भारतीय जनजीवन में राम नाम की जो सर्वत्र विद्यमानता दिखाई पड़ती है, घर-घर में राम दरबार, गांव–गांव में हनुमान जी का मंदिर या चबूतरा, बात-बात में रामायण की चौपाई और आते–जाते हर समय जिह्वा पर राम नाम; ये सब तुलसी के कारण प्रतिष्ठित हुआ। तुलसी के कारण ही रामकथा विश्व में दूर देशों तक प्रसारित हुई। इंडोनेशिया, बाली, सुमात्रा, थाईलैंड जैसे देशों में आज भी श्रद्धा के साथ रामकथा पढ़ी जाती है।
तुलसीदास का जन्म श्रावण शुक्ल सप्तमी वि.संवत् 1568 अर्थात् 11 अगस्त सन् 1511ई. को हुआ। इस वर्ष यह एक दुर्लभ संयोग है कि तुलसी के जन्मदिन की भारतीय तिथि और अंग्रेजी तारीख दोनों एक ही दिन पड़ रही हैं।
तुलसीदास उस कालखंड के कवि हैं जब भारत पर मुगलों का राज था। छोटे–छोटे राज्यों, जागीरदारों और ठिकानेदारों में सत्ता प्राप्ति के लिए ग़लाकाट स्पर्धा मची रहती थी। हिन्दू समाज में छुआछूत अपने चरम पर था। उपासना के इतने पंथ और संप्रदाय खड़े हो गए थे कि जन साधारण विभ्रम और विघटन में फ़ँसा पड़ा था। सिर पर कभी जजिया, तो कभी कन्वर्जन की तलवार अलग लटकी रहती थी। ऐसे अराजक परिदृश्य में वे रामकथा के माध्यम से नैतिक मूल्यों और नागरिक कर्तव्यों के पालन का मापदण्ड स्थापित करते हैं। समाज में कुटुम्ब प्रबोधन और समरसता की भावना को विकसित करते हैं। अपनी सनातन परम्परा के प्रति श्रद्धा भाव को सींचते हैं। रामचरित मानस के द्वारा उन्होंने पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के बीच समन्वय और समरसता का आदर्श जिस सरस भाषा में रचा, उसे पढ़कर आँखें सजल हो जाती हैं। तुलसी की दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि वे भारतीय परम्परा के मौलिक आधार वर्णव्यवस्था का समर्थन करते हुए इसके विकार छुआछूत का विरोध करते हैं। वर्णव्यवस्था का खण्डन करते हुए छुआछूत का विरोध करना कोई विशेष बात नहीं है। ऐसा अनेक निर्गुणियां संतों ने किया है। किंतु वर्णव्यवस्था के पक्षधर होते हुए छुआछूत का विरोध करना एक दृष्टिपूर्ण बात है। उनके काव्यनायक राम “देव-विप्र हित” अवतार लेते हैं। किंतु वे सदैव अस्पृश्यता के विरोध में खड़े मिलते हैं।
एक चक्रवर्ती सम्राट और एक महर्षि से एक अछूत केवट की भेंट का जैसा वर्णन अयोध्याकांड में मिलता हैं, वह हमारी आँखें खोल देने वाला दृश्य है। यद्यपि हिंदी का अधकचरा व्याख्याकार अपनी अनपढ़ता के चलते “ढोल गंवार सूद्र पशु नारी” के आगे कुछ पढ़ना ही नहीं चाहता। दुर्भाग्य से वह इस चर्चित पंक्ति के मर्म को भी नहीं पकड़ना चाहता। तुलसीदास कहते हैं, निषाद तो इतना अस्पृश्य है कि उसकी छाया के छू जाने पर भी लोग पानी का छींटा लेते हैं। उस अछूत को जब भरत सामने देखते हैं तो उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लेते हैं। मानो अपने भाई लक्ष्मण से मिल रहे हों।
*”करत दण्डवत देखि तेहि, भरत लीन्ह उर लाइ।*
*मनहुँ लखन सन भेंट भई, प्रेम न हृदय समाइ।।”*
निषाद की जब महर्षि वशिष्ठ से भेंट होती है, तो लोकप्रचलित मर्यादा में बंधा होने के कारण वह दूर से ही अपना नाम पुकार कर दण्डवत प्रणाम करता है। किन्तु महर्षि इस रामसखा को स्वयं आगे बढ़कर गले लगा लेते हैं। यह तुलसी द्वारा रचित सामाजिक समरसता का एक अनुपम अध्याय हैं। तुलसी के रामराज्य की यही वास्तविक पहचान है।
