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… और लकीर खिंच गई

अंग्रेजों को इस बात का एहसास था कि उन्हें एक न एक दिन भारत छोड़कर जाना होगा, लेकिन वे ‘अखंड भारत’ छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। ‘अखंड भारत’ का अर्थ था-एशिया में एक ऐसे देश का उदय, जो जल्दी ही एक विश्व शक्ति बन जाता।

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Aug 14, 2024, 09:51 am IST
in भारत, विश्लेषण, जम्‍मू एवं कश्‍मीर
1947 में विभाजन के समय जान बचाकर भारत आते हिंदू

1947 में विभाजन के समय जान बचाकर भारत आते हिंदू

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अंग्रेजों को पता था कि भारत अखंड रह गया तो वह एशिया में एक महाशक्ति बन जाएगा। इसलिए उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना और नेहरू की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के जरिए भारत के बंटवारे की रूपरेखा तैयार की

अंग्रेजों को इस बात का एहसास था कि उन्हें एक न एक दिन भारत छोड़कर जाना होगा, लेकिन वे ‘अखंड भारत’ छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। ‘अखंड भारत’ का अर्थ था-एशिया में एक ऐसे देश का उदय, जो जल्दी ही एक विश्व शक्ति बन जाता। यह ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हितों के विरुद्ध तो था ही, उसे अपने व्यापारिक, व्यावसायिक हितों का भी संरक्षण करना था। अंग्रेज भारत में व्यापार-व्यवसाय के लिए ही आए थे और अपनी कूटचालों, साम, दाम, दंड, भेद नीति द्वारा यहां के मालिक बन बैठे। ऐसी कौम से यह उम्मीद करना व्यर्थ था कि वे शराफत से भारत को सही-सलामत छोड़कर चले जाएंगे।

पाकिस्तान की भविष्यवाणी

बलबीर दत्त
वरिष्ठ पत्रकार

भारत के स्वाधीनता आंदोलन और विश्व की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण भारत धीरे-धीरे अंग्रेजों के हाथ से फिसलने लगा था। द्वितीय विश्वयुद्ध से कुछ पहले ही परिस्थितियां नया मोड़ लेने लगी थीं। 1935 में ब्रिटिश सरकार को प्रांतों में स्वायत्तता के लिए कुछ नए अधिकार देने पड़े, जिसके लिए गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 बनाया गया। दिलचस्प बात यह कि इससे कोई साल भर पहले ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी के कट्टर भारत-विरोधी नेता विंस्टन चर्चिल ने 23 फरवरी, 1934 को ही एक भारतीय नेता डॉ. एम.आर. जयकर को कहा था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को अपने पड़ोसियों से युद्ध लड़ना पड़ेगा।

यह पूछे जाने पर कि भारत का पड़ोसी कौन होगा, चर्चिल ने जवाब देने से इनकार कर दिया, लेकिन भविष्यवाणी की कि क्लीमेंट एटली के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत स्वतंत्र हो जाएगा। 28 फरवरी, 1955 को पुणे में पुणे विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. एम.आर. जयकर ने इस घटना का उल्लेख करते हुए बताया कि उन्होंने इसका जिक्र मुहम्मद अली जिन्ना और जफरुल्ला खान से किया था। डॉ. जयकर ने कहा कि ताज्जुब की बात है कि चर्चिल की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और भारत का पड़ोसी कोई अन्य देश नहीं ‘पाकिस्तान’ हुआ, जिसे जिन्ना के जरिए अस्तित्व में लाया गया।

जिन्ना ने शुक्रिया अदा किया

खान अब्दुल गफ्फार खान के पुत्र पख्तून नेता वली खान ने भारत-विभाजन संबंधी अपनी पुस्तक ‘भारत-विभाजन की अनकही कहानी’ में लिखा है, ‘‘जब मुस्लिम लीग ने अंग्रेजी सियासत का मददगार बनना कबूल किया, तो अंग्रेज सरकार ने बदले में सारे मुसलमानों को मुस्लिम लीग के झंडे के नीचे लाने के लिए कमर कस ली।’’ 5 अक्तूबर, 1939 को वायसरॉय ने लिखा था, ‘‘उस (जिन्ना) ने बड़े तहेदिल से मेरा शुक्रिया अदा किया कि उनकी पार्टी को इकट्ठा रखने में मैंने उनकी सच्चे दिल से मदद की है।’’ वली खान लिखते हैं, ‘‘पार्टी तो जिन्ना की थी, मगर इसे इकट्ठा बनाए रखने की जिम्मेवारी वायसरॉय निभा रहा था। इसी वायसरॉय ने यह भी कहा था कि जिन्ना को अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मुसलमानों पर ज्यादतियों के खिलाफ हजारों सख्त शिकायतें थीं। मुझे इल्म है कि कोई ज्यादती नहीं हुई है। वाकया यह है कि मैंने उससे कहा कि शायद यह ख्याल मुस्लिम लीग के अपने मतांध रवैये का नतीजा हो सकता है। इस पर जिन्ना ने जवाब दिया था कि एक ज्यादती तो फ्रंटियर प्रांत की सरकार की यह थी कि उसने हुक्मनामा निकालकर हिंदी को सभी सरकारी स्कूलों में लाजिमी कर दिया था।’’ वली कहते हैं कि जिन्ना के इस बयान में एक जर्रा भी सचाई नहीं थी। उसे अपनी शिकायत का सबूत देने के लिए सिर खुजलाना पड़ा और आखिर उसने जो मिसाल दी, वह तो सिर्फ काबिले मखौल ही थी। हुआ यह था कि फ्रंटियर प्रांत में ‘लाजिमी जुबान’ जरूर ऐलान की गई थी, मगर वो ‘पश्तो’ थी। शायद जिन्ना, जो असली हिंदुस्थान से कतई नावाकिफ थे, ‘पश्तो’ और ‘हिंदी’ का फर्क भी नहीं समझ सकते थे। बताइए, अब हमें क्या करना है

