कौन भूल सकता है हाना रॉहिति-क्लार्क को? न्यूजीलैंड के मूल निवासी समुदाय माओरी से आने वाली 21 साल की इस सबसे युवा सांसद ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था। इसी साल 5 जनवरी को हाना ने न्यूजीलैंड की संसद में अपने पहले वक्तव्य से पूर्व अपनी भाषा माओरी में ‘हाका’ अथवा ‘शौर्य गान’ गाकर अपने मूल निवासी समुदाय के गौरव का बखान किया था! संसद में तब एक अद्भुुत दृश्य उपस्थित हो गया। हाना के उस असाधारण कृत्य का वीडियो देखते ही देखते पूरी दुनिया में पहुंच गया और हर सभ्य स्वाभिमानी इंसान ने हाना की दिल खोलकर प्रशंसा की थी। हाना को यह पीड़ा है कि उनके ‘इंडिजिनस’ समुदाय को हाशिए पर डाला हुआ है, किसी में उनके दर्द को जानने की इच्छा क्यों नहीं है? क्यों उनके अपने देश के लोग भी उनके समुदाय से अपरिचित हैं, जबकि वे वहां एकदम शुरू से रहते आए लोग हैं, मूल निवासी हैं?
लेकिन यह पीड़ा अकेले हाना की नहीं, अपितु पश्चिमी जगत के अधिकांश देशों के मूल निवासियों की है। अमेरिका के ‘नेटिव अमेरिकन्स’ या ‘अमेरिकन इंडियंस’ हों या आस्ट्रेलिया अथवा कनाडा के ‘एबोरिजिनल’ या फिर अफ्रीकी देशों के मासाई, बातवा, कारो जैसे मूल निवासी समुदाय; ये सब आहत हैं, क्योंकि उनकी पहचान, उनकी परंपराओं, मत—पंथ, मान्यताओं को उस पैमाने पर मान्यता नहीं दी जाती जितना उनके महत्व को देखते हुए की जानी चाहिए।
पश्चिम की इस सोच के उलट है भारत की सोच। हमारे यहां उन्हें ‘मूल निवासी’ या ‘आदिवासी’ न कहकर जनजातीय समाज कहा जाता है। हमारे संविधान में इस संबंध में पश्चिम की दुर्भावनापूर्ण समझ के विपरीत जनजातीय समाज को राजनीतिक-सामाजिक-पांथिक महत्व बराबर का मिलता है। उनके गौरव को भले देश पर लगभग 60 साल तक राज करने वाली देश की सबसे बूढ़ी पार्टी कांग्रेस ने अनदेखा किया हो, लेकिन आज यह समाज स्वाभिमान के साथ मुख्यधारा से जुड़ चुका है। अब हम हर साल 15 नवम्बर का दिन ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाकर अपने जनजातीय महापुरुषों का पुण्य स्मरण करते हैं। ऐसे में, इस संबंध में पश्चिमी और हमारे दृष्टिकोण में मौलिक अंतरों पर नजर डालना समीचीन प्रतीत होता है। पश्चिमी इतिहास जहां मूल निवासियों के उत्पीड़न की घटनाओं से भरा पड़ा है तो हमारा इतिहास उनके अमूल्य योगदानों की बात करता है।
औपनिवेशिक नरसंहार
यह कोई छुपा तथ्य नहीं है कि यूरोपियाई शक्तियों (ब्रिटिश व स्पेन) के विस्तारवाद ने यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका, महासागरीय देशों और एशिया में औपनिवेशिक नरसंहार को अंजाम दिया था। इस नरसंहार पर शोध करने वाले राफेल नेमकिन के अनुसार, औपनिवेशिक नरसंहार के दो चरण थे। पहला, मूल निवासी संस्कृति और जीवन शैली को नष्ट करना, व दूसरा, उपनिवेशक की जीवन पद्धति, संस्कृति और रिलिजन को जबरन मूल निवासियों पर थोपना। इस नरसंहार को सांस्कृतिक या ‘एथनिक’ नरसंहार भी कहा जाता है। यह इतना भयंकर था कि मूल निवासियों को बर्बरता से मारा गया, अमानवीय तरीके से जैविक बीमारियों (चेचक, हैजा) फैलाकर उन्हें खत्म किया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अकेले अमेरिका में मूल निवासियों की संख्या 15वीं सदी में 14.5 करोड़ से 18वीं सदी तक मात्र 70 लाख रह गई थी। लेकिन विस्तारवादी ताकतें इतने से संतुष्ट नहीं हुईं। आगे इन 70 लाख मूल निवासियों को ‘इंडियन रिमूवल एक्ट 1830’ के द्वारा अमेरिका से खदेड़कर मिसिसिपी नदी के पश्चिम में बंजर इलाकों में धकेल दिया गया। अमेरिकीइतिहास में इसे ‘आंसुओं की नदी’ कहा जाता है। दुनिया के दूसरे हिस्सों जैसे, दक्षिण अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व अन्य द्वीप समूहों में भी ऐसे ही नृशंस तरीके से वहां के मूल निवासियों का नरसंहार किया गया।
कोलंबस डे क्यों?
