बांग्लादेश से आ रहे समाचार व्यथित करने वाले हैं। वहां जनता द्वारा बहुमत से चुनी गई शेख हसीना सरकार को जिस तरह से सत्ता छोड़ने को मजबूर होना पड़ा और निवर्तमान प्रधानमंत्री हसीना पर देश छोड़ने का दबाव बनाया गया, वह असाधारण था। लेकिन इसके पीछे वजह क्या सिर्फ छात्रों का ‘कोटा विरोधी आंदोलन’ था? इस प्रकरण के पीछे कुछ अदृश्य ताकतें सक्रिय दिखती हैं। वही ताकतें जो किसी विकासोन्मुख देश में अराजकता फैलाकर अपना स्वार्थ पूरा करती रही हैं। शेख हसीना वर्तमान में उस देश की एकमात्र तरक्कीपसंद नेता थीं। लेकिन उनका ऐसा होना ही उन ताकतों को बर्दाश्त न था
बांग्लादेश आज जिस बदहाली और अराजकता की स्थिति में जा पहुंचा है वह असाधारण है और दुनिया के इस हिस्से में एक बहुत बड़ी घटना है। बात सिर्फ सरकारी नौकरियों में ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ के परिजनों का कोटा बहाल करने के विरोध में गत जून में शुरू हुए छात्र आंदोलन तक सीमित नहीं है। बात सिर्फ न्यायालय द्वारा सरकारी नौकरियों में कुल 56 प्रतिशत कोटे को घटाने और उस पर निवर्तमान हसीना सरकार की ना—नुकुर तक भी सीमित नहीं है। बांग्लादेश में मौजूदा अराजकता, सैन्य अथवा अंतरिम सरकार की बहाली की घोषणाओं, ‘छात्रों’ द्वारा जीत के जश्न में प्रधानमंत्री आवास ‘गण भवन’ में जा घुसने और डकैतों जैसी लूटपाट मचाने और हिन्दुओं पर कहर ढाए जाने के दृश्य किसी भी सभ्य समाज को विचलित करने वाले हैं।
लेकिन आज वहां यह स्थिति बनी है तो क्यों बनी है? इस सवाल के कुछ आयाम तो 5 अगस्त शाम से इन पंक्तियों को लिखे जाते वक्त तक की विभिन्न टीवी बहसों और सुर्खियों में सामने आ चुके हैं। लेकिन क्या वजह वही हैं जो सामने दिखती हैं या सूत्रधार कोई और है, जो पर्दे के पीछे से सब संचालित अथवा निर्देशित कर रहा है? इस संबंध में चीन और उसके पिट्ठू देश पाकिस्तान की क्या कोई भूमिका दिखाई देती है? प्रत्यक्षत: तो नहीं। लेकिन कूटनीति या इन दो देशों के संदर्भ में कहें तो ‘कुटिलनीति’ की चाल तिरछी और छिपी होती है।
बांग्लादेश में श्रद्धा स्थानों पर हमले असहनीय: होसबाले
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने बांग्लादेश में हिंदुओं, बौद्ध और वहां अन्य अल्पसंख्यकों के साथ हो रही हिंसा पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा, ” विगत कुछ दिनों से बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के आंदोलन के दौरान हिंदू, बौद्ध तथा वहां के अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हो रही हिंसा की घटनाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गंभीर चिंता व्यक्त करता है।”
उन्होंने कहा, ”बांग्लादेश में हिंदू तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की लक्षित हत्या, लूटपाट, आगजनी, महिलाओं के साथ जघन्य अपराध तथा मंदिर जैसे श्रद्धास्थानों पर हमले जैसी क्रूरता असहनीय है। रा. स्व.संघ इसकी घोर निंदा करता है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से अपेक्षा है कि वह तुरंत सख़्ती से ऐसी घटनाओं पर रोक लगाए और पीड़ितों के जान, माल व मान के रक्षा की समुचित व्यवस्था करे। इस गंभीर समय में विश्व समुदाय तथा भारत के सभी राजनीतिक दलों से भी अनुरोध है कि बांग्लादेश में प्रताड़ना के शिकार बने हिंदू, बौद्ध इत्यादि समुदायों के साथ एकजुट होकर खड़े हों। बांग्लादेश की परिस्थिति में एक पड़ोसी मित्र देश के नाते सुयोग्य भूमिका निभाने का प्रयास कर रही भारत सरकार से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आग्रह करता है कि बांग्लादेश में हिंदू, बौद्ध आदि लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु हरसंभव प्रयास करे।”