अंग्रेजों के इरादे इसी हरकत से स्पष्ट होने लगे थे। वली खान ने लिखते हैं, ‘‘अंग्रेजों को सिर्फ इतने से ही तसल्ली नहीं थी कि मुस्लिम लीग कांग्रेस की हर बात के जवाब में ‘न’ कहती जाए। वे चाहते थे कि वे अपनी कुछ सीधी मांगें भी रखें। जिन्ना 20 जनवरी, 1940 को वायसरॉय से मिले तो इस जुमले से शुरुआत की कि बताइए, अब ‘हमें’ क्या करना है। ‘हमें’ से उनका मतलब था ‘हम मुस्लिम लीग वालों को।’

जफरुल्ला खान की चिंता

जिन्ना और वायसरॉय इस पर हमराय बने कि ‘पॉजिटिव पॉलिसी’ तो सिर्फ यही हो सकती है कि लीग पाकिस्तान की मांग रखे। वायसरॉय ने 22 मार्च, 1940 को सेक्रेटरी आफ स्टेट (ब्रिटिश सरकार में भारतीय मामलों के मंत्री) को खबर दी, ‘‘मेरी हिदायतों के अनुसार जफरुल्ला खान ने इस मजमून पर एक मेमोरेंडम तैयार किया है- दो डोमीनियन स्टेट्स (भारत और पाकिस्तान) का। मैंने उसे और साफ करने के लिए कहा है और उसका शुक्रिया अदा किया है कि उसने इसका वायदा निभाया, मगर वह इसके वास्ते बड़ा फिक्रमंद था कि किसी को कानों-कान खबर न हो कि मसविदा उसने तैयार किया है।’’

बात दरअसल यह है कि जफरुल्ला खान कादियानी था। कादियानी मुसलमानों का एक बगावती फिरका है, जिसे 19वीं सदी में पंजाब में अंग्रेजों ने तरजीह देकर अपना समर्थक बनाया था। ये दो डोमीनियन वाला मसला मुस्लिम लीग की बैठक में मंजूर हो गया और 23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में ‘पाकिस्तान रिजॉल्यूशन’ के नाम से पास कर दिया गया। इस तरह स्पष्ट है कि जिन्ना न केवल अंग्रेजों के हाथ में खेल रहे थे, बल्कि उनकी कठपुतली बने हुए थे। मई, 1940 में जब 100 से अधिक आजाद मुसलमान (जिनका मुस्लिम लीग से कोई ताल्लुक नहीं था) वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो से मिले और एक मुनासिब लाइन अख्तियार की, तो वायसरॉय ने उनको मानने से इनकार कर दिया।

वायसरॉय से झड़प

अंग्रेजों ने अपनी ही शर्तों पर जिन्ना को मुसलमानों का ‘एकमात्र नुमाइंदा’ मानने का फैसला कर लिया था। सिंध के मुख्यमंत्री और वायसरॉय की ‘डिफेंस काउंसिल’ के सदस्य अल्लाह बख्श खुसरो के नेतृत्व में राष्ट्रवादी मुसलमान फिर से 1941 में दिल्ली में मिले। उन्होंने कुछ प्रस्ताव दिए और जवाहरलाल नेहरू तथा मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की रिहाई की मांग की, मगर वायसरॉय ने उससे बात करने से इनकार कर दिया। 11 अक्तूबर, 1941 को वायसरॉय ने इस मामले में हुई झड़प का हवाला इन लफ्जों में दिया, ‘‘उसने मुझसे पूछा कि आपका जवाब मुझे कब मिलेगा? मैंने कहा, आपको कोई जवाब नहीं मिलेगा। आप मेरे सलाहकार नहीं हैं, सिंध के वजीरे आला हैं। मेरा कोई इरादा नहीं है कि मैं आपको बताऊं कि मैं अपने मामलों को किस तरह निबटाऊंगा और मेरा ख्याल है कि यह बात आपकी समझ में आ सकती है।’’

