सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को लेकर 10 जुलाई को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। न्यायालय ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) के तहत अपने पति से भरण-पोषण की हकदार है। वे धारा 125 के तहत याचिका दायर कर अपने पति से भरण पोषण के लिए गुजारा भत्ते की मांग कर सकती हैं।
दरअसल अब्दुल समद नाम के व्यक्ति को पिछले दिनों तेलंगाना उच्च न्यायालय ने अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। इसके विरोध में अब्दुल समद ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। इसमें कहा गया था कि उसकी पत्नी सीआरपीसी की धारा 125 के अंतर्गत गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है। महिला को मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 के अनुरूप ही भत्ता मिलेगा। इस अधिनियम के तहत गुजारा भत्ता सिर्फ इद्दत की अवधि तक ही दिया जाता है, जो तीन महीने की होती है। इसलिए वह सिर्फ तीन महीने तक ही गुजारा भत्ता पाने ही हकदार है। इस याचिका पर न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आगस्टीन जॉर्ज मसीह ने फैसला दिया। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि सीआरपीसी की धारा 125 हर पंथ की महिलाओं पर लागू होगी।
1985 में भी इंदौर की रहने वाली तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो ने अपने पति से गुजारा भत्ता पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। मामले की सुनवाई करते हुए तब सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया। न्यायालय ने शाहबानो के पति मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। फैसला आने के बाद कट्टरपंथी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस फैसले का विरोध शुरू कर दिया।
कांग्रेस, जो हमेशा से मुस्लिमों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती आई थी, उसे अपना वोट बैंक छिटक जाने का भय पैदा हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के आगे झुक गई। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए सरकार मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 लेकर आई और सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को पलट दिया।
अब एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं के हक की बात करते हुए फैसला दिया है। इस फैसले को लेकर फिर कट्टरपंथी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सवाल उठा रहे हैं। कट्टरपंथी मुसलमान इस फैसले को शरीयत के खिलाफ बता रहे हैं। उनका कहना है कि भारत के मुसलमानों पर शरीयत एक्ट 1937, और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 ही लागू होता है।
भड़काने का प्रयास कर रहे कट्टरपंथी
इस फैसले को लेकर कुछ कट्टरपंथी मुसलमान इस्लाम के रिवाजों और शरीयत का हवाला देकर लोगों को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं। यह भारत की कानून व्यवस्था को आंखें दिखाने जैसा है। उनके द्वारा समान नागरिक संहिता के मूल विचारों के विरुद्व जाकर अलगाववादी विचारधारा को पोषित करने का प्रयास किया जा रहा है जो एक गहरी साजिश की तरफ इशारा करता है।
शाहबानो केस में भी ऐसा ही हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने जब इस मामले में फैसला दिया था तो समान नागरिक संहिता पर भी बहस शुरू हो गई थी। तब मजहब के आधार पर नागरिक कानूनों में छूट दिए जाने को लेकर भारत के बुद्धिजीवियों ने सवाल उठाने का प्रयास किया था लेकिन उनको नहीं सुना गया। अब फिर से तथाकथित मुस्लिम संस्थाएं, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस फैसले पर सवाल उठाने और दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस बात को बहुत ही गंभीरता से देखना होगा कि जब भी भारत में मुस्लिम महिलाओं को असली सम्मान देने की बात आती है तब तथाकथित मुस्लिम नेता इस बात को पूरी तरह से खारिज कर देते हैं। यहां तक कि भारत के कानूनों और अदालत के फैसलों को भी चुनौती देने की कोशिश करते हैं। तीन तलाक पर कानून आने के बाद भी कट्टरपंथी मुसलमानों और मौलवियों ने तीन तलाक जैसी कुप्रथा को आज तक जीवित रखा हुआ है। आएदिन देश के विभिन्न शहरों से ऐसी खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। बहुत से मामलों में तो मीडिया को इसकी जानकारी नहीं मिल पाती है। कट्टरपंथी शरीयत को भारत के कानून से ऊपर मानते हैं, जो खतरनाक है। शीर्ष न्यायालय का यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक है जो मुस्लिम महिलाओं के हक पर मुहर लगाता है।
कट्टरपंथी नहीं चाहते तरक्की
कट्टरपंथी मुल्ला तरक्की की तरफ ध्यान नहीं देते हैं बल्कि दीन की और शरीयत गलत व्याख्या करके लोगों को भटकाने का प्रयास करते हैं। वे मुस्लिम समाज को आधुनिक शिक्षा, विज्ञान, भारतीय संस्कृति और देशप्रेम की बातें नहीं बताते हैं। इसकी बजाए उन्होंने मुस्लिम समाज को मदरसा, कब्रिस्तान और वक्फ जैसे मुद्दों में ही उलझाकर रख दिया है। आएदिन वे भड़काने वाली बयानबाजी करके और फतवे निकाल कर मुसलमानों को भटकाने का ही काम करते हैं। मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर भी कट्टरपंथी ही भ्रम फैलाते हैं।
शिक्षा का स्तर बढ़ाना जरूरी
मुसलमानों में शिक्षा का स्तर बढ़ाए जाने की जरूरत है। वह दीनी तालीम लेना चाहते हैं तो भले ही लें, लेकिन केवल दीनी तालीम से काम नहीं चलेगा। उन्हें आधुनिक विज्ञान व अन्य विषयों के साथ—साथ भारतीय संस्कृति, भारत के इतिहास को भी पढ़ने की जरूरत है। जब मुस्लिम युवाओं से आधुनिक विज्ञान और ऐसे अन्य विषयