भारतीय संविधान के अनुसार प्रदेश की कानून व्यवस्था को संभालने की जिम्मेदारी संबंधित प्रदेश सरकारों की ही होती है। कानून-व्यवस्था के लिए समय-समय पर राज्य की पुलिस दिशानिर्देश जारी करती रहती है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के एक नोटिस पर छिड़े बवाल ने देश में एक नया विमर्श छेड़ दिया है कि क्या पहचान छिपा कर व्यापार किया जा सकता है और क्या यह नैतिकता है?
श्रावण मास के प्रारंभ होने पर हरिद्वार से गंगाजल लाने के लिए जगह-जगह पर शिव भक्तों का रेला उमड़ता है। देश के कई क्षेत्रों में इस माह में शिवभक्त पवित्र नदियों से जल लेकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। उत्तर भारत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होते हुए हरिद्वार जाकर गंगाजल लाने की परम्परा है। कांवड़ यात्रा के दौरान कानून-व्यवस्था बनी रहे, इसके लिए मुजफ्फरनगर जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने एक नोटिस जारी कर कांवड़ यात्रा मार्ग के दुकानदारों के लिए स्वेच्छा से किए जाने वाले कुछ दिशानिर्देश जारी किए थे।
उधर, मुजफ्फरनगर पुलिस के नोटिस को पूरे उत्तर प्रदेश में लागू करने की बात होने लगी। मुजफ्फरनगर पुलिस ने अपने नोटिस में कहा था कि कांवड़िए श्रावण में कांवड़ यात्रा के दौरान समीपवर्ती राज्यों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश होते हुए भारी संख्या में हरिद्वार से जल लेकर मुजफ्फरनगर जनपद से होकर गुजरते हैं। इस पवित्र माह में बहुत से लोग, खासकर कांवड़िए अपने खान-पान में कुछ खाद्य सामग्रियों से परहेज करते हैं। पूर्व में ऐसे कई मामले प्रकाश में आए थे, जहां कांवड़ मार्ग पर हर प्रकार की खाद्य सामग्री बेचने वाले कुछ दुकानदारों ने अपनी दुकानों के नाम इस प्रकार रखे, जिससे कांवड़ियों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई और कानून-व्यवस्था खराब होने की स्थिति बनी।
ऐसी चीजों को रोकने एवं श्रद्धालुओं की आस्था को ध्यान में रखते हुए कांवड़ मार्ग पर पड़ने वाले होटलों, ढाबों एवं खाने-पीने की सामग्री बेचने वाले दुकानदारों से यह अनुरोध किया गया कि वे स्वेच्छा से अपने मालिक और काम करने वालों का नाम प्रदर्शित करें। इस आदेश का आशय किसी प्रकार का पांथिक विभेद न होकर सिर्फ मुजफ्फरनगर जनपद से गुजरने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा एवं कानून-व्यवस्था को सुचारू रखना था। यह व्यवस्था पूर्व में भी प्रचलित रही है।
नया नहीं यह नियम
खाद्य सुरक्षा और जोखिम को ध्यान में रखते हुए दुकानों पर नाम लिखने का नियम नया नहीं है, परन्तु कानून का अनुपालन नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में यूपीए सरकार ने 2006 में एक कानून बनाया था—खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006। इस अधिनियम को 23 अगस्त, 2006 को राष्ट्रपति ने स्वीकृति दी थी। इसके प्रावधानों को 5 अगस्त, 2011 को जब लागू किया गया, तब केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए (कांग्रेस) सरकार थी। यह अधिनियम खाद्य से संबंधित कानूनों को समेकित करने तथा खाद्य पदार्थों के लिए विज्ञान आधारित मानक निर्धारित करने, उनके विनिर्माण, भंडारण, वितरण, बिक्री और आयात को विनियमित करने, मानव उपभोग के लिए सुरक्षित और स्वास्थ्यवर्धक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने और उससे संबंधित या उसके आनुषांगिक विषयों के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण की स्थापना करने के लिए बनाया गया था।
- खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 की धारा 31 के अनुसार बिना लाइसेंस कोई भी दुकान नहीं चल सकती। दुकानदार के पास यदि ‘फूड लाइसेंस’ नहीं है और वह सामान बेच रहा है तो धारा 63 के अनुसार 6 महीने की सजा और 5 लाख तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- वहीं, बिना पंजीकरण के खान-पान का सामान बेचने वालों के खिलाफ दो लाख रुपये जुर्माना लग सकता है। अधिनियम में ‘फूड लाइसेंस’ की शर्तों के अनुसार पंजीकरण को दुकान के मुख्य स्थान पर प्रदर्शित करना भी अनिवार्य किया गया है।
- नामपट नहीं दिखने की सूरत में दो बार नोटिस के बाद खाद्य सुरक्षा अधिकारी जुर्माना लगा सकते हैं। धारा 53 के अनुसार भ्रमित विज्ञापन पर दस लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है। एक अन्य कानून उत्तर प्रदेश दुकान और वाणिज्य अधिष्ठान अधिनियम, 1962 के अंतर्गत छोटे दुकानदारों का पंजीकरण भी अनिवार्य है।
दंडनीय है पहचान छिपाना
मुजफ्फरनगर पुलिस के नोटिस और भारतीय कानून के अनुपालन में जैसे ही स्थानीय दुकानदारों ने अपनी-अपनी दुकानों पर मालिक के नाम लिखने प्रारंभ किए, दुकानों के नाम बदलने लगे। तब लोगों को यह ध्यान में आने लगा कि दुकानों पर पूर्व प्रदर्शित बोर्ड तो सीधे—सीधे भारतीय कानूनों का उल्लंघन था। मुस्लिम दुकानदारों ने हिंदू नामों, यहां तक कि हिंदू देवी-देवताओं के नाम से भी दुकानें खोल रखी थीं। भारतीय न्याय संहिता (बी.एन.एस.) 2023 के अनुसार यह आपराधिक कृत्य है। बी.एन.एस. की धारा 319 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति कोई अन्य व्यक्ति होने का दिखावा करके या जान-बूझकर एक व्यक्ति को दूसरे के स्थान पर रखकर या यह दर्शा कर कि वह या कोई अन्य व्यक्ति वास्तव में वह या ऐसा अन्य व्यक्ति नहीं है, धोखा देता है तो उसे 5 वर्ष तक कैदया जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
दुकानों पर नए सिरे से गैरकानूनी ढंग से प्रदर्शित नामों ने नया विमर्श छेड़ दिया है कि आखिर मुसलमानों ने हिंदू नामों का प्रयोग क्यों किया? अपनी पहचान छिपाने के पीछे उनका आशय क्या है? भारतीय आपराधिक कानून में दोषी मन (मेन्स रिया) का उल्लेख है जिसका मतलब होता है कि कोई अपराध दुर्भावनापूर्ण या जान-बूझकर नुकसान पहुंचाने की मंशा से किया जाए। दुकानों के बोर्ड पर गलत नाम लिखकर हिंदुओं की भावना से खेलना एक वर्ग विशेष की गलत सोच को ही दर्शाता है।
कर्नाटक में हिजाब विवाद पर मुस्लिम मजहबियों और असदुद्दीन ओवैसी ने मौलिक अधिकारों की दुहाई देते हुए कहा था कि यह हमारी पहचान पर हमला है। परंतु गलत ढंग से छिपाई गई पहचान सामने आने पर पुलिस नोटिस को साम्प्रदायिक रंग देते हुए एक सुनियोजित विवाद शुरू किया गया। आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कांवड़ यात्रा मार्ग पर दुकानदारों को नाम लिखने यानी पहचान बताने के निर्देश पर कहा कि यह भारत में मुसलमानों के प्रति नफरत को दर्शाता है।
सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और इंडी गठबंधन के नेताओं की आलोचना करते हुए ओवैसी ने कहा कि यह ‘घृणा’ राजनीतिक दलों या हिंदुत्व के नेताओं और उन दलों के कारण है जो खुद को ‘पंथनिरपेक्ष’ कहते हैं। इंडी गठबंधन पर ओवैसी के बयान के तुरंत बाद पुलिस के नोटिस पर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी सहित इंडी गठबंधन के लगभग सभी दलों ने प्रश्नचिन्ह खड़े करने शुरू कर दिए।
मुस्लिम तुष्टीकरण क्यों?
