स्वाधीनता आंदोलन की जंग सिर्फ क्रांतिवीरों की हिस्सेदारी से हासिल नहीं हुई, अपितु स्वातंत्र्य महायज्ञ में भारतीय वीरांगनाओं की भूमिका कहीं से भी कमतर नहीं रही। लम्बी फेहरिस्त है 1857 के मुक्ति संग्राम में देश के लिए उत्सर्ग हो जाने वाली वीरांगनाओं की। विदेशी दासता से मुक्ति की आकांक्षा में जो बलिदान अमर शहीदों ने दिया, उससे जरा भी कम से कम कुर्बानी इन रण चंडियों की नहीं रही।
देश के प्रथम मुक्ति संग्राम में बलिदान देने वाली इन वीरांगनाओं का अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस और अटूट प्रतिबद्धता भारतीय स्वाधीनता के इतिहास का एक जीवंत दस्तावेज है। इन वीरांगनाओं के योगदान की चर्चा किये बिना देश की आजादी की दास्तान अधूरी ही रहेगी। आजादी की 78 वीं वर्षगांठ के पुनीत अवसर पर आइए याद करते हैं देश के प्रथम मुक्ति संग्राम में अपनी शहादत देने वाली अवध प्रांत की उन तमाम नाम-गुमनाम वीरांगनाओं के योगदान को जिनके अदम्य शौर्य ने ब्रिटिश हुकूमत के छक्के छुड़ा दिये थे।
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अवध प्रांत में आजादी की पहली लड़ाई में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम सर्वाधिक शान से लिया जाता है, जिन्होंने क्रांति का झंडा बुलंद किया था। हम सब जानते हैं कि घुड़सवारी और तलवार की धनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने रणचंडी का रूप धरकर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेज सेना के दांत बुरी तरह खट्टे कर दिये थे। इनकी वीरता और शौर्य के किस्से आज भी जन-जन में गाये जाते हैं। सन 1855 में पति राजा गंगाधर राव की मौत के बाद जब उन्होंने झांसी का शासन सम्भाला तो अंग्रेजों ने उनको शासक मानने से इंकार कर दिया।
इस अन्याय के खिलाफ लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी और तात्या टोपे की मदद से ग्वालियर पर भी कब्जा झांसी ही नहीं वरन ग्वालियर पर भी कब्जा कर लिया था। झांसी की रानी का ऐसा अप्रतिम व्यक्तित्व था कि अंग्रेज तक उनके शौर्य का लोहा मानते थे। रानी लक्ष्मीबाई की मौत पर उनकी समाधि पर नमन करते हुए जनरल ह्यूग रोज ने कहा था, “यहां एक ऐसी औरत चिरनिद्रा में सोयी हुई है जो विद्रोहियों में एकमात्र मर्द थी।”
झांसी की रानी की महिला सैन्य टुकड़ी “दुर्गा दल” का नेतृत्व घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। इस “दुर्गा दल” की सेनापति झलकारीबाई ने कसम उठा रखी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं हो जाएगी, वे सिन्दूर नहीं लगाएंगी और न ही कोई श्रृंगार करेंगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई पूरे जोशो-खरोश के साथ बहुत वीरता से लड़ीं। चूंकि उनका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलती था, सो जब उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकालकर स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और बलिदान हो गयीं।
काबिलेगौर हो कि झलकारीबाई के अलावा रानी लक्ष्मीबाई की सेना में जनाना फौजी इंचार्ज मोतीबाई और रानी के साथ चौबीस घंटे छाया की तरह रहने वाली सुन्दर-मुन्दर, काशीबाई, जूही और दुर्गाबाई भी रानी के दुर्गा दल की सदस्य थीं, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर रानी लक्ष्मीबाई पर आंच नहीं आने दी और अन्तोगत्वा वीरगति को प्राप्त हो गयीं।
पेशे से नर्तकी अजीजनबाई ने भी स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों की संगत में क्रांति में लौ जलायी थी। एक जून 1857 को जब कानपुर में नाना साहब के नेतृत्व में तात्याटोपे, अजीमुल्ला खान, बाला साहब, सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खान क्रांति की योजना बना रहे थे तो उनके साथ उस बैठक में अजीजनबाई भी थीं। इन क्रांतिकारियों की प्रेरणा से अजीजन ने ‘मस्तानी टोली’ के नाम से 400 महिलाओं की एक टोली बनायी थी। एक तरफ ये अपने हुस्न के दम पर अंग्रेजों से तमाम राज उगलवातीं और वे जानकारियां क्रांतिकारियों को देकर उनकी मदद करतीं।
बिठूर के युद्ध में पराजित होने पर नाना साहब और तात्या टोपे तो पलायन कर गये, लेकिन अजीजन पकड़ी गयीं। युद्धबंदी के रूप में उसे जनरल हैवलॉक के समक्ष पेश किया गया। उसके सौन्दर्य पर रीझते हुए जनरल हैवलॉक ने प्रस्ताव रखा कि यदि वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर उसका प्रस्ताव मान ले तो उसे माफ कर दिया जाएगा। किंतु, अजीजन ने एक वीरांगना की भांति उसका प्रस्ताव ठुकरा कर उसे मुंहतोड़ जवाब दिया कि माफी तो अंग्रेजों को मांगनी चाहिए, जिन्होंने हम देशवासियों पर इतने जुल्म ढाये हैं। यह सुनकर आग बबूला हो हैवलॉक ने अजीजन को गोली मारने के आदेश दे दिये और क्षण भर में ही अजीजन धरती मां की गोद में सदा-सदा के लिए सो गयीं।