खालिदा और जमाते इस्लामी
पहली बात, निवर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना की प्रतिद्वंद्वी पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया कट्टर मजहबी मानी जाती हैं यानी कठमुल्ला नीति की पैरोकार रही हैं। शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी ने जनवरी 2024 के आम चुनावों में कुल 300 में से 225 सीटें जीतकर जनता का अभूतपूर्व समर्थन पाया था। खालिदा की पार्र्टी बीएनपी और उसकी सहयोगी धुर मजहबी कट्टरपंथी जमाते इस्लामी ने चुनावों का बहिष्कार किया था। क्यों? वहां के राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, दोनों पार्टियां बड़े पैमाने पर चुनावी हिंसा और धांधली में लिप्त पाई गई थीं और इस पर शेख हसीना ने सख्ती बरती थी।
दूसरी बात, जबरदस्त बहुमत पाकर मात्र छह महीने पहले ही सरकार बनाने वाली शेख हसीना के विरुद्ध क्या यह ‘छात्र आंदोलन’ वास्तव में वही था जैसा दिखाया गया? संभवत: नहीं। कारण? हसीना का पुख्ता तरीके से सत्ता में आना उस पिछड़े, गरीब देश में विकास की नई संभावनाएं सामने लाता जा रहा था। 1971 में भारत की भरपूर मदद से, पाकिस्तान से टूटकर बने उस देश का तरक्की की राह पर बढ़ना पाकिस्तानी मुल्लावादी हुक्मरानों को रास कैसे आ सकता था, जो गत 3 दशक से तिलमिलाए बैठे हैं!
इस बीच 10 जुलाई को शेख हसीना बतौर प्रधानमत्री 5 दिन के चीन दौरे पर गई थीं। वही चीन जो वक्त-बेवक्त कंगाल पाकिस्तान को कर्जा देकर उसकी रोजी-रोटी चलाए हुए है और बदले में पाकिस्तान जिसके लिए हर हुक्म बजा लाने को तैयार रहता है। हसीना के बीजिंग दौरे के दौरान चीन ने बांग्लादेश के साथ विभिन्न क्षेत्रों में 21 द्विपक्षीय करार किए। हसीना कई वरिष्ठ नेताओं से मिलीं, लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी भेंट उतनी विस्तार से नहीं कराई गई, जिसकी उन्हें उम्मीद थी। दूसरे, ढाका से जाने से पहले इस बात पर कथित सहमति बनी थी कि चीन बांग्लादेश को 5 अरब डॉलर का कर्ज देगा, लेकिन बीजिंग में हसीना से कहा गया कि कर्ज सिर्फ 10 करोड़ डॉलर का मिलेगा। चीन के विदेश मंत्री उनसे मिलने नहीं आए, न ही सरकारी मीडिया ने उनको अपेक्षित महत्व दिया। उनके प्रोटोकॉल में कोताही बरती गई। जाने या अनजाने, कौन जाने!
चीन से नाराज थीं हसीना
ऐसे में शेख हसीना का नाराज होना स्वाभाविक था इसलिए वे तय पांच दिन ठहरने की बजाय चौथे दिन यानी 10 जुलाई को ही ढाका लौट आईं। उनके जल्दी लौटने की वजह उनकी बेटी का बीमार होना बताया गया। खैर, ढाका लौटते ही उन्होंने तीस्ता परियोजना के लिए भारत से सहयोग का करार किया और चीन को इस काम में ठेंगा दिखा दिया क्योंकि बीजिंग की पूरी कोशिश थी कि भारत के पड़ोस में वह उस महत्वपूर्ण परियोजना पर वह काम करे। बीजिंग तिलमिलाया होगा, लेकिन प्रत्यक्षत: उसने ‘दौरा बेहद सफल रहा’ जैसे ट्वीट किए। संभवत: जिनपिंग हसीना के इस रवैए का सटीक जवाब देने का मौका तलाशने
लगे हों!