प्रेम पुलक केवट कहि नामू। कीन्ह दूर तें दंड प्रनामू।
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
सामाजिक समरसता और मानवीय मूल्यों का सबसे बडा उदाहरण राम का शबरी के प्रति निश्छल प्रेम है। वह जब राम से कहती है कि, “मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि स्त्री हूं। मंदबुद्धि हूं। आपकी स्तुति कैसे करूँ?” तो राम जिस आत्मीयता और प्रेम के साथ उसका मान बढ़ाते हैं, वह प्रसंग रोमांचित कर देता है। आज जनजातियों, वनवासियों के मन में अलगाव का विष घोलने वाले षड्यंत्रकारियों को रामचरित मानस का यह प्रसंग नहीं दिखता, जहां राम जाति–पांति, कुल, धर्म, मान, धन, बल, संबंधी, गुण और चतुरता– इन सबके ऊपर भक्ति का सम्बन्ध बताते हैं और कहते हैं कि भक्ति इन सारे भेदों को समाप्त कर देती है। तुलसी लिखते हैं–
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता। मानऊं एक भगति कर नाता।।
जाति पांति कुल धर्म बडाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिए जैसा।
तुलसीदास को राम–शबरी मिलन का प्रसंग इतना प्रिय है कि वे “गीतावली” में भी इस घटना पर अनेक पदों की रचना करते हैं। वे इस संबंध की तुलना मां और शिशु के प्रेम से करते हुए कहते हैं–
अंबक अंब ज्यों निज डिंब हित सब आनिकै।
सुंदर सनेह सुधा सहस जनु सरस राखे सानिकै।।
अर्थात् माता जिस प्रकार अपने बालक के लिए अच्छी-अच्छी चीजें संजोकर रखती है, उसी प्रकार शबरी ने उन सुन्दर फलों को अमृत से भी हजारों गुना अधिक स्नेहरस में डूबो कर रखा।
यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि शूद्र वर्ण के प्रति तुलसीदास का क्या दृष्टिकोण है। इसके लिए हमें मानस का उत्तरकांड देखना चाहिए जहां वे बहुत स्पष्ट शब्दों में राम के “निज सिद्धांत” का प्रतिपादन करते हैं। हमारे कतिपय लेखकों की कुबुद्धि और आलोचकीय दुराग्रह का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि वे इस प्रसंग की चर्चा तक नहीं करते। बल्कि, इसको छुपाते हुए तुलसी के बहाने समूची भारतीय परंपरा पर रूढ़िवादी, ब्राह्मणवादी, दलितविरोधी जैसे लांछनों से आक्रमण कर अपनी कुंठा का परिचय देते हैं। यहां राम घोषणा करते हैं कि,
सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब तें अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्हं महँ द्विज तिन्हं महँ श्रुतिधारी।
तिन्हं महँ निगम धरम अनुसारी।।
तिन्हं महँ प्रिय विरक्त पुनि ग्यानी।
ग्यानिहुँ ते प्रिय अति विज्ञानी।।
तिन्हं ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा।
जेहि गति मोर न दूसर आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहहुँ तोहि पाही।
मोहि सेवक सम प्रिय कोई नाही।।”
