भारतीय राजनीति की यह खुली सचाई है कि समान नागरिक संहिता देश के संविधान के अनुरूप होते हुए भी आज तक कानून की शक्ल नहीं ले सकी, क्योंकि मुसलमानों की दबाव की राजनीति निजी मामलों में शरिया की राह चलती है, लेकिन आपराधिक मामलों में उन्हें समान कानून चाहिए, तब वे शरिया के हिसाब से सजा की मांग नहीं करते। 11 दिसंबर, 2019 को देश की संसद ने नागरिकता संशोधन अधिनियम को कानून बना दिया। इसमें बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए प्रताड़ित हिंदू, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध, पारसी शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, तो इस पर मुसलमानों को एतराज है।
बांग्लादेशी मुसलमानों और रोहिंग्याओं को भारत में बसाने के लिए ये प्रदर्शन करते हैं, लेकिन हिंदुओं को अपनी मूल भूमि की ओर वापस आता नहीं देख सकते। यही कारण है कि इन्हें राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर भी आपत्ति है। ये आपत्ति कर सकते हैं, क्योंकि इन्हें पता है कि इनके दबाव और वोट की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल इनका समर्थन करेंगे। इनके नेता देश की संसद में ‘जय फिलिस्तीन’ का नारा लगाते हैं, लेकिन वंदे मातरम् और भारत माता की जय बोलने पर इन्हें मजहबी रूप से एतराज है।
मुसलमान यह चाहते हैं कि फिलिस्तीन के समर्थन में भारत इस्राएल से अपना राजनयिक रिश्ता खत्म कर ले। उनकी इस इच्छा के कारण भी हैं। यह मुसलमानों के दबाव का ही नतीजा था कि लंबे समय तक भारत के इस्राएल से राजनयिक संबंध नहीं थे।
हर तरह की हिंसा और कत्ल-ए-आम के जिम्मेदार यासिर अराफात का भारत सरकार ‘हीर’ की तरह स्वागत करती थी और यही अराफात संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का समर्थन करते थे। मुसलमान हमेशा से दबाव की राजनीति में कामयाब रहे हैं। स्कूलों में ड्रेस कोड से अलग जाकर हिजाब पहनने की जिद हो या फिर ज्ञानवापी परिसर में एएसआई के सर्वे में मिले प्राचीन शिवलिंग को फौवारा बताने का नाटक, उन्हें पता है कि देश का एक राजनीतिक वर्ग उनके इस दबाव और कुतर्कों में उनका समर्थक है।
मुसलमान दुनिया के किसी भी देश में हों, अगर वे अल्पसंख्यक हैं, तो उन्हें विशेष दर्जा, विशेष अधिकार और विशेष सुविधाएं चाहिए। जहां वे बहुसंख्यक हैं, वहां अल्पसंख्यक नाम की कोई आबादी ही नहीं बचती। दुनिया में वामपंथ के उभार के बाद, खासतौर पर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में एक ऐसी विचारधारा, या यूं कहें कि ऐसा ‘इको-सिस्टम’ विकसित होता गया, जो मुसलमानों की पूरी दुनिया पर हरा परचम फहराने की इच्छा को भुनाने लगा। भारत में आजादी से पूर्व या आजादी के बाद (बंटवारा और अपने लिए अलग मुल्क ले लेने के बावजूद) मुसलमान दबाव की राजनीति करते रहे हैं। वे सरकार से मिलने वाली सारी सुविधाएं लेने के बावजूद, अल्पसंख्यक के नाम पर मिलने वाली तमाम रेवड़ियों के बावजूद, संविधान की मनमानी व्याख्या के नाम पर ‘संरक्षण’ के बावजूद असंतुष्ट हैं।
देश में जब भी कांग्रेस की सरकार रही, मुसलमानों के हित व कल्याण उनकी प्राथमिकता में रहे। नेहरू काल से ही कांग्रेस वामपंथी मोह से ग्रस्त रही। वामपंथी या समाजवादी विचारधारा का पहला सूत्र ही मुस्लिमपरस्ती है। दरअसल भारत का मुसलमान कभी मुगलकाल की सोच से बाहर ही नहीं आ पाया। मुगलों के पतन और भारत पर अंग्रेजों के आधिपत्य के दौरान भी मुसलमान अपने आप को विशिष्ट नागरिक मानते रहे। उनके दिल में आजादी से पूर्व और आज तक यह कसक है कि कभी भारत पर उनका हुक्म चलता था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों के भीतर जमे असंतोष को हवा दी। अंग्रेज भारत का प्रतिकार का इतिहास जानते थे। उन्हें पता था कि हिंदुओं ने आठ सौ साल तक मुस्लिम शासकों से संघर्ष किया है। भारत इस मायने में अंग्रेजों के लिए अजूबा था कि यह एशिया का इकलौता देश था, जहां मुसलमान पहुंचे, राज किया, लेकिन पूरे देश को इस्लाम में परिवर्तित न कर सके। हिंदू अपने विश्वास, आस्था और साहस के साथ बहुसंख्यक समाज बना रहा।
