प्राचीन काल में मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित बीजामंडल यानी विजय मंदिर एक भव्य और विशाल मंदिर हुआ करता था, जो अपनी सुंदरता के लिए विश्व विख्यात था। यह देश के सबसे बड़े मंदिरों में से एक था। लेकिन पिछले 100 से अधिक वर्ष से इस पर ताला जड़ा है। स्वतंत्रता के पहले से लेकर अब तक हिंदू समाज लगातार इस मंदिर में पूजा-पाठ का अधिकार मांगता आ रहा है, लेकिन इसे अनसुना किया जा रहा है।
सोमनाथ, अयोध्या और काशी के मंदिरों की भांति छठी सदी के इस मंदिर ने भी कई मुस्लिम आक्रांताओं के हमले झेले है। इसे जितनी बार नष्ट करने के प्रयास हुए, उतनी बार हिंदुओं ने इसे फिर से बनाया और अपने गौरवशाली अतीत को मिटने नहीं दिया। लेकिन अब इसकी पहचान पर ही संकट खड़ा हो गया है। पता नहीं कब सरकारी दस्तावेजों में बीजामंडल मंदिर को ‘बीजामंडल मस्जिद’ बना दिया गया! चालुक्य वंश के राजा कृष्ण के प्रधानमंत्री वाचस्पति ने विदिशा में सबसे पहले भिल्लस्वामीन (सूर्य) का विशाल मंदिर बनवाया था। इसी कारण प्राचीन काल में विदिशा का नाम भेलसा पड़ गया था। 10वीं या 11वीं सदी में परमार शासकों ने इसका पुनर्निर्माण कराया। बाद में इस मंदिर का नाम बीजामंडल पड़ गया।
मंदिर पर कब-कब हुए हमले
विजय मंदिर पर कई मुस्लिम आक्रांताओं ने हमले किए। सबसे पहले 1233-34 ई. में इल्तुतमिश ने इस मंदिर पर आक्रमण कर इसे तोड़ा और इसकी संपत्ति लूटी। उसने मंदिर ही नहीं, समूचे नगर को वीरान कर दिया। मंदिर में मौजूद प्रतिमाएं भी खंडित कर दीं। लेकिन 1250 ई. तक स्थानीय लोगों ने मंदिर का पुनर्निर्माण किया और इसके पूर्ण वैभव की पुन: जय-जयकार होने लगी। इसके बाद 1290 ई. में अलाउद्दीन खिलजी और उसके मंत्री मलिक काफूर ने इसे पूरी तरह नष्ट कर दिया और मंदिर की धन-संपदा लूट ली। अपनी पुस्तक ‘दशार्ण दर्शन’ में इतिहासकार निरंजन वर्मा लिखते हैं कि खिलजी अपने साथ 8 फीट ऊंची अष्ट धातु की मूर्ति भी ले गया और उसे खंडित कर दिल्ली स्थित किले के बदायूं दरवाजे की मस्जिद की सीढ़ियों में जड़ दिया ताकि उसे हर दीनदार के पैरों के नीचे कुचला जा सके।
अलबरूनी ने इस मंदिर की वास्तुकला की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि यहां बारह महीने यात्रियों का मेला लगा रहता था और मंदिर में दिन-रात पूजा-आरती होती थी। उसने इसे विशाल सूर्य का मंदिर बताया है। यह मंदिर इतना विशाल था कि इसके शिखर पर मौजूद कलश कई मील दूर से दिखते थे। वहीं, प्रसिद्ध इतिहासकार मिन्हाजुद्दीन लिखते हैं कि इस मंदिर का निर्माण लगभग 300 वर्ष पहले हुआ था, जो लभगभ वाचस्पति का काल है। मंदिर आधे मील में फैला हुआ था, जिसकी ऊंचाई 105 गज थी। अफसोस कि 1456-60 में एक बार फिर मांडू के शासक महमूद खिलजी ने न केवल इस मंदिर को, बल्कि पूरे भेलसा नगर और लोह्याद्रि पर्वत पर स्थित मंदिरों को भी तहस-नहस कर दिया।
बाकी कसर गुजरात के शासक बहादुरशाह ने पूरी कर दी। उसने 1532 में भेलसा पर हमला कर मंदिर को लगभग खंडहर बना दिया। बाद में हिंदुओं ने किसी तरह इसका जीर्णोद्धार कर इसके पुराने वैभव को स्थापित किया, लेकिन यह औरंगजेब की निगाह से नहीं बच सका। 1662 ई. में औरंगजेब ने इस भव्य उसको तोपों से उड़ा दिया। मंदिर का शिखर तोड़ दिया और मंदिर के अष्टकोणीय हिस्से को चिनवाकर उसे चतुष्कोणीय बना दिया। साथ ही, ऊपर दालान जैसी संरचना बनाकर उस पर दो मीनारें बनवा दीं और उसे मस्जिद का रूप दे दिया। वर्ष 2000 तक मंदिर के पार्श्व भाग में तोपों के 12 गोलों के निशान स्पष्ट दिखते थे।
