हिंदुओं के पर्व-त्योहार आस्था ही नहीं, बल्कि मौसम परिवर्तन, पर्यावरण सुरक्षा, प्राकृतिक बदलाव, खगोलीय घटना, सौरमास, चंद्रमास और नक्षत्र मास के महत्वपूर्ण दिवसों से भी जुड़े हैं। समरसता के प्रतीक इन पर्व-त्योहारों को आस्थावान समाज पूरी श्रद्धा, समर्पण और उल्लास के साथ मनाता है। लेकिन हिंदुओं के पर्व-त्योहार, उसकी प्रकृति पूजा को छद्म सेकुलर और वामपंथी को आदिम व रूढ़िवादी बताते हैं।
हिंदुओं के पर्व-त्योहार हमेशा उनके निशाने पर रहते हैं, होली पर पानी को लेकर, दीपावली पर प्रदूषण के बहाने, जल्ली-कट्टू पर पशु क्रूरता के बहाने। यहां तक कि सिंदूर, तिलक, कलावा और समरस समाज भी उन्हें खटकता है। इसलिए समाज को क्षुद्र राजनीति के लिए जाति के खांचे में बांटने की कोशिश करते हैं। सदियों से सनातनी जनजातीय समुदाय को यह कहकर बरगलाते हैं कि वे हिंदू नहीं हैं। इसी तरह, कांवड़ यात्रा भी वर्षों से उन्हें खटक रही है, क्योंकि यह जातिभेद मिटाती है। इस पावन यात्रा में कांवड़ियों की एक ही जाति होती है-भोले। अब वामपंथी और सेकुलर ब्रिगेड कांवड़ियों को ‘अनपढ़’, ‘हुड़दंगी’, ‘नशेड़ी’ जैसी संज्ञा दे रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कांवड़ियों के प्रति प्रेम और आदर के भाव ने इतनी ऊंचाई पा ली है कि आज यह विषय भारत में सबसे बड़े मंथन का कारण बन गया है। इसमें समुद्र है चार करोड़ कांवड़ियों का समूह और मथनी है योगी प्रशासन का शुरुआती निर्देश कि मुजफ्फरनगर में 250 किलोमीटर के कांवड़ मार्ग पर हर संप्रदाय के व्यक्ति को अपने ढाबे, चाय की दुकान या फल के ठेले पर अपना सही नाम लिखना होगा। मुजफ्फरनगर के पुलिस कप्तान के इस आदेश को कांवड़ियों के समुद्र में मथने की रस्सी बना है कानून। इस रस्सी को एक तरफ से खींच रहे हैं महुआ मोइत्रा व अभिषेक मनु सिंघवी, तो दूसरी तरफ से खींच रहे हैं मुकुल रोहतगी, चार करोड़ कांवड़िये और अनगिनत आस्थावान हिंदू।
न्याय की आस
प्रारंभ में इस मंथन से विष-सा कड़वा घूंट निकला। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति एस.वी.एन भट्टी की पीठ ने दुकानों पर अनिवार्य रूप से नामपट लगाने के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी। अर्थात् पंडित जी वैष्णो ढाबे का मालिक भले ही सनव्वर नामक मुसलमान हो, लेकिन वह अपना असली नाम लिखने के लिए बाध्य नहीं है। राजाराम भोज फेमिली टूरिस्ट ढाबे का मालिक रहेगा तो वसीम नामक मुसलमान, लेकिन उसके ढाबे पर खाने वाले हिंदू तीर्थ यात्रियों को यह जानकारी देना जरूरी नहीं है। राजस्थान शुद्ध खालसा ढाबे का मालिक फुरकान मुस्लिम है और वह दया भाव से यह राज की बात जाहिर कर दे तो उसका बड़प्पन है, नहीं तो पवित्र मन से भक्ति और तपस्या करने वाले कांवड़िये गुमराह होते हैं तो होते रहें।
मंथन में विष के बाद अमृत भी प्रकट हुआ। विराट हिंदू समाज के सामने धोखाधड़ी, जालसाजी, फरेब और बहरूपियेपन की सचाई सामने आ गई और कांवड़ियों व आस्थावान हिंदुओं की हुंकार सोशल मीडिया पर गूंजने लगी। दरअसल, स्वामी यशवीर नामक संत ने एक अचूक उपाय निकाला। उन्होंने हिंदू ढाबों और रेहड़ी मालिकों को वराह अवतार की तस्वीरें बांटनी शुरू कर दीं। यह वह अमोघ अस्त्र है, जिसे संगम ढाबा चलाने वाला सलीम अपने यहां कभी नहीं लगाएगा। वराह अवतार की तस्वीर या मूर्ति को मुसलमान किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा। वे सूअर को इतना अपवित्र मानते हैं कि उसे देखना तो दूर, उसका नाम भी नहीं सुनना चाहते।