दरअसल असंतोष मुसलमानों का मूल स्वभाव है। 1930 आते-आते अलग मुस्लिम देश की मांग बंद कमरों में होने वाली नेताओं की चर्चा से बाहर निकलकर सार्वजनिक होने लगी थी। 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में इकबाल ने मुसलमानों के लिए अलग देश का प्रस्ताव रखा। हालांकि उस समय इसे पाकिस्तान नाम नहीं दिया गया। चौधरी रहमत अली समेत तमाम नेता हालांकि पाकिस्तान की मांग करने लगे थे, लेकिन जिन्ना ने इसका समर्थन 1940 में जाकर किया।
मुस्लिम लीग ने जब मुसलमानों से कांग्रेस के बहिष्कार का ऐलान किया, तो कांग्रेस बुरी तरह बौखला गई। स्वामी श्रद्धानंद ने अपनी पुस्तक ट्रेजिक स्टोरी आफ पाकिस्तान में लिखा है कि कांग्रेस के सम्मेलन में मुसलमानों को बुलाने के लिए दस रुपये (जो कि उस समय बहुत बड़ी रकम थी) तक का भुगतान किया गया। उनके मनोरंजन के लिए अलग शामियाने, खानसामा लगाए गए। मुसलमानों की दबाव की राजनीति की वजह से उनके प्रतिनिधियों को कांग्रेस के हर कार्यक्रम में विशेष स्थान मिलने लगा।
1940 आते-आते मुस्लिम लीग और जिन्ना अंग्रेजों और कांग्रेस पर अपनी पाकिस्तान की मांग को लेकर हावी होने लगे। जिसका नतीजा आखिरकार ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के नाम पर हिंदुओं के देशव्यापी नरसंहार और अंत में भारत के बंटवारे के रूप में सामने आया। तकरीबन सवा करोड़ लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े। बंटवारे की हिंसा में दस लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई। विभाजन हालांकि मजहबी आधार पर हुआ था, लेकिन बंटवारे के बाद भी भारत की कुल आबादी का दस फीसदी हिस्सा मुस्लिम ही रह गया। अलग मुल्क ले लेने के बावजूद मुसलमानों की लीगी राजनीति आजाद भारत में भी जारी रही। संविधान सभा में इन्होंने अपने लिए अलग आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों और आरक्षण जैसी मांगें उठाईं।
नेहरू और कांग्रेस के अंदर तब ऐसे तमाम नेता थे, जो ये मानते थे कि बंटवारे के बावजूद पाकिस्तान न जाने वाले मुसलमानों ने भारत पर एहसान किया है। नेहरू किस कदर मुसलमानों के दबाव में थे, इसके लिए 1950 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की भारत यात्रा पर गौर कीजिए। लियाकत ने नेहरू को सुझाव दिया कि मुसलमानों के लिए अलग आरक्षित क्षेत्र होने चाहिए। नेहरू न सिर्फ इस पर सहमत हो गए, बल्कि इसका ब्लू प्रिंट तक तैयार करने में जुट गए। तत्कालीन लोक निर्माण मंत्री एन.वी. गाडगिल ने अपनी किताब ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ में लिखा है- ‘नेहरू ने कैबिनेट बैठक में लियाकत के साथ हुए समझौते का प्रारूप रखा। इसमें सभी निर्वाचन, नौकरियों में मुसलमानों को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण देने की बात कही गई थी। किसी मंत्री के मुंह से बोल न निकला, लेकिन मैंने आगाह किया कि ये पूरी तरह से कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ है। पहले ही मुसलमानों को निर्वाचन में अलग आरक्षण देने का नतीजा देश भुगत चुका है। आप हमें फिर वही जहर पीने के लिए कह रहे हैं। यह देश के साथ विश्वासघात है।’ तब गाडगिल के विरोध और सरदार पटेल की समझदारी के चलते समझौते में से आरक्षण वाले पैराग्राफ हटा दिए गए। इसे आप कांग्रेस के आज के मुसलमानों को आरक्षण देने के कदम से जोड़कर देख सकते हैं।
मुसलमानों की दबाव की राजनीति निरंतर चलती रही। 1976 में इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेक्युलर (पंथ-निरपेक्ष) शब्द जोड़ा। यह असल में मुसलमानों को खुश रखने के लिए ही किया गया था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह भी शाहबानो मामले में मौलानाओं के दबाव में आ गए। श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के मसले पर कांग्रेस समेत तमाम तथाकथित सेकुलर दल मुसलमानों की पालकी ढोते रहे।
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से राम मंदिर निर्माण का रास्ता निकला और मंदिर बन सका। आज भी मुसलमान उसी तरह से तुष्टीकरण की राजनीति पर सांस ले रहे हैं जैसी वे आजादी के पहले से लेते आए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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