अर्थात् यों तो समस्त प्राणी मेरे ही द्वारा उत्पन्न किये गए हैं, सभी मुझे प्रिय हैं, अप्रिय कोई नहीं। परन्तु सभी प्राणियों में मनुष्य मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं। मनुष्यों में भी द्विज, द्विजों में भी वेदपाठी, वेदपाठियों में भी वेदधर्म का अनुसरण करने वाले, उनमें भी विरक्त, विरक्तों में भी ज्ञानी और ज्ञानियों में भी विज्ञानी मुझे परम प्रिय हैं। किंतु इन उत्तरोत्तर श्रेष्ठ से श्रेष्ठ व्यक्तियों की अपेक्षा मुझे अपना दास ही अधिक प्रिय है। राम की इस बात में पाठक को किसी तरह की अस्पष्टता या संशय न रहे इस हेतु तुलसीदास पुनः जोर देकर कहलवाते हैं, “भगतिवन्त अति नीचहुँ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।”
अत्यधिक नीच भी यदि कोई भक्त है तो वह मुझे प्राणों से भी प्रिय है। विशेष बात यह है कि तुलसी ने इसे राम का “निज सिद्धान्त” कहा है। वेद, शास्त्र, लोकाचार जो कहते हैं, कहते होंगे, उसमें मत-मतान्तर और विभेद होते होंगे, पर मेरे प्रभु राम का अपना क्या अभिमत है, यह बात तुलसीदास डंके की चोट पर कहते हैं।
तुलसीदास भक्ति आंदोलन के कवि हैं और सगुण भक्ति का आधार है वैष्णवी भक्ति। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि जिस गरुड़ को विष्णु के परमसेवक का स्थान मिला, जिसके नाम पर एक पुराण की रचना हुई और जो पक्षियों का राजा है, उस गरुड़ का गर्वशमन एक तुच्छ-से पक्षी कौवे से होता हैं। कागभुशुण्डि रामकथा कह रहे हैं और गरुड़ समेत समस्त पक्षीगण उनके सम्मुख नतमस्तक हैं।उस पक्षी से ज्ञानोपदेश ग्रहण कर रहे हैं जिसकी वाणी, जिस का रूप, सभी कुछ निंदित है। उत्तरकांड में वर्णित कागभुशुण्डि की यह कथा तुलसीदास की अद्भुत कल्पना है जो भक्ति के राज्य में एक तिरस्कृत पक्षी के सर्वोच्च सम्मान पा लेने और उसके सम्मुख शक्तिशाली सम्राटों के नतमस्तक हो जाने की भी कथा हैं। यह राम की भक्ति में निम्नतम समझे जाने वाले के भी परम पूज्य हो जाने की कथा है।
समरसता के अग्रेसर राम जाति, वर्ण, लिंग आदि का भी कोई भेदभाव नहीं रखते। आज जिस थर्ड जेंडर पर ध्यान दिया जाना आधुनिक युग की उपलब्धि कहा जाता है, तुलसी आज से पांच सौ वर्ष पूर्व राम भक्ति के लिये इस वर्ग को याद रख कर सम्मान के साथ उसका उल्लेख करते हैं।
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।
यह कटु यथार्थ है कि सोलहवीं सदी के भारतीय समाज में उच्च और निम्न जातियों के बीच गहरा भेदभाव था। तुलसीदास स्वयं उच्च जाति के थे। किन्तु वे स्वयं इस जातीय भेदभाव से खिन्न थे। “विनयपत्रिका” में वे इस प्रवृत्ति की निंदा करते हैं तथा जातिपरक भेदभाव और छुआछूत पर चोट करने वाले अनेक पद रचते हैं।
यह तुलसी की कविता की शक्ति है कि उनकी एक-एक चौपाई मंत्र की तरह अपना प्रभाव छोड़ती है।
*”दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”*
इस अकेली चौपाई का जादू ऐसा सिर चढ़कर बोलता है कि “दीनदयाल” का विरुद सुनते ही किसी अन्य देवी–देवता अथवा अवतार की नहीं, श्रीराम की छवि मन में उभरती है। यह तुलसी की लोकसिद्धि का चमत्कार है।
वस्तुत: तुलसी के राम सबल की अपेक्षा निर्बल का, बड़े की अपेक्षा छोटे का, ऊंचे की अपेक्षा नीचे का, अमीर की अपेक्षा गरीब का पक्ष लेते हैं। वे सदैव दीन- हीन- वंचित- उपेक्षितों के साथ खड़े रहते हैं। सुग्रीव भले ही बहुत सद्गुणी नहीं है। जो दुर्गुण बाली में हैं, वे ही न्यूनाधिक उसमें भी हैं। पर वह बाली का सताया हुआ है। अत्यंत भयभीत हैं। तो राम, सुग्रीव के साथ खड़े होते हैं। इसीलिए तुलसीदास कहते हैं कि, “हे राम! आपकी यही तो बड़ाई है कि आप धनिकों, गणमान्यों का तो अनादर करते हो और गरीबों को आदर देते हो।