औरंगजेब के मरने के बाद हिंदुओं ने मंदिर में मौजूद खंडित प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना शुरू कर दी। मंदिर के प्रांगण में भी देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के अवशेष बिखरे हुए थे। भोई आदि जातियों के हिंदुओं ने इसे माता का मंदिर समझा और भाजी-रोटी से उनकी पूजा करने लगे। 1760 ई. में पेशवा के भेलसा आगमन तक मंदिर पर मौजूद इस्लामी ढांचा नष्ट हो चुका था। कालांतर में यहां चर्चिका माता, महिषासुर मर्दिनी आदि देवियों की खंडित मूर्तियां, शिलालेख आदि मिले, जिसके कारण इसे चर्चिका देवी, विजया देवी, बीजासन देवी मंदिर कहा जाने लगा।
खजुराहो के मंदिरों से भी बड़ा
वर्तमान में इस मंदिर की तुलना यदि खजुराहो के मंदिरों से की जाए तो आकार में बीजामंडल उनसे भी बहुत बड़ा है। प्रतीत होता है कि यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की भांति भव्य और विशाल रहा होगा। इतिहासकारों का कहना है कि बीजामंडल के बाहरी दो द्वारों के चिह्न मिले हैं, जो मंदिर से लगभग 150-150 गज की दूरी पर स्थित हैं। मंदिर के उत्तरी छोर पर एक विशाल बावड़ी भी मिली है, जो पहले पूरी तरह ढकी हुई थी। इस बावड़ी के स्तंभों पर कृष्णलीला आदि की छवियां उत्कीर्णित हैं, जो संभवत: छठी सदी की हैं। हालांकि आक्रांताओं ने विजय मंदिर अर्थात् बीजामंडल में के शिलालेख तक नष्ट कर दिए थे, लेकिन कहीं-कहीं स्तंभों या अन्य पत्थरों पर अंकित कुछ लेख बच गए। ऐसे ही एक शिलालेख पर लिखा है-
इति महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नखदेवस्य निर्वाणान्त रायस्य परनारी सहोदरस्य चर्चिकाख्या समाख्याता देवी सर्व जन प्रिया। यस्या प्रसाद मात्रेण लेभे संसार योगिनां।।
अर्थात् महाराजाधिराज परमेश्वर नखदेव की मृत्यु के उपरान्त उनके सौतेले भाई की विख्यात और सर्वजनों की प्रिय चर्चिका देवी, जिनके प्रसाद मात्र से योगीजन लाभ अर्जित करते हैं।
विद्वानों का मानना है कि विजया मंदिर के टूटने और फिर से बनने के क्रम में राजाओं ने चर्चिका माता का विग्रह भी स्थापित किया होगा, जिनसे संबंधित शिलालेख मिले हैं। पंचायतन पूजन पद्धति आधारित इस मंदिर परिसर में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं और शिवलिंग भी बिखरे हुए मिले हैं, जिन्हें मुस्लिम आक्रांताओं ने खंडित कर दिया था। जैसा कि बताया जा चुका है कि विजय मंदिर अष्टकोणीय था, लेकिन इसके अष्टकोण भाग को पत्थरों से भरकर चतुष्कोणीय बना दिया गया। मंदिर के सामने विशाल यज्ञशाला और बाईं ओर बावड़ी व पिछले हिस्से में सरोवर था। मंदिर का आधा हिस्सा मलबे से ढका हुआ है। यहां के कीर्तिमुख विदिशा कला की विशेष उपलब्धि के रूप में विख्यात है। उत्खनन में मंदिर के दक्षिणी हिस्से के प्रमुख द्वार की विशाल चौखट मिली है, जिस पर शंख और कमल की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। द्वारपाल की मूर्तियां संभवत: नष्ट कर दी गई हैं। सामने स्थित चबूतरे के नीचे विशाल पत्थर मिले हैं, जिन पर देवी की छवि उत्कीर्ण हैं। आज भी मंदिर के आसपास स्थित किले के अंदर घरों व दीवारों में मूर्तियां दबी हुई मिलती हैं, जिन्हें सैकड़ों वर्ष पहले हिंदुओं ने आक्रांताओं से सुरक्षित रखने के लिए छिपाया होगा।
मुस्लिमों की जोर-जबरदस्ती
वैसे तो हिंदू लगातार इस मंदिर में पूजा करते रहे, लेकिन 1922 के आसपास वेत्रवती नदी में बाढ़ आई और ईदगाह डूब गया। ऊपर से लगातार बारिश भी हो रही थी, तो मुस्लिम नमाज पढ़ने ईदगाह नहीं जा सके। उन्होंने स्थानीय प्रशासन से अनुमति लेकर विजय मंदिर में नमाज पढ़ी। इसके बाद वे पुरानी ईदगाह को छोड़कर इस मंदिर में ही नमाज पढ़ने का दुराग्रह करने लगे। यही नहीं, उन्होंने समय-समय पर हिंदुओं को पूजा-पाठ करने से भी रोकना चाहा, लेकिन इसमें सफल नहीं हो सके। 1947 में जब पाकिस्तान बना, तब उस वर्ष शरद पूर्णिमा उत्सव मनाने पर मुसलमानों ने आपत्ति की थी। इसी के बाद हिंदुओं ने अपने मंदिर में नमाज पढ़े जाने का विरोध किया। लेकिन नेहरू सरकार ने उलटा हिंदुओं पर ही मंदिर में घुसने पर पाबंदी लगा दी। इसके सरकारें बदलती रहीं, पर उन्होंने मुसलमानों का ही पक्ष लिया। इससे उकता कर स्थानीय लोगों ने, जिसमें हिंदू और पढ़े-लिखे मुसलमान भी थे, जबरदस्त विरोध और सत्याग्रह शुरू किया। लेकिन शासन ईद पर कर्फ्यू लगाकर नमाज पढ़ने की अनुमति देता रहा। शासन सत्याग्रहियों को जेल भेजता रहा, लेकिन विदिशा के दृढ़प्रतिज्ञ निवासी हर वर्ष सत्याग्रह करते रहे।