कूटनीति और चीन की ‘कुटिलनीति’ के कुछ विशेषज्ञों की राय है कि चीन ने पहले से बांग्लादेश और भारत की नजदीकी से चिढ़े पाकिस्तान को थोड़ा कुरेदा होगा कि शायद बांग्लादेश को संतुलित करने का वहां से कोई तरीका निकले। पाकिस्तान और उसकी सैन्य गुप्तचर संस्था आईएसआई दूसरे देशों में शैतानी चालें चलने के लिए कुख्यात हैं ही। उधर बांग्लादेश में खालिदा की बीएनपी और कट्टर जमाते इस्लामी शेख हसीना की चुनावी जीत से चिढ़ी बैठी ही थीं। आईएसआई को अपना एजेंडा पूरा करने के लिए हस्तक मिलने में शायद उतनी कठिनाई न आई हो।
कोटे को लेकर हसीना सरकार उन स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों के प्रति नरम थीं, जिन्होंने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान की पश्चिमी पाकिस्तान से मुक्ति और तत्पश्चात बांग्लादेश के गठन में ‘मुक्ति बाहिनी’ के तौर पर संघर्ष में भाग लिया था। उसी संघर्ष में ‘मुक्ति बाहिनी’ के प्रतिरोधी और पाकिस्तान की बलात्कारी व आतताई फौज का साथ देने के लिए ‘रजाकार’ लड़ाके खड़े किए गए। कट्टर मजहबी उन्मादी 30—40 हजार रजाकार पाकिस्तान के क्रूर जनरल टिक्का खां ने जुटाए थे जिनका एक ही मकसद था, मुक्ति बाहिनी से लड़ना और पूर्वी पाकिस्तान के मूल बंगालियों पर पैशाचिक अत्याचार करना। इन्हीं रजाकारों की कथित संतानों की पार्टी कही जाती है जमाते इस्लामी।
यूनुस ने ली शपथ
आठ अगस्त की देर शाम नोबुल पुरस्कार विजेता 84 वर्षीय मोहम्मद यूनुस ने बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख के नाते शपथ ली। 5 अगस्त को शेख हसीना के त्यागपत्र के बाद आंदोलनकारी छात्रों की मांग पर सेना ने यूनुस को मुखिया बनाया है। यूनुस ने संविधान को बनाए रखने और उसकी रक्षा करने का वचन दिया। यूनुस के साथ ही 13 अन्य अतिरिक्त सलाहकारों को राष्टÑपति शहाबुद्दीन ने शपथ दिलाई।
हाथ तीसरी ताकत का
यहां थोड़ा पलटकर पिछले दिनों आई एक महत्वपूर्ण खबर पर ध्यान दें। भारत के पूर्व विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला का बयान आया था। उन्होंने कहा था कि बांग्लादेश में चल रहे ‘छात्र आंदोलन’ में जमाते इस्लामी के माध्यम से पाकिस्तान यानी आईएसआई का हाथ हो सकता है। 2016 से 2019 तक ढाका में भारत के उच्चायुक्त रहे श्रृंगला ने यूक्रेन युद्ध की वजह से बांग्लादेश में लंबे समय से कीमतों में उछाल के कारण सुलग रहे असंतोष को भी आग में कैरोसीन के जैसा बताया था। और सिर्फ हर्ष ने ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी बहुतों ने दावा किया है कि बांग्लादेश का दुखद घटनाक्रम विदेशी ताकतों का किया-धरा हो सकता है।
यानी हैरानी की बात है कि देखते ही देखते ‘कोटे’ के विरुद्ध उभरा ‘आक्रोश’ अपना मुखौटा बदलकर 4-5 अगस्त को अचानक ‘शेख हसीना हटाओ’ आंदोलन बन गया! कोटा तो पीछे रह गया, हसीना को हटाना पहला मिशन बन गया। सेना का मुखिया संभवत: पहले ही एजेंडा तय किए बैठा था। पाकिस्तान से आईएसआई ने भारत से संबंधों और हिन्दुओं की कट्टर विरोधी जमाते इस्लामी से कथित सौदा किया, उसकी कीमत की भरपाई की, उधर जमात की छात्र इकाई ने अगुआई की और ‘आंदोलन’ की दिशा मोड़ दी। शेख हसीना को कभी उनके भरोसेमंद सेना प्रमुख रहे जनरल वकारुज्जमां ने सिर्फ 45 मिनट का समय दिया, इस्तीफा देकर देश छोड़ जाने का!
क्या साजिश में अमेरिका और सोरोस भी?