पश्चिम में कोलंबस डे को ‘डे आफ रेस’ भी कहा जाता है। इस दिन अमेरिका सहित सभी औपनिवेशिक ताकतों के अधिकांश क्षेत्रों में राष्ट्रीय अवकाश होता है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कोलंबस दिवस को बड़ी भव्यता से मनाने का आदेश दिया था। कोलंबस एक इतालवी नाविक था, जिसने स्पेन के राजा से भारत के लिए समुद्री मार्ग खोजने का आदेश प्राप्त किया था। लेकिन वह गलती से अमेरिकी द्वीप बहामा पहुंच गया। भारत से लौटते हुए उसे मसाले लाने का काम दिया गया था, लेकिन उसे मसाले नहीं मिल पाए तो उसने मूल निवासी महिलाओं को बंदी बनाकर वेनिस के बाजार में वेश्यावृत्ति के लिए बेच दिया और कुछ महिलाओं को दरबार के सम्मुख नग्न अवस्था में प्रस्तुत किया। अगले 300 साल तक इन मूल निवासी महिलाओं के साथ ऐसा ही दुर्व्यवहार होता रहा। परंतु अमेरिका एवं अन्य औपनिवेशिक देशों, जहां आज भी मूल निवासियों पर यूरोपीय नस्ल की थोपी राज व्यवस्था कायम है, के लिए कोलंबस बहुत सम्मानित नाम है।
‘कोलंबस डे’ के विरुद्ध हैं मूल निवासी
तत्कालीन राष्ट्रपति क्लिंटन के उक्तआदेश के विरोध में अमेरिका के मूल निवासियों ने कोलंंबस डे को ‘मूल निवासी नरसंहार दिवस’ घोषित करने के लिए दबाव बनाना शुरू किया। 9 अगस्त,1982 को हुई ‘यूएन वर्किंग ग्रुप आफ इंडीजिनस पीपल’ की पहली बैठक में एक विकल्प प्रस्तावित किया गया। अत: इसके अनुसार ही,17 फरवरी 1995 को 9 अगस्त को ‘अंतरराष्ट्रीय विश्व मूल निवासी दिवस’ घोषित किया गया।
भारत का मत
भारत सरकार ने अपने आधिकारिक मत में इस घोषणा के समर्थन में कहा कि ‘‘भारत ने मूल निवासी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की घोषणा के पक्ष में इस शर्त पर मतदान किया कि स्वतंत्रता के बाद सभी भारतीय भारत के मूल निवासी हैं।’’ भारत के इस मत का आधार संविधान सभा में के.एम. मुंशी, विश्वनाथ दास, बाबासाहेब आंबेडकर, जयपाल सिंह मुण्डा के बीच हुई सारगर्भित बहस को माना जा सकता है। इसी में भारत के समस्त निवासियों को भारत का मूल निवासी एवं अनुच्छेद 342 के तहत ‘अनुसूचित जनजाति’ शब्द का प्रयोग किया गया, ना कि ‘आदिवासी’ अथवा ‘मूल निवासी’।
भारत एक संप्रभु प्रजातांत्रिक राष्ट्र है इसीलिए संयुक्त राष्ट्र के मूल निवासियों के घोषणा पत्र की कुछ बातें भारत के संविधान में उल्ल्खित बिन्दुओं से अलग हैं। स्वाधिकार, दूसरे राष्ट्र की नागरिकता, दूसरे राष्ट्र के पंथ को अपना पंथ मानना, आत्म निर्धारण हेतु अन्य राष्ट्रों से आर्थिक मदद जैसे कई उपबंध भारत के दृष्टिकोण से अलगाव बढ़ाने वाले व विशिष्ट पहचान के द्वारा भारत की संप्रभुता को कमतर करने वाले हैं। काफी विमर्श के बाद, भारत की विदेश नीति के जानकारों ने कहा कि जिन राष्ट्रों पर उनके ही मूल निवासियों पर किसी यूरोपीय देश द्वारा नृशंस नरसंहारों के आरोप आज तक कायम हैं, उन्हें भारत को मूल निवासियों के अधिकारों पर निर्देश देने का कोई नैतिक आधार नहीं है। यूरोपियनों द्वारा शासित देशों में आज भी वहां के मूल निवासी दोयम दर्जे के नागरिक हैं।
