निर्वासित नेता व पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया के बेटे तारिक रहमान से मुलाकात की थी। चीन के साथ कांग्रेस की गलबहियों के बारे में तो सभी जानते हैं।
पर भी लगाकांग्रेस ने हिंडनबर्ग की रिपोर्टतार सरकार को घेरने की कोशिश की, जो अडाणी समूह पर लक्षित हमले कर शॉर्ट सेलिंग से कमाई भी कर रहा था। उसने उत्साह में डेढ़ साल के भीतर दूसरी बार रिपोर्ट जारी की। लेकिन सेबी की अध्यक्ष माधवी पुरी बुच पर हमले के बहाने शेयर बाजार में उथल-पुथल लाने की उसकी योजना नाकाम हो गई। लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से कांग्रेस के शेयर बाजार को लगातार मुद्दा बनाने के पीछे क्या वजह हो सकती है? कहीं हिंडनबर्ग तो नहीं? बहरहाल, भारत को कभी जाति में बांटने, कभी संवैधानिक संस्थाओं पर हमला और अब आर्थिक रूप से चोट पहुंचाने की कोशिश संयोग नहीं हो सकती। ये वे प्रयोग हैं, जो बीते कुछ वर्षों से लगातार किए जा रहे हैं।
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