जब सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो मामले में ‘समान नागरिक संहिता’ वाली टिप्पणी की थी, तब राजीव गांधी के नेतृत्व में तत्कालीन कांग्रेस सरकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव के आगे झुक गई थी। फैसले को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जमकर नाराजगी जताई थी। उस समय कट्टरपंथियों के विरोध के आगे राजीव गांधी सरकार ने तुष्टीकरण की सीमा पार करते हुए एक नया कानून बना दिया था।
उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सरकार ने 2004 में संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करते हुए उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 लागू कर दिया। सिर्फ एक खास मजहब के व्यक्ति को ही शिक्षा बोर्ड में नियुक्त करके मजहबी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया। हाल ही में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश पर अभी रोक लगा रखी है।
एक वर्ग विशेष के लिए शरिया कानून इस देश में लागू हो, इसकी चिंता कांग्रेस और इंडी गठबंधन की सरकारों के जमाने में खूब की गई। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ तक का निर्णय बदल दिया गया। लेकिन श्रावण मास में कांवड़ यात्रा के दौरान भक्तों की धार्मिक पवित्रता की चिंता जब स्थानीय प्रशासन कर रहा था तो तथाकथित ‘इकोसिस्टम’ ने एक नया बवाल खड़ा कर दिया।
पूरे देश में मुज्जफरनगर पुलिस के नोटिस को साम्प्रदायिक रंग देकर इस ‘इकोसिस्टम’ ने ‘संविधान पर हमला’ बताते हुए एक खतरनाक खेल शुरू कर दिया। पुलिस नोटिस किसी भी दुकानदार पर बाध्यकारी नहीं था, बल्कि दुकानदारों से स्वेच्छा से भ्रम की स्थिति दूर करने के लिए बोर्ड पर नाम लिखने का आग्रह किया गया था। परंतु जैसे ही नाम बदले जाने से गैर कानूनी कृत्य सामने आने लगे, वैसे ही ‘इकोसिस्टम’ सक्रिय हो गया।
युसूफ हातिम मुछाला, पी. उस्मान, जमात-ए-इस्लामी हिंद के मलिक मोहतसिम खान और नदीम खान द्वारा संचालित एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट्स ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल करके उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकार द्वारा कांवड़ यात्रा मार्ग पर भोजन की दुकानों के बाहर मालिकों और कर्मचारियों के नाम प्रदर्शित करने के निर्देश पर रोक लगाने की मांग की। इसी सम्बन्ध में दो अन्य याचिकाएं तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा और अपूर्वानंद झा तथा आकार पटेल की ओर से भी दाखिल की गई हैं।
न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय और एसवीएन भट्टी वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन आॅफ सिविल राइट्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (सिविल रिट संख्या 463/2024) तथा दो अन्य मामलों में नोटिस जारी करते हुए उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकारों द्वारा जारी उन निर्देशों पर अंतरिम रोक लगा दी, जिनमें दुकानदारों को पहचान लिखने का निर्देश था। न्यायालय ने कहा कि इस कार्य के लिए किसी को भी बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। वैसे पुलिस नोटिस में भी स्वेच्छा की ही बात की गई थी जिसकी ओर न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय ने बहस के दौरान इंगित भी किया। लेकिन न्यायालय ने खाद्य विक्रेताओं (ढाबा मालिक, रेस्तरां, दुकानें, फल और सब्जी विक्रेता, फेरीवाले आदि सहित) को निर्देश दिए कि कांवड़ियों को जिस तरह का भोजन वे बेच रहे हैं, उस सूची को उन्हें प्रदर्शित करना ही होगा।
सर्वोच्च न्यायालय में बहस के दौरान निजता के अधिकार, समानता के अधिकार, अस्पृश्यता, स्वंतत्र व्यापार का अधिकार आदि का मुद्दा खूब उठाया गया। निजता का अधिकार किसी मुसलमान को यह अधिकार तो नहीं देता कि वह अपने को हिंदू दर्शाकर हिन्दुओं की भावना से खिलवाड़ करे। सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए भी तो पहचान बतानी ही पड़ती है और ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है कि उन परिस्थितियों में किसी के साथ कोई भेदभाव हुआ हो या कोई अस्पृश्यता का शिकार हुआ हो। दुकानदारों की आर्थिक मौत का मुद्दा भी उठाया गया। परन्तु नाम बदलकर व्यापार करने की स्वतत्रंता की मांग करना कहीं से भी न्यायसंगत नहीं लगता।
हाल के ऐसे घटनाक्रमों से यह अवधारणा बनती जा रही है कि जहां हिंदू हितों, हिंदू संवेदनाओं की बात आती है वहां तथाकथित पंथ निरपेक्षता का प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है, जहां अन्य मतावलंबियों के सम्बन्ध में बात आती है वहां कुरान-बाइबिल इत्यादि की चर्चा छेड़ दी जाती है। मुजफ्फरनगर पुलिस का नोटिस, उत्तराखंड सरकार के दिशानिर्देश किसी कानून का उल्लंघन हैं या नहीं, यह तो सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है लेकिन याचिकाओं की सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि यह कानूनन गलत है। फिर भी नोटिस पर अंतरिम रोक लगा दी। मौलिक अधिकारों की बात करने वाले लोग अपनी पहचान छिपाकर कानूनों की अवमानना व गैरकानूनी कृत्य करते हुए इन अधिकारों की मांग कैसे कर रहे हैं, इसका उत्तर आना अभी शेष है।
(लेखक सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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