सर्वोच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई पर वापस लौटते हैं। नामपट लगाने के आदेश पर शीर्ष अदालत ने 22 जुलाई को अंतरिम रोक लगाई थी और अगली तारीख 26 जुलाई तय कर दी। लेकिन राज्य सरकार सुनवाई से पहले ही मुजफ्फरनगर पुलिस का आदेश प्रदेशभर के कांवड़ मार्ग पर लागू कर चुकी थी। उत्तराखंड और मध्य प्रदेश सरकारों ने भी इसे ज्यों का त्यों लागू कर दिया था। 26 जुलाई को केवल उत्तर प्रदेश की ओर से मुकुल रोहतगी पेश हुए और उन्होंने हलफनामा दाखिल किया।
उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के वकील नहीं पहुंच पाए। सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम रोक जारी रखते हुए इन दोनों राज्यों को 5 अगस्त तक जवाब दाखिल करने को कहा है। उसके बाद याचिकाकर्ताओं को प्रत्युत्तर दाखिल करने के लिए एक हफ्ते का समय मिलेगा। इसके बाद फैसला आएगा। फिर उसे लागू किया जाएगा। यदि कांवड़ियों के पक्ष में फैसला आता भी है, तब तक सावन बीत जाएगा और कांवड़ यात्रा भी संपन्न हो जाएगी। यानी न्याय मिलने में इतनी देर हो चुकी होगी कि उस ‘न्याय’ की कोई सार्थकता नहीं रह जाएगी।
कांवड़ यात्रा के नियम
कांवड़ यात्रा के काफी पहले से कांवड़िये तामसिक भोजन का त्याग करके सात्विक दिनचर्या अपनाते हैं। यानी भोजन ही नहीं, कांवड़ियों का आचार, विचार व व्यवहार भी सात्विक होना चाहिए। यात्रा के दौरान शराब, सिगरेट, तंबाकू, गुटखा आदि का सेवन वर्जित होता है।
सामान्य कांवड़- इसे सबसे आसान माना जाता है। इसमें कांवड़िये रास्ते में विश्राम कर सकते हैं और थकने पर वाहन से भी यात्रा पूरी कर सकते हैं। वे कांवड़ को ऊंचे स्थान या स्टैंड पर रख सकते हैं। बस वह जमीन से स्पर्श नहीं करना चाहिए।
खड़ी कांवड़- इसमें कांवड़िये एक समूह में चलते हैं। इसमें कांवड़ को न तो कहीं रखा जा सकता है, न ही लटकाया जा सकता है। जब एक कांवड़िया थक जाता है, तो दूसरा उसे कंधे पर लेकर चलता है।
दंडी कांवड़ – यह यात्रा कठिन होती है। इसमें कांवड़िये दंडवत करते हुए यात्रा करते हैं। इसलिए यात्रा में कई दिन लग जाते हैं, क्योंकि वे विश्राम करते हुए आगे बढ़ते हैं।
डाक कांवड़ – यह सबसे कठिन होती है। इसमें कांवड़िये यात्रा शुरू करने से लेकर जलाभिषेक तक बिना रुके लगातार दौड़ते हैं। इसमें कांवड़िये कई समूहों में चलते हैं। इन्हें 24 घंटे में जलाभिषेक करना होता है।
आस्था का विषय
वास्तविकता यह है कि यह मुकदमा एक प्रतिशत सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है और 99 प्रतिशत जनता की अदालत में। योगी आदित्यनाथ ने सिर्फ कांवड़ियों का नहीं, बल्कि वृहत् हिंदू समाज का दिल जीता है। उन्होंने हेलीकॉप्टर से कांवड़ियों पर पुष्प वर्षा कराई, ड्रोन से उनकी सुरक्षा का प्रबंध किया और आतंकी हमलों के मद्देनजर मुजफ्फरनगर में आतंक निरोधी दस्तों से कांवड़ियों को जमीनी सुरक्षा भी प्रदान की।
सर्वोच्च न्यायालय का रुख आज या कल जो भी रहे, धोखाधड़ी से हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें लगाकर बहुत से मुसलमानों द्वारा कांवड़ियों को छलने के कुकर्म का पर्दाफाश हो चुका है। सोशल मीडिया पर कांवड़ियों और आम हिंदुओं ने जो प्रतिक्रियाएं दी हैं, उसमें मुख्यत: दो बातें हैं- क्रोध और तर्क। एक हिंदू ने कहा कि यह कानूनी नहीं, बल्कि भरोसे का विषय है। सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो की भरमार है, जिसमें ढाबे के मालिक या कर्मचारी खाने में थूक रहे हैं या पेशाब कर रहे हैं।