इतिहासकार निरंजन वर्मा अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि कुछ वर्षों के बाद सत्याग्रह का स्वरूप देशव्यापी हो गया। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र और पंजाब से हिंदुओं के जत्थे पहुंचने लगे। अखिल भारती हिंदू महासभा के अध्यक्ष प्रो. राम सिंह ने भी अपने साथियों के साथ सत्याग्रह किया और अन्य लोगों की तरह उन्हें भी सजा हुई। महिला सत्याग्रही भी पीछे नहीं थीं। नरवदी बाई मुखरैया के नेतृत्व में महिलाओं का एक बड़ा जत्था सत्याग्रह में शामिल हुआ। लेकिन शासन ने उन्हें कुरवाई जेल भेज दिया। जेल में एक जेलर ने महिलाओं के सौभाग्य चिह्न भी उतरवाने की धृष्टता की, जिसके कारण लोगों का क्रोध और भड़क गया।
पीपलखेड़ा, सुल्तानिया, थान्नेर, कोठी, सांकलखेड़ा, सतपाड़ा, खामखेड़ा, विदिशा सिरोंज आदि के जमींदारों और कृषकों ने भी सत्याग्रह किया। इसके अलावा, दिल्ली, प्रयाग, झांसी, ललितपुर, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, वासौदा, कुरवाई, खाचरोद, धार, उज्जैन, इंदौर, भोपाल, सीहोर, रायसेन, सिरोंज, लेटीरी आदि स्थानों से भी जत्थे आए। इस प्रकार, 1948 से 1964 तक यह सत्याग्रह अबाध चलता रहा। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया और लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। उसी समय द्वारिका प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और गोपाल रेड्डी राज्यपाल नियुक्त हुए।
इन सबने इस मंदिर को शासकीय संपत्ति घोषित कर वहां मुसलमानों के नमाज पढ़ने पर रोक लगा दी। मुसलमानों को ईदगाह के लिए सांची रोड पर जमीन और 40,000 रुपये दिए गए, जिससे नई ईदगाह बनी। इस प्रकार मुसलमानों को नमाज पढ़ने के लिए तो जगह मिल गई, लेकिन हिंदुओं को मंदिर में पूजा करने का अधिकार नहीं दिया गया। अब यह मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। एएसआई ने मंदिर को ‘नॉन लिविंग मॉन्युमेंट’ की सूची में डाल कर पूजा बंद करवा दी है। हिंदू वर्ष में सिर्फ एक दिन नागपंचमी पर बंद ताले की ही पूजा करके लौट जाते हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी दस्तावेजों में बीजामंडल आज भी मंदिर नहीं, बल्कि मस्जिद के रूप में दर्ज है। यह हिंदुओं के साथ छल नहीं तो और क्या है? लंबे आंदोलन के बावजूद हिंदुओं को न तो पूजा-पाठ की अनुमति दी गई और न ही मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, एएसआई ने इसे पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की है। प्रश्न यह है कि यदि एएसआई के दस्तावेजों में बीजामंडल मस्जिद के रूप में दर्ज है तो क्या पर्यटकों को इसका इस्लामी इतिहास बताया जाएगा? क्या इससे हिंदुओं की भावनाएं आहत नहीं होंगी? देश को दस दिशाओं से जोड़ने वाला विदिशा ऐतिहासिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। यहां की बावड़ी और मंदिरों से जो प्रमाण मिले हैं, वे किस काल के हैं? उनका विदिशा और अन्य स्थानों से क्या संबंध है? क्या इससे भारत के अतीत और प्राचीन ज्ञान परंपरा को जानने में मदद नहीं मिलेगी? इसलिए बेहतर है कि हंदुस्थान के गौरव और हिंदू आस्था के प्रतीक बीजामंडल का जीर्णोद्धार कर इसे पुन: स्थापित किया जाए।
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