बांग्लादेश में हुए या कराए गए इस तख्तापलट में अमेरिका और उसकी गुप्तचर संस्था सीआईए का भी हाथ होने के कई प्रत्यक्ष कारण हैं। गत जनवरी में बांग्लादेश में हुए आम चुनावों में अमेरिकी दखल की कोशिश दिखी थी। खुद शेख हसीना ने इसे उजागर किया था। तबसे सीआईए पर्दे के पीछे से बांग्लादेश के विपक्ष के साथ खड़ी थी। अमेरिकी दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में दखल देना अपना हक समझते हैं। इतिहास बताता है कि अमेरिका शुरू से ही तानाशाही तत्र के साथ कारोबार करने में सहूलियत महसूस करता रहा है। खुद को मानवाधिकारों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाला अमेरिकी सत्ता अधिष्ठान दूसरे देशों में मानवाधिकार के मामलों की ओर से मुंह मोड़े रखता है। इसमें संदेह नहीं कि बांग्लादेश की निवर्तमान प्रधानमत्री शेख हसीना वहां एक सुलझी और देशहित की सोचने वाली संभवत: एकमात्र नेता थीं।
5 अगस्त के बाद से हिंदुओं के घरों में जबरन घुसकर मारपीट करना, लड़कियों को उठा ले जाना और मंदिरों को जलाना क्या ‘सत्ता विरोधी क्रांति’ की किसी भी परिभाषा में फिट बैठता है? दक्षिण अमेरिका में सत्ता परिवर्तन (वतर्मान में वेनेजुएला) और यूक्रेन जैसी तमाम तरह के रंगों की ‘क्रांतियों’ की बात करें, तो बांग्लादेश में ‘तख्तापलट’ के पीछे बेशक जॉर्ज सोरोस जैसे अरबपतियों के पैसे और सीआईए की रणनीति का घातक मेल दिखाई देता है। बांग्लादेश में चुनाव नतीजों के विरोध में प्रदर्शनों को भड़काकर, उसमें चुनाव में हारे कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों को जोड़कर आगे किया गया और बाद में शायद सीआईए ने उसे हवा देने का काम किया। यहां सवाल उठता है कि अमेरिका का मकसद क्या भारत के लिए दिक्कतें खड़ी करना है? यह सवाल महत्वपूर्ण है, विशेषकर यह देखते हुए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक उसी दौरान मॉस्को दौरे का कार्यक्रम बनाया था जब वाशिंगटन में अमेरिकी नेता नाटो की 75वीं सालगिरह का जश्न मना रहे थे।
लेफ्ट-लिबरलों के आका अरबपति जॉर्ज सोरोस की सोच मोदी विरोधी है, यह कोई छुपा तथ्य नहीं है। उधर सीआईए अपनी टूलकिट तैयार कर रही होगी। इधर, भारत में ऐसे देशविरोधी तत्वों की कमी नहीं है जो मोदी विरोध के मद में देशविरोध की सीमा तक गिर चुके हैं। तथाकथित किसान और दूसरे आंदोलनजीवी तत्व सीआईए का हस्तक बनने में देर नहीं लगाएंंगे। बांग्लादेश प्रकरण से ऐसी ताकतों को ईंधन जरूर मिला है, यह उन तत्वों की सोशल मीडिया पोस्ट से साफ पता चलता है जो ‘क्रांति की सफलता’ का जश्न मना रहे हैं।
5 अगस्त की शाम शेख हसीना दिल्ली आ पहुंचीं। सैन्य हवाई अड्डा हिंडन सरगर्मी का केन्द्र बन गया। राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल हवाई अड्डे जाकर हसीना से मिले और उनकी सुरक्षा के इंतजाम किए। इधर संसद सत्र के दौरान विदेश मंत्री जयशंकर ने बयान दिया, बताया कि बांग्लादेश में कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के ऊपर कैसा कहर बरपाया जा रहा है। बांग्लादेश के 27 जिलों में हिन्दुओं के घरों, दुकानों पर हमले बोले गए, अपुष्ट समाचारों के अनुसार कई हिन्दुओं की हत्या की गई। कट्टर मजहबी उन्मादियों ने हिन्दुओं के घरों में जबरन घुसकर महिलाओं से अभद्रता की सीमाएं तोड़ीं। मंदिर जलाए।
नोतून काली मंदिर के अहाते से उठतीं आग की लपटों के दृश्य अंदर तक हिला गए। इसी दिन बांग्लादेश की राजधानी ढाका में प्रधानमंत्री आवास से हैरान करने वाली तस्वीरें आ रही थीं। जो वहां लूटपाट कर रहे थे, पलंग पर पसरे थे, कपड़े चुरा रहे थे, कुर्सियों पर ठसक से बैठे हुए थे और जो मुख्य चौराहे पर बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की धातु की प्रतिमा को कुल्हाड़ी से, बुलडोजर से तोड़ रहे थे, क्या वे सच में देश से प्यार करने वाले बांग्लादेशी ही थे? हो ही नहीं सकते। कोई असल बांग्लादेशी क्या उन शेख मुजीब की प्रतिमा को इस तरह अपमानित करने की जुर्रत कर सकता है जिन्होंने इस देश को आतताई पाकिस्तानी चंगुल से आजाद कराने में खास भूमिका निभाई, इसका गठन किया और लोकतंत्र का राज कायम किया?