मकसद साफ है। काफिरों का कन्वर्जन न करा पाएं तो उनका धर्म भ्रष्ट जरूर करना है। एक ढाबा मालिक समोसे में गोमांस डाल रहा था। यूरोप में दाल या मिठाई में मल त्याग करने के वीडियो भी वायरल हुए हैं। ऐसे में कांवड़ियों से आंख बंद करके मुसलमानों की बात पर भरोसा करने को कहना कहां तक उचित है, जबकि वे हिंदुओं को काफिर समझते हैं? उनके लिए काफिर के खिलाफ जिहाद जरूरी है, क्योंकि यही कुरान का आदेश है। इसलिए तीर्थ यात्रा पर जाते हुए कांवड़ियों से यह उम्मीद करना कि वह शुचिता से समझौता करें, यह हिंदुओं को स्वीकार नहीं है। यह व्यापार का नहीं, बल्कि आस्था का विषय है।
भन्नाए हुए मुस्लिम कट्टरपंथी और विकृत मानसिकता के लोग पवित्र कांवड़ियों के बारे में भ्रम फैलाते हैं कि वे उत्पाती होते हैं, नशेड़ी होते हैं, जबकि सच यह है कि कांवड़िये परमपिता परमेश्वर शिव जी के भक्त हैं और सैकड़ों किलोमीटर नंगे पैर तीर्थ यात्रा जैसा कठिन तप करते हैं। इनमें महिलाएं, बूढ़े और बच्चे, अमीर और गरीब भी होते हैं। इस यात्रा में आईआईटी के इंजीनियर, डॉक्टर और बैंकर भी होते हैं। हर जाति के लोग कांवड़ यात्रा में शामिल होते हैं। यहां जाति का भेद-भाव मिट जाता है। योगी आदित्यनाथ द्वारा कांवड़ियों की सुरक्षा के उद्देश्य से लिए गए फैसले के बाद धमकियां दी जा रही हैं, जैसे- गृह युद्ध, कर्बला का मैदान बाकी है, पुलिस हटा लो तो देख लेंगे। छोटी-सी बात का बतंगड़ बनाना पागलपन है। खाद्य सुरक्षा कानून 2006 के अनुसार, उपभोक्ता को मालिक का नाम और खाद्य पदार्थ की जानकारी मिलनी ही चाहिए। संविधान का अनुच्छेद-25 जिस तरह मुसलमानों को अधिकार देता है कि वे केवल हलाल का मांस खाएं, वैसे ही हिंदुओं को भी आजादी देता है कि वे अपनी शुचिता के नियमों का पालन कर सकें।
सावन और शिव
संपूर्ण प्रकृति, संपूर्ण संसार शिव है। शिव को भूतनाथ और देवादिदेव भी कहते हैं। भूतनाथ का मतलब संसार पंचभूतों से बना है-पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश। इन पंच महाभूतों के नाथ हैं शिव। सावन के महीने में सबसे अधिक बारिश होती है, जो शिव यानी प्रकृति (धरती) के तपते शरीर को ठंडक प्रदान करती है। इसलिए शिव का सावन से गहरा लगाव है। इसी मास में समुद्र मंथन हुआ था और उससे जो विष निकला उसे पीकर भगवान शिव ने सृष्टि की रक्षा की। विष के प्रभाव को कम करने के लिए देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का खास महत्व है।
साधना और सावन
सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन बड़ी बाधा है। मन की अस्थिर गति को थामने और दृढ़ करने के लिए शिव हमें सावन जैसा मास प्रदान करते हैं। इसी सावन में साधना बाधाओं को पार कर आगे बढ़ती है। सावन, सोमवार और भगवान शिव की आराधना सर्वथा कल्याणकारी है जिसमें भक्त मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं।
कांवड़ और कांवड़िये
