बलूचिस्तान के क्वेटा की एक हालिया घटना पर गौर करें। जहीर अहमद बलूच के लापता होने के मामले में आतंकवाद निरोधी बल (सीटीडी) के अज्ञात अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है और परिवार को आश्वस्त किया गया है कि जहीर को खोज निकालने की हर कोशिश की जाएगी। इसके बाद परिवार ने 15 दिन के लिए धरना स्थगित कर दिया। यह बात जरा सी लग सकती है, लेकिन ऐसा नहीं है। इसके पीछे कई महत्वपूर्ण कारण हैं।
जहीर अहमद बलूच को 27 जून को अगवा किया गया था और तभी से उसके परिवार वाले प्रदर्शन कर रहे थे। 11 जुलाई को परिवार वालों और बलूच यकजेहती कमेटी (बीवाईसी) ने क्वेटा के रेड जोन में प्रदर्शन का फैसला किया जहां पुलिस ने लोगों पर हमला बोल दिया। इसमें कई लोग घायल हो गए। 21 लोगों को हिरासत में ले लिया गया। अगले दिन पुलिस ने गिरफ्तार प्रदर्शनकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की। बलूचिस्तान के गृह मंत्री जियाउल्लाह लैंगू ने शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे लोगों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई को सही बताया। लेकिन इसी के बाद स्थितियां बदलती चली गईं।
बढ़ता गया प्रदर्शन का आकार
जब तक जहीर के परिवार वाले प्रदर्शन कर रहे थे और उसमें कुछ ही लोग भाग ले रहे थे, प्रशासन ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन फिर धीरे-धीरे बात फैली प्रदर्शन में और लोग शामिल होते चले गए। बीवाईसी और इसकी नेता मेहरंग बलूच भी इसमें सक्रिय भूमिका में थीं और फिर देखते-देखते यह धरना-प्रदर्शन महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाला एक बड़ा आंदोलन बन गया। यहीं से प्रशासन के माथे पर बल पड़ना शुरू हुआ और जैसे ही 11 जुलाई को लोग धरने के लिए पहुंचे, पुलिस टूट पड़ी। पुलिस ने एक बार फिर इंतजार करके तापमान मापने का फैसला किया। लेकिन पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ अगले दिन से ही जिस तरह लोग एकजुट होने लगे, उसे देखते हुए प्रशासन ने आखिरकार 14 जुलाई को प्रदर्शनकारियों को समझा-बुझाकर धरना खत्म कराया। प्रदर्शनकारियों का आरोप था कि जहीर को सीटीडी के लोगों ने अगवा किया है, इसलिए इस बदनाम विभाग के अज्ञात अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया। इसके साथ ही जहीर का पता लगाने के लिए बनाई गई टीम में प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधि भी शामिल किए गए।
इसलिए फूलते हैं हाथ-पैर
बलूचिस्तान में बीते वर्षों का यही अनुभव है कि जिस भी प्रदर्शन में महिलाओं ने आगे रहकर भूमिका निभाई, उसमें कहीं बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए और आंदोलन को दबाने में हुकूमत के पसीने छूट गए। कह सकते हैं कि पिछले साल नवंबर के महीने में निकाली गई रैली ने हुकूमत को पसोपेश में डाल दिया कि करे तो करे क्या। तब 1600 किलोमीटर लंबी यात्रा निकाली गई थी जो ईरान की सीमा से लगते केच जिले से शुरू होकर इस्लामाबाद पहुंची थी। इस मार्च का महिलाओं ने आगे रहकर नेतृत्व किया था। अपने पति-बेटे समेत परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों को अगवा किए जाने के खिलाफ सड़कों पर उतरीं इन महिलाओं ने बलूचिस्तान ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान के अन्य इलाकों के उन लोगों को भी इस मार्च में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जो मानवाधिकारों के प्रति चिंतित थे।
इस रैली में बड़ी संख्या में महिलाओं ने तो भाग लिया ही, कॉलेजों में पढ़ाई करने वाली लड़कियां भी इसका हिस्सा बनीं। देखते-देखते इस रैली में मार्च करने वालों की संख्या हजारों में पहुंच गई और पाकिस्तान सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थी। तब तक रैली सुर्खियों में आ चुकी थी और इस रैली को जोर-जबरदस्ती से रोकने का असर यह होता कि पूरे पाकिस्तान में बवाल मच जाता।