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कानपुर के स्वाधीनता संग्राम में मस्तानीबाई की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अप्रतिम सौन्दर्य की मलिका मस्तानीबाई अंग्रेजों का मनोरंजन करने के बहाने उनसे खुफिया जानकारी हासिल कर पेशवा को देती थीं। नाना साहब की मुंहबोली बेटी मैनावती में भी देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी। नाना साहब के बिठूर से पलायन के बाद जब अंग्रेज नाना साहब का पता पूछने वहां पहुंचे तो नाना के स्थान पर मौके पर 17 वर्षीया किशोरी मैनावती मौजूद थी। अंग्रेजों ने मैनावती से पता पूछा पर उसने अपना मुंह खोलने के स्थान पर खुद को आग में जिन्दा झोंक दिया जाना स्वीकार कर लिया।
अवध की वीरांगनाओं की सूची में नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल का नाम भी आदर से लिया जाता है, जिन्होंने स्वातंत्र्य संग्राम के लिए योद्धाओं को संगठित कर देश प्रेम का परिचय दिया था। अवध के जाने माने इतिहासकर योगेश प्रवीण के अनुसार बेगम हजरत महल ने अंग्रेजी सेना का स्वयं मुकाबला किया था। उनमें संगठन की अपूर्व क्षमता थी। इसी कारण अवध के जमींदार, किसान और सैनिक सभी उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे। हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात अंग्रेजी सेना से युद्ध करती रहीं। उन्होंने नगर में ही नहीं वरन अवध के देहात क्षेत्रों में भी क्रांति की चिंगारी सुलगा दी थी। बेगम हजरत महल की महिला सैनिक दुकड़ी का नेतृत्व रहीमी गुर्जर के हाथों में था, जिसने फौजी भेष अपनाकर तमाम महिलाओं को तोप और बंदूक चलाना सिखाया। रहीमी की अगुवाई में इन महिलाओं ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया।
अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर की बेगम जीनत महल ने भी 1857 की क्रांति के दौरान उन्होंने अपने पति बहादुरशाह जफर को ललकारते हुए कहा था, “यह समय गजलें कहकर दिल बहलाने का नहीं है जनाब! बिठूर से नाना साहब का पैगाम लेकर देशभक्त सैनिक आये हैं, आज सारे हिन्दुस्तान की आंखें आप पर लगी हैं, अगर आपने हिन्द को गुलाम होने देगा तो इतिहास आपको कभी माफ नहीं करेगा।”
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अवध के इतिहासकर योगेश प्रवीण लिखते हैं कि लखनऊ की तवायफ हैदरीबाई के यहां तमाम अंग्रेज अफसर आते थे और वहां वे क्रांतिकारियों के खिलाफ योजनाओं पर बात किया करते थे। कहा जाता है कि हैदरीबाई ने देशभक्ति का परिचय देते हुए कई महत्वपूर्ण सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुंचाया था और बाद में वह भी बेगम साहिबा के सैन्य दल में शामिल हो गयी थी। बेगम की सेना में शामिल अवध की भूमि की साहसिक वीरांगनाओं में आशा देवी, रनवीरी वाल्मीकि, शोभा देवी वाल्मीकि, महावीरी देवी, सहेजा वाल्मीकि, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी देवी, भगवानी देवी, भगवती देवी, इंदर कौर, कुशल देवी और रहीमी गुर्जरी इत्यादि का नाम भी आदर से लिया जाता है। ये सभी वीरांगनाएं अंग्रेजी सेना के साथ लड़ते हुए देश के लिए कुर्बान हो गयी थीं।
अवध की ऐसी ही एक महान वीरांगना थीं ऊदा देवी पासी, जिनके पति चिनहट की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हो गये थे। इतिहासकार डब्ल्यू गार्डन अलक्जेंडर व क्रिस्टोफर हिबर्ट ने अपनी पुस्तक “द ग्रेट म्यूटिनी” में लखनऊ में सिकन्दरबाग किले पर हमले के दौरान जिस वीरांगना के अदम्य साहस का वर्णन किया है, वह ऊदा देवी ही थीं। उन्होंने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया था।
कैप्टन वेल्स ने जब उस पेड़ पर गोली चलायी तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी। नीचे गिरने से उसकी लाल जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है। उस महिला का साहस देख कैप्टन वेल्स की आंखें नम हो गयीं। उसने कहा कि यदि मुझे पता होता कि यह महिला है तो मैं कभी गोली नहीं चलाता। महान साहित्यकार अमृतलाल नागर ने अपनी कृति “गदर के फूल” में ऊदा देवी का वीरांगना के रूप में साहसिक वर्णन किया है।
इतिहासकर योगेश प्रवीण के अनुसार अवध के मुक्ति संग्राम की एक अन्य गुमनाम वीरांगना थीं गोंडा से 40 किलोमीटर दूर तुलसीपुर रियासत की रानी राजेश्वरी देवी। राजेश्वरी देवी ने अंग्रेजों के सैनिक दस्तों से जमकर मुकाबला किया और देश के लिए शहीद हो गयीं। इसी प्रकार अवध के सलोन जिले में सिमरपहा के ताल्लुकेदार वसंत सिंह बैस की पत्नी और बाराबंकी के मिर्जापुर रियासत की रानी तलमुंद कोइर भी देश के मुक्ति संग्राम में खूब सक्रिय रहीं। अवध के सलोन जिले में भदरी की ताल्लुकेदार ठकुराइन सन्नाथ कोइर ने अपनी जान की परवाह न करते हुए क्रांतिकारियों की भरपूर सहायता की थी।
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