जैसे-जैसे आजादी का जिक्र होने लगा, हमारे यहां काम करने वाले मुस्लिम नौकरों के मन में भी खोट आने लगा। हमारे शहर में ज्यादातर नौकर-चाकर मुसलमान हुआ करते थे। माहौल बिगड़ने लगा तो पहले हमने घर की महिलाओं को श्रीनगर के रास्ते जम्मू पहुंचाया ताकि वे महफूज हो सकें।
चरणजीत कपूर
एबटाबाद (पाकिस्तान)
मैं अविभाजित भारत के एबटाबाद में रहता था। मेरे पिता का नाम हुकुम चंद कपूर था। एबटाबाद में उनका जंगलात की लकड़ी और आलू व गुड़ का कारोबार था। पहले हमारे आसपास रहने वाले मुसलमान मिलकर रहते थे, लेकिन जैसे-जैसे आजादी का जिक्र होने लगा, हमारे यहां काम करने वाले मुस्लिम नौकरों के मन में भी खोट आने लगा। हमारे शहर में ज्यादातर नौकर-चाकर मुसलमान हुआ करते थे।
माहौल बिगड़ने लगा तो पहले हमने घर की महिलाओं को श्रीनगर के रास्ते जम्मू पहुंचाया ताकि वे महफूज हो सकें। शाम होते ही अल्लाह हो अकबर के नारों का शोर सुनाई देता था। जो कारिंदे हमारे यहां काम करते थे, वे भी उस शोर में, उस भीड़ में शामिल रहते थे।
एक दिन उन्होंने कहा कि आप भी निकल जाओ, हम कारोबार देख लेंगे। कुछ दिनों में हालात ठीक हो जाएंगे तो आप वापस आ जाना। उस समय तक हमें बिल्कुल भी अंदेशा नहीं था कि यह बंटवारा मजहबी आधार पर हो रहा है। जब शहर में आगजनी होने लगी, हिंदुओं की दुकानें और घर लूटे जाने लगे तो हमें भी चिंता हुई।
सेना के जवान हमें छावनी में ले आए। हम दो दिन वहां रहे। फिर हमें अमृतसर छोड़ दिया गया। हमने जो मंजर रास्ते में देखा वह आज तक नहीं भूला है। तमाम सड़कें खून से लथपथ थीं। जहां तक देखो, लाशें ही लाशें नजर आती थीं। वह सब बेहद खौफनाक था।
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