उस रैली की जड़ में भी एक अकेली घटना थी। 24 साल के हयात बलूच एक छात्र नेता थे जो बलूचिस्तान में लोगों को जबरन लापता कर दिए जाने के खिलाफ आवाज बुलंद किया करते और मानवाधिकार उल्लंघनों के खिलाफ फौज को निशाने पर लेते थे। 13 अक्तूबर, 2022 को फौज ने हयात की हत्या कर दी और इसका समाज पर ऐसा असर हुआ कि जगह-जगह छोटे-छोटे विरोध समूह खड़े हो गए।
बस जरूरत थी उन्हें एक केंद्रीकृत शक्ति की जो उन्हें अपनी ओर खींचकर उन्हें एक सामूहिक आकार दे सके। महिलाओं के नेतृत्व में निकाली गई 1600 किलोमीटर की उस यात्रा ने उसी शाक्ति केंद्र का काम किया। उसके बाद से जितने भी प्रदर्शन हुए, अगर उसमें महिलाओं ने आगे रहकर नेतृत्व संभाला, तो हुकूमत की रणनीति यही रही कि किसी तरह मामले को ठंडा कर दिया जाए।
बलूच समाज में महिलाओं का सम्मान
परंपरागत रूप से बलूच समाज में महिलाओं को ऊंचा दर्जा हासिल है जबकि पाकिस्तान के अन्य इलाकों में औरतों की स्थिति अच्छी नहीं रही है। बलूच महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर कहीं अधिक अधिकार-संपन्न रही हैं। अंग्रेजों ने इस बात का बलूचिस्तान गजेटियर में भी जिक्र किया है।
बलूचों की इस पारंपरिक खूबी की जानकारी पाकिस्तान की हुकूमत को भी अच्छी तरह रही है। इसीलिए एक समय उसकी रणनीति में बलूच औरतों पर जुल्म करके बलूच समाज के हौसले को तोड़ना भी शामिल था। इसी दौर में खास तौर पर बलूच महिलाओं को अगवा करके फौजी ठिकानों पर ले जाने और फिर उन्हें मार देने, बेच देने और कुछ मामलों में छोड़ देने का सिलसिला चलता रहा। यह और बात है कि इससे बलूचों का हौसला टूटा नहीं, बल्कि ऐसे हर मौके पर उनका खून खौल उठता और इसका खामियाजा फौज और उसके गुर्गों को अपना खून बहाकर भुगतना पड़ता।
उसके बाद एक दौर ऐसा आया जब परंपरागत रूप से हर तरह की गतिविधि में शामिल रहने वाली बलूच महिलाओं ने प्रदर्शन वगैरह में प्रमुख भूमिका निभानी शुरू कर दी। वक्त बीतने के साथ केवल इतना हुआ कि अब जब भी महिलाएं इस तरह का कोई आयोजन करती हैं तो उसके पीछे समाज खड़ा हो जाता है और किसी खास इलाके में हुई घटना उस भौगोलिक सीमा में कैद नहीं रह पाती। चंद दिनों के भीतर ही उसका प्रभाव क्षेत्र तेजी से फैल जाता है। ऐसा हाल-फिलहाल कई मामलों में देखा गया है।
आज बलूचिस्तान को सबसे मजबूती से एकजुट करने वाला जो मुद्दा है, वह है लोगों की गुमशुदगी। अभी बलूचिस्तान में सरकार के खिलाफ कई धाराएं काम कर रही हैं। कोई छामापार लड़ाई के जरिये बलूचिस्तान की आजादी चाहती है, तो कोई शांतिपूर्ण प्रतिरोध से आजादी चाहती है। वहीं, एक धारा ऐसी है जो बलूचिस्तान की धरती के बाहर से देश की आजादी के लिए आंदोलन चला रही है। इन सबमें सबसे लोकप्रिय धारा है अगवा लोगों के खिलाफ एकजुट हो जाने वाले लोगों की। बेशक, इसमें कई संगठन सक्रिय हैं, लेकिन जब भी किसी विरोध-प्रदर्शन का आयोजन होता है तो व्यक्तिगत अनुभवजनित दर्द लोगों को इनकी ओर खींच लाता है।
यह समस्या कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2018 में बलूच नेशनल पार्टी के नेता अख्तर मेंगल ने विभिन्न मानवाधिकार समूहों के सहयोग से तैयार लापता लोगों की एक सूची तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान को सौंपी थी।
इसमें पांच हजार से ज्यादा लोगों के नाम थे और यह विवरण भी था कि वह किस इलाके से कब लापता हुए। इमरान इस मामले में कुछ भी नहीं कर पाए और आज भी आंखों में खटकने वालों को अगवा कर गायब कर देना फौज का पसंदीदा तरीका है। लेकिन एक बात याद रखी जानी चाहिए, बलूच समाज की यह सबसे बड़ी समस्या ही उसे एक सूत्र में बांध रही है और यही प्रेरणा बनी है महिलाओं के आगे आकर बड़ी भूमिका निभाने में।
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