अलगाववाद को हवा
भारत का एक हजार साल का इतिहास विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष का रहा है। भारत की आंतरिक समस्याओं एवं विविधता का लाभ उठाकर भारत के वृहद भू-भाग के विभाजित होने का खूनी इतिहास किसी से छुपा नहीं है। पश्चिम का सांस्कृतिक विविधता को देखने का नजरिया विभाजनकारी है, जबकि भारत ने सदियों से भाषायी, सांस्कृतिक, पांथिक विविधता के साथ ही, सभी समुदायों को शांति व सहअस्तित्व के साथ रहने का वातावरण प्रदान किया है। फिर भी शत्रु देशों द्वारा हमारे सीमांत राज्यों यथा पंजाब, जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल, नागालैण्ड, त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम में ‘पहचान का संकट’ खड़ा करने के षड्यंत्र चलाए जाते रहे हैं। हाल ही में प्रतिबंधित पापुलर फ्रंट आफ इंडिया, आईएसआईएस, नक्सलवादी-माओवादी आदि जिहादी/हिंसक संगठनों से पकड़े गए साहित्य से स्पष्ट हुआ है कि शत्रु ताकतों की मदद से क्षेत्रीय, भाषायी, पांथिक व सांस्कृतिक अथवा समुदाय आधारित ‘विशिष्ट पहचान’ को भड़काकर आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा करने की साजिश चल रही है। लेकिन ये संगठन भूल रहे हैं कि विदेशी ताकतों की किसी भी शरारत को सख्ती से कुचलने की भारत में पर्याप्त शक्ति है।
भविष्य की योजना
भारत ने आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर देश की स्वतंत्रता में जनजातीय समाज के योगदान को रेखांकित किया है। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने स्वाधीनता संग्राम के महानायक भगवान बिरसा मुण्डा के जन्मदिवस 15 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ घोषित किया है। इस दिवस का महत्व भारत की जड़ों से जुड़ा है। देश के अनेक प्रांतों में 15 नवम्बर से ‘जनजातीय गौरव सप्ताह’ का आयोजन होता है। आज कितने देश हैं जिन्होंने अपने नायकों को औपनिवेशिक आक्रान्ताओं से अधिक महत्व दिया? इसलिए हमारे युवाओं को तय करना है कि भगवान बिरसा मुंडा की याद दिलाता 15 नवम्बर का दिन हमारा है अथवा विदेशी 9 अगस्त का कोलंबस दिवस? आज भारत के 7 राज्यों के मुख्यमंत्री जनजातीय समाज से आते हैं।
देश के सर्वोच्च पद पर जनजातीय समाज की विदुषी महिला श्रीमती द्रोपदी मुर्मु आसीन हैं। क्या ही अच्छा हो कि 9 अगस्त का दिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय योग दिवस अथवा विश्व पर्यावरण दिवस के समकक्ष ही दुनियाभर के मूल निवासियों के लोक कल्याण की अपेक्षा से मनाया जाए!
दुर्भाग्य से आज हमारे देश में सोशल मीडिया का दुरुपयोग करते हुए भारत विरोधी, संविधान विरोधी व बंधुत्व विरोधी सामग्री का सुदूर अंचलों तक प्रसार किया जाता है। इसलिए आज आवश्यकता है कि समाज में यह बोध जाग्रत हो कि जनजातीय समाज के साथ-साथ भारत का प्रत्येक निवासी भारत का मूल निवासी है, भारत को स्वतंत्रता दिलाने में सभी समाजों के पूर्वजों ने अपना योगदान दिया है।
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