कांवड़ का अर्थ है परात्पर (सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ) शिव के साथ विहार और जो शिवमय हो जाए वह कांवड़िया। शिव यानी ‘शेते सर्व जगत् यस्मिन् इति शिव’ अर्थात् जिसमें समूचा जगत सो रहा है, वह शिव हैं। समूचे जगत का आश्रय-अधिष्ठान शिव हैं। दूसरे शब्दों में शिव का अर्थ है-कल्याण, मंगल या सुख। शिव की आराधना सुख और कल्याण का अनूठा समन्वय है। शिव की आराधना से व्यक्ति के जीवन में सुख, समृद्धि व खुशहाली आती है। चूंकि कांवड़ लेकर अमरनाथ, द्वादश ज्योतिर्लिंग और कैलाश मानसरोवर जाना न तो सबके सामर्थ्य में है और न ही दुष्कर होने के कारण संभव। अत: बिहार के कांवड़िये गंगा जल लेकर देवघर जाते हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा आदि से कांवड़िये जल लेने हरिद्वार जाते हैं।
कांवड़ का महात्म्य
स्वास्थ्य का प्रतीक : कांवड़ यात्रा उत्तम स्वास्थ्य से भी जुड़ी है। हिंदू धर्म में सावन को हरियाली का प्रतीक माना गया है। चारों तरफ मौजूद हरियाली नंगे पैर चलने वाले कांवड़ियों के मन-मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। ओस से भीगे रास्ते उनके पैरों को ठंडक पहुंचाते हैं, हरियाली आंखों की रोशनी बढ़ाती है और सूर्य की किरणें निरोगी बनाती हैं। पैदल चलने शरीर के वायु तत्व का शमन होता है। पैरों में पड़ने वाले छाले, कांटों की चुभन, धूप, बरसात, गर्मी कांवड़ियों को कष्ट सहने की क्षमता प्रदान करती हैं। कांवड़ यात्रा के दौरान व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण का अवसर मिलता है और उसकी संकल्प क्षमता बढ़ती है।
भगवा वस्त्र की महत्ता : भगवा या केसरिया रंग व्यक्ति के जीवन में ओज, आस्था, साहस और गतिशीलता को बढ़ाता है। आज तरह-तरह की उपचार पद्धतियां प्रचलन में हैं, उनमें एक ‘कलर थैरेपी’ भी है। शरीर के प्रमुख 7 चक्रों में से एक स्वाधिष्ठान चक्र, जो संतुलित होने पर व्यक्ति के अंदर उत्साह की भावना को बढ़ाता है, जो सुस्ती और आलस्य को कम करने में मदद कर सकता है। केसरिया रंग इसी चक्र से संबंधित है, जो पेट संबंधी बीमारियां दूर करता है।
समरसता का संदेश : कांवड़ियों में न तो जातिभेद होता है और न ही अमीर-गरीब का फर्क। सभी आपस में बातचीत करते हुए चलते हैं और ‘बोल बम’ का उद्घोष कर एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते हैं। बिहार में कांवड़िये एक-दूसरे को ‘बम’ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा आदि जगहों पर ‘भोले’ कह कर संबोधित करते हैं। कांवड़ियों के मार्ग में पड़ने वाले गांव-शहरों के लोग उनका स्वागत करते हैं और उनके विश्राम की व्यवस्था करते हैं।
जिहाद का प्रकोप
एक मिशन के तहत मुस्लिम लड़के पहचान छिपाकर हिंदू लड़कियों को लव जिहाद में इस तरह फंसाते हैं कि वह उनके चंगुल से निकल ही न सके। फिर भी कोई हिंदू लड़की इससे बाहर निकलना चाहती भी है तो अक्सर उसकी हत्या कर दी जाती है। ‘नामपट जिहाद’ वैश्विक जिहाद का केवल एक छोटा-सा हिस्सा है। जिहाद करने वाली संस्थाएं पूरी दुनिया में फैली हुई हैं।
तात्पर्य यह है कि बीते 1400 वर्ष से इस्लामी जिहाद का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। भारत इसे बीते 1312 वर्ष से झेल रहा है। इस जिहाद के तहत मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदें बना दी गई और 1990 में कश्मीरी हिंदुओं को घर-बार छोड़ कर देश के दूसरे हिस्सों में शरण लेनी पड़ी। इसी जिहाद के चलते पहले भारत का बंटवारा हुआ, फिर कटे हुए पश्चिमी व पूर्वी हिस्सों से प्रताड़ित हिंदू जान बचाकर भारत आए और शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। यही हाल अफगानिस्तान से आए शरणार्थियों का भी है।
