‘‘विफल प्रयत्न हुए सारे,
मैं हारी, निष्ठुरता जीती।
अरे न पूछो, कह न सकूंगी,
तुमसे मैं अपनी बीती।’’
सुभद्रा कुमारी चौहान ने किसी युवा प्रेमिका की व्यथा को शब्दों में ढालते हुए ये पंक्तियां रची थीं। किन्तु क्या किसी ने कभी सपने में भी सोचा था कि किसी स्त्री का ऐसा करुण स्वर किसी एक राज्य में बहुसंख्य महिलाओं के आर्तनाद में परिवर्तित हो जाएगा! स्थानीय समाज को आक्रोशित करेगा, देश को झकझोरेगा! वातावरण में चीखें होंगी, सबकी आंखों से आंसू बहेंगे, सबकी मुट्ठियां भिंची होंगी, मगर शासक की ‘निर्ममता’ इस सबको रौंद देगी!
बंगाल में यही सब हो रहा है। ठंडे, निर्मम, नाटकीय ढंग से और पूरी ठसक के साथ। एक तरफ गुंडे और गंडासे, दूसरी ओर झूठे दिलासे…। दिन पर दिन और हिंसक होती तृणमूल कांग्रेस की राजनीति बंगाल की दुर्दशा का नया अध्याय लिख रही है। दिल्ली की निर्भया पर रोने वाले बंगाल की बेटी पर चुप हैं। राजनीति के पाले बंटते थे, बंटते रहेंगे…, मगर क्या हम बेटियों को लेकर भी बंट गए हैं? सीबीआई की बात करेंगे, पर उससे पहले समय चाहिए। क्यों! इसे सबूत मिटाने की मंशा के तौर पर क्यों नहीं देखा जाए, विशेषकर तब जब न्यायालय से चोट खाए तंत्र की गुंडागर्दी अस्पताल परिसर में साफ-साफ दिख रही है? दशकों से राजनीतिक हिंसा के ज्वार में तपता और इस ताप को सहज मान चुका बंगाल ऐसे हिंसक कुचक्र में जा फंसा है, जहां सभ्य समाज राजनीति की इस त्रासदी के सामने कदम पीछे खींचता दिख रहा है। किसी भी समाज के लिए यह स्थिति विकट है।
संकट तात्कालिक नहीं, सभ्यतागत है। बंगाल की वर्तमान स्थिति को समझना अत्यंत आवश्यक है, विशेषकर पिछले 60 वर्ष के दौरान यहां की राजनीति में फैली हिंसा और उथल-पुथल को देखते हुए। जिस बंगाल ने कला-संस्कृति, साहित्य-सिनेमा, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में वैश्विक पहचान बनाई थी, वही अब राजनीतिक हिंसा, मानव तस्करी, अवैध हथियारों के निर्माण और नकली नोटों के व्यापार का केंद्र बन गया है। कटमनी, सिंडिकेट राज और विभिन्न घोटालों में नेताओं की संलिप्तता ने बंगाल को एक अपराधग्रस्त राज्य के रूप में बदल दिया है। वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और 13 वर्ष से राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी और पार्टी के अन्य नेता बंगाल को शांतिपूर्ण राज्य मानते हैं, लेकिन सचाई इसके विपरीत है। यहां चुनावी हिंसा में हजारों लोगों की मौत हुई है, लााखों की संख्या में लोग घायल हुए हैं, लेकिन इस सच को उजागर करने का प्रयास ममता बनर्जी को स्वीकार नहीं है।
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना है। 1967 में नक्सलवाद के उदय और राजनीतिक अस्थिरता के कारण यहां लंबे समय तक अराजकता का दौर रहा।1972 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने नक्सलियों की आड़ में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं का दमन किया। इसी अवधि में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आपातकाल लागू करने के पीछे भी रे की सलाह अहम मानी जाती है। इसके बाद 1977 में वाम मोर्चा सरकार के आने के बाद मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने आरोप लगाया था कि 1972 से 1977 के बीच 1,100 से अधिक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई। वाम मोर्चा के राज में भी राजनीतिक हिंसा का दौर जारी रहा। 1977 से 1983 के बीच कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप लगे। वाम मोर्चा में शामिल दलों के कार्यकर्ताओं ने आपस में ही एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा का सहारा लिया, जिसमें कई बड़े हत्याकांड और नरसंहार हुए।