एक बात और, भारत विरोधी दुर्भावनाएं पाले चीन और उसका पिट्ठू देश पाकिस्तान जानते हैं कि बांग्लादेश में शांति—व्यवस्था भारत के सुरक्षा हितों की दृष्टि से कितनी अहम है। वे जानते हैं कि शेख हसीना को अपदस्थ करके, खालिदा या सेना की अंतरिम सरकार बनवाकर उसके माध्यम से उस देश को भारत से दूर किया जा सकता है और फिर वहां खुलकर कट्टरपंथ को अराजकता फैलाने दी जा सकती है। इसमें चीन अकूत पैसा झोंकने से पीछे नहीं हटेगा तो जिन्ना का देश कुटिल चाल
चलने से।
‘बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित हो’
बांग्लादेश में तख्तापलट से उपजी अराजकता की आड़ में मजहबी उन्मादी तत्व जिस प्रकार से हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर अत्याचार कर रहे हैं, उसके संबंध में विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार द्वारा 6 जुलाई को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है-
हमारा पड़ोसी देश, बांग्लादेश एक विचित्र अनिश्चितता, हिंसा और अराजकता में फंसा हुआ है। संकट की इस घड़ी में भारत बांग्लादेश के समस्त समाज के साथ एक मित्र के नाते मजबूती से खड़ा है। बांग्लादेश में पिछले कुछ समय में हिन्दू, सिख व अन्य अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और घरों को भी नुकसान पहुंचाया गया है। 5 जुलाई की रात तक, अकेले पंचगढ़ जिले में 22 घर, झीनैदाह में 20 घर व जैसोर में 22 दुकानें कट्टरपंथियों का निशाना बनीं। कई जिलों में श्मशान तक तोड़ दिए गए। मंदिर और गुरुद्वारों को भी क्षति पहुंचाई गयी। बांग्लादेश में शायद ही कोई जिला बचा हो जो कट्टरपंथियों की हिंसा व आतंक का निशाना न बना हो। यहां यह ध्यान दिलाना उचित होगा कि बांग्लादेश में हिंदू कभी 32 प्रतिशत होते थे, अब वे 8 प्रतिशत से भी कम बचे हैं और लगातार जिहादी उत्पीड़न सह रहे हैं।
बांग्लादेश में हिंदुओं के घर, मकान, दुकान, आफिस, व्यावसायिक प्रतिष्ठान व महिलाएं, बच्चे व उनकी आस्था-विश्वास के केंद्र मन्दिर व गुरुद्वारे तक सुरक्षित नहीं हैं। पीड़ित अल्पसंख्यकों की हालत बदतर होती जा रही है। यह स्थिति चिंतनीय है। ऐसे में विश्व समुदाय की यह जिम्मेदारी है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए वह प्रभावी कार्यवाही करे। निश्चित ही भारत इस परिस्थिति में आंखें मूंद कर नहीं रह सकता।
भारत ने परंपरा से ही विश्वभर के उत्पीड़ित समाजों की सहायता की है। विश्व हिन्दू परिषद भारत सरकार से आग्रह करती है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हरसंभव कदम उठाए। संभव है कि इस परिस्थिति का लाभ उठाकर सीमा पार से घुसपैठ का एक बड़ा प्रयत्न किया जाए। इससे सतर्क रहना होगा। हमारी कामना है कि बांग्लादेश में जल्दी से जल्दी लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष सरकार पुन: स्थापित हो। वहां के समाज को मानवाधिकार मिलें और बांग्लादेश की निरंतर हो रही आर्थिक प्रगति में कोई बाधा न आये। भारत का समाज और सरकार इस विषय में निरंतर बांग्लादेश के सहयोगी बने रहेंगे।
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