*”रघुवर रावरि यहै बड़ाई। निदरि गनी आदर गरीब पर, करत कृपा अधिकाई।।”* (विनयपत्रिका)
तुलसीदास सगुणोपासक होते हुए भी निर्गुण उपासना का उपहास नहीं करते। अपितु *”अगुनहिं सगुनहिं नहिँ कछु भेदा”* जैसा उदार भाव रखते हैं। उनके राम सर्वस्पर्शी हैं। वे निर्गुण उपासकों के लिए भी हैं, सगुण उपासकों के लिए भी। और नाम जप करने वाले भक्तों के लिए तो सदैव जिह्वा पर ही विराजते हैं। इसीलिए वे कहते हैं,
हियँ निर्गुन नयनन्हिं सगुन रसना राम सुनाम।
हृदय में निर्गुन, नयनों में सगुन और जीभ पर रामनाम।
इस एक पंक्ति में वे सभी मतों को आत्मसात कर लेते हैं।
यह भी ध्यान देने की बात है कि तुलसीदास एकाकी राम के दास नहीं है। वे सीता माता के भी उतने ही दास हैं जितने राम जी के। वे सीता–सहित राम के उपासक हैं, सीता–रहित राम के नहीं। युगलस्वरूप सीताराम के प्रति उनका समर्पण इतना एकनिष्ठ है कि वे अपने सारे संबंधों की कसौटी सीता–राम के प्रति प्रेम को बनाते हैं।
जाके प्रिय न राम-बैदेही।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तुलसी का युग भारत पर चहुं ओर म्लेच्छों के अत्याचारों का युग है। हताश एवं पराजित हिन्दू जाति के हृदय में भय और आत्मग्लानि भरी हुई थी। ऐसे समय में तुलसी जनमानस के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ देखते हैं। प्रथम- व्यक्ति का आंतरिक विखंडन तथा द्वितीय– सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक विपत्तियांँ। जिनको तुलसी कलिमल अथवा कलिकलुष कहते हैं। वे भीतरी और बाहरी, इन दोनों ओर के संकटों का समाधान खोजते हैं। एक ऐसा साधन, जो अन्दर, बाहर दोनों ओर उजियारा फैलाये। आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों समस्याओं के बीच हमें सम्बल प्रदान करे। यह समाधान वे राम की भक्ति में देखते हैं और कहते हैं –
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहरेहुँ जौं चाहसि उजिआर।।
तुलसीदास राम नाम का ऐसा मणिमय दीपक प्रज्ज्वलित हैं, जिसकी पतित पावनी भक्ति में डूब कर मन का आभ्यंतर जगमगा उठता है। और जिसके उज्जवल चरित्र से सीख लेकर हमारा बाहरी संताप शान्त हो जाता है। इसीलिए मानस की समाप्ति पर वे इसकी दो फलश्रुतियां बताते हैं। एक, *”स्वान्तः तमः शान्तये”*। अर्थात् अपने भीतर के अंधकार को दूर करने वाली। और दूसरी, *”संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः*।”- संसार की घोर दाहकता से मनुष्यमात्र की रक्षा करने वाली। गोस्वामी तुलसीदास इन्हीं महान् उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लोकभाषा में उतारते हैं।
रामभक्ति के डूबकर रचे गए काव्य के माध्यम से संसार में समन्वय और समरसता की भावना प्रतिष्ठित करना गोस्वामी तुलसीदास का लक्ष्य था। यही उनकी लोकमंगल की साधना है।
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