1972 का सैनबाड़ी हत्याकांड, 1979 का मरीचझांपी नरसंहार और 1982 में 17 आनंदमार्गी साधुओं की हत्या जैसी घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे बंगाल में राजनीतिक हिंसा ने राज्य की संस्कृति को कलंकित किया। 31 मई, 1998 को बासंती में हुए हमले में पांच लोगों को जिंदा जलाकर मार डाला गया और 150 घरों को आग के हवाले कर दिया गया। 2000 के दशक में भी राजनीतिक हत्याओं का दौर थमा नहीं। 2000 में बीरभूम के नानूर में 11 लोगों की हत्या, 2007 में नंदीग्राम में 14 लोगों की हत्या और 2011 में लालगढ़ में सात लोगों की हत्या जैसी घटनाओं ने राजनीतिक हिंसा की गहराई को उजागर किया। हाल के वर्षों में भी राजनीतिक हिंसा की घटनाएं घटित होती रही हैं। 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद भी भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमले हुए और हत्या के मामले सामने आए हैं, जिनकी जांच अब सीबीआई कर रही है।
बंगाल में सत्ता परिवर्तन तो हुआ, लेकिन राजनीतिक हिंसा का चरित्र नहीं बदला। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद भी हिंसा और भ्रष्टाचार जारी रहा। राज्य में भ्रष्टाचार, तस्करी, और राजनीतिक हिंसा की घटनाएं लगातार जारी हैं, जिन पर ममता और उनकी पार्टी चुप्पी साधे हुए है। बंगाल में राजनीतिक हत्याओं और हिंसा का रिकॉर्ड अक्सर नहीं रखा जाता। ममता राज में तो राजनीतिक कारणों से होने वाली हत्याओं की रिपोर्ट थानों में दर्ज ही नहीं होती। 2015, 2016 और 2017 के दौरान केवल एक-एक राजनीतिक हत्या दर्ज की गई, जबकि इन वर्षों में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। 2018 के पंचायत चुनावों के दौरान भाजपा कार्यकर्ताओं पर हुए हमलों के बाद भी ये घटनाएं जारी रहीं, और लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता के बाद भी पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या होती रही।
बंगाल में राजनीतिक हिंसा और अन्य अवैध गतिविधियों को उजागर करने वाले लोगों पर राज्य को बदनाम करने का आरोप लगाया जाता है और उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। राज्य में शांति का हवाला देकर ममता फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ के प्रदर्शन पर रोक लगा देती हैं और हाल-फिलहाल में ‘द डायरी आफ वेस्ट बंगाल’ के ट्रेलर पर भी कानूनी शिकंजा कस देती हैं। ये दोनों फिल्में सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं और जब सच सामने आता है तो सबसे पहले झूठ पैंतरेबाजी में जुट जाता है।
ममता यही कर रही हैं। उनके बस में जितना है, कर रही हैं। कारण साफ है। उन्हें डर है कि कहीं इससे ‘बड़े नाजों से पाला-पोसा’ मुस्लिम वोट बैंक नाराज न हो जाए! यह कोई धारणा नहीं। ममता ने खुद ही 2019 में चुनाव के समय मुसलमानों के बीच बड़े साफ शब्दों में कहा था कि ‘जो गाय दूध देती है, उसकी दुलत्ती भी सहूंगी।’ हां, ‘संविधान लहराओ’ ब्रिगेड की सदस्य ममता बनर्जी को एक बात याद रखनी चाहिए, इस देश का संविधान न दुलत्ती सहने की भावना पर टिका है और न आंखें मारकर देखने पर और न ही आंखें चुराकर देखने पर। उसी संविधान का तकाजा है, बंगाल की सचाई को सामने लाना होगा।
@hiteshshankar
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