वली खान लिखते हैं, ‘‘यह अजीबोगरीब बात है कि वायसरॉय ने अपनी ‘डिफेंस काउंसिल’ के एक सदस्य को अपनी पेशकशों का फैसला देने से इनकार कर दिया था। दूसरी तरफ, वह सारे कौमी और सियासी मामलों पर मुस्लिम लीग के लोगों से सलाह-मशविरा करता रहा। एक कौमी नेता से उसका बातचीत का तरीका भी बड़ा नागवार था। अंग्रेज यह बात सभी मुसलमानों को साफ करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते थे कि जब तक वे जिन्ना को सलाम नहीं बजाएंगे, अंग्रेज उनको कोई अहमियत नहीं देगा।’’

इस सारी स्थिति को देखकर जिन्ना अपने आपको उससे भी बड़ा समझने लगे, जितना बड़ा रूप अंग्रेजों ने उनको दिया था। जिन्ना ने हिंदू-बहुल प्रांतों में मुस्लिम लीगी मंत्री नियुक्त करने की मांग भी रखी, जिसकी वजह से उन्हें कुछ देर के लिए अंग्रेजों की नाराजगी भी बर्दाश्त करनी पड़ी। वायसरॉय ने 10 जुलाई, 1940 को लिखा, ‘‘मुझे उम्मीद है कि जिन्ना इस बेबुनियाद लंबी-चौड़ी मांग के लिए जिद नहीं करेंगे, मगर वे अगर ऐसा करते हैं, तो मेरा ख्याल बनता है कि हमें सोचना पड़ेगा कि मुसलमानों को इकट्ठा रखने के लिए हम जो जद्दोजहद कर रहे हैं, उसे कितना चलाएं और कितना किनारा करें?’’

जिन्ना को भी मिलवाइए

अंग्रेजों ने अपने संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि और कांग्रेस को मजा चखाने के लिए भारतीय राजनीति में जिन्ना को और आगे बढ़ाने तथा उन्हें मुसलमानों का एकमात्र नुमाइंदा जताने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जनवरी, 1940 में चीनी सत्ता के सर्वोच्च नेता च्यांग काई शेक ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए भारत आए। वायसरॉय ने सेक्रेटरी आफ स्टेट को 26 जनवरी, 1942 को लिखा, ‘‘मैं उम्मीद करता हूं कि दो अन्य नेताओं के साथ जिन्ना से भी उनको मिलवाने का महत्त्व आप समझ गए होंगे। उनका मूड हो या न हो, मैं चाहूंगा कि जिन्ना को उनसे मिलवाया जाए।’’

गांधी की पैनी दृष्टि

गांधीजी ब्रिटिश दांव को ताड़ गए थे। इसलिए उन्होंने 29 अप्रैल, 1943 को जिन्ना को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा कि अंग्रेज चाहें तो सत्ता आपको सौंप दें। हम यह भी मानने को तैयार हैं, मगर अंग्रेजों का सत्ता छोड़ने का कोई इरादा नहीं, चाहे वह फिर गांधी के अधीन हो या जिन्ना के। जिन्ना ने कहा था कि मुझे लिखे हुए पत्र को अंग्रेज बिल्कुल नहीं रोक सकते, मगर अंग्रेजों ने सचमुच वही किया और वह भी चर्चिल के व्यक्तिगत आदेश पर। जिन्ना ने न केवल यह अपमान सह लिया, बल्कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार का यह कहकर समर्थन किया कि जब तक गांधी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ नहीं छोड़ देते, उनसे पत्र-व्यवहार का फायदा ही क्या है। 1 जून, 1943 को वायसरॉय ने जिन्ना की इस प्रतिक्रिया को एक बड़ी ‘अभिनंदनीय प्रगति’ बताया।

दरअसल, बात यह थी कि अंग्रेज आसानी से भारत छोड़ने को तैयार नहीं थे। वे आजाद भारत को बता देना चाहते थे कि अंग्रेजों से बिगाड़ करके आजादी हासिल करने का अंजाम क्या होता है?
(यह लेख लेखक की पुस्तक ‘भारत विभाजन और पाकिस्तान के षड्यंत्र’ में संकलित है)

Topics: विभाजन की विभिषिकाजिन्ना और वायसरॉयअंग्रेजी सियासतजफरुल्ला खान की चिंताराष्ट्रवादी मुसलमानगांधी की पैनी दृष्टिमुस्लिम लीगपाञ्चजन्य विशेष
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