इसे वैश्विक संदर्भ में देखें तो किसी मुसलमान का जान-बूझ कर हिंदू नाम रखना केवल हिंदू तीर्थ यात्रियों से पैसा कमाने की चालबाजी नहीं है। जैसा कि एक हिंदू कांवड़िये ने सोशल मीडिया पर कहा, ‘‘जो गाय को रोटी खिलाते हैं और जो गाय को रोटी के साथ खाते हैं, उन दोनों में भरोसा और भाईचारा स्वाभाविक नहीं है। इसलिए विपक्षी दलों का यह आरोप कि योगी आदित्यनाथ का इरादा मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करवाना है, यह बात ठीक नहीं है। आर्थिक कारणों से कोई कांवड़िया मुस्लिम ढाबे का बहिष्कार नहीं करता। कांवड़िये की नीयत केवल अपने भोजन की सात्विकता को बनाए रखने की होती है।’’
सच यह है कि आर्थिक बहिष्कार की बात किसी हिंदू राजनेता ने नहीं कही है। लेकिन मुसलमानों की तरफ से हिंदुओं के आर्थिक बहिष्कार की बात लगातार होती रहती है। हलाल प्रमाण-पत्र इसका प्रमाण है। शुरू में हलाल का विचार केवल मांस तक सीमित था। अब यह कपड़ों, लिपस्टिक, नमकीन, आटो और न जाने किन-किन उत्पादों पर लागू कर दिया गया है। केरल में एक हलाल बिल्डिंग भी बन गई है। वास्तव में हलाल प्रमाण-पत्र हिंदुओं के आर्थिक बहिष्कार का ऐलान है। कांवड़ियों का कहना है कि कोई भी मुसलमान कभी भी किसी हिंदू के ढाबे पर किसी भी तरह का मांस नहीं खाएगा, क्योंकि मुसलमान सिर्फ हलाल का मांस खाता है। इस पर न तो राहुल गांधी को कोई ऐतराज है, न ममता बनर्जी, अखिलेश और तेजस्वी यादव को। मुसलमान के हलाल मांस खाने के नियम पर योगी आदित्यनाथ ने भी कभी ऐतराज नहीं किया। अर्थात् संविधान के मुताबिक हिंदुओं को भी अपनी धार्मिक शुचिता बनाए रखने का उतना ही अधिकार है।
जब कोई बात गलत होती है तो सभी जानते हैं कि वह बात गलत है। वकील कोई भी दलील दें, सचाई तो वे भी जानते हैं। जब द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तो भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और धृतराष्ट्र सब जानते थे कि ‘मुख्य न्यायालय’ में ‘मुख्य न्यायाधीश’ धृतराष्ट्र के सामने एक जघन्य पाप और अपराध हो रहा है। तब केवल विदुर ने आपत्ति जताई थी। आज ‘नामपट जिहाद’ के खिलाफ आपत्ति जताने वाले पहले व्यक्ति योगी आदित्यनाथ हैं। उनकी आपत्ति के बाद जनमानस में एक सैलाब आ गया है। हाफिज गुलाम सरवर जैसे कुछ मुस्लिम नेताओं ने भी नाम छिपाने की चालाकी पर ऐतराज जताया है। सबसे तीखी टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता नाजिया इलाही खान की है।
उनका कहना है कि वह जब मंदिरों में पूजा करती हैं, तो मुल्ले-मौलाना उन्हें बागी मुस्लिम करार देते हैं। उन्हें बलात्कार और हत्या की धमकियां दी जाती हैं। उनका सीधा-सा सवाल है, ‘‘अगर मैं मूर्ति की पूजा करने पर बागी मुस्लिम कही जाती हूं, तो जो मुसलमान अपने ढाबों पर हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें लगा रहे हैं, वे भी तो बागी मुसलमान ही हुए। जिस काम के लिए मुल्ले-मौलाना मेरी बुराई करते हैं, उसी काम के लिए मुस्लिम ढाबा मालिकों की तरफदारी करते हैं।’’
नाम छिपाना और ग्राहकों को गुमराह करना न तो कानूनी रूप से स्वीकार करने योग्य है, न ही नैतिक रूप से। जो मुसलमान टोपी पहन कर अपनी पहचान जाहिर करने में गर्व महसूस करते हैं और अपनी लड़कियों को स्कूल में हिजाब पहनाने का दबाव बनाते हैं, वही अपना नाम छिपाएं तो कोई भी उसे जायज नहीं ठहरा सकता। जानकारी छिपाने से केवल शक पैदा होता है।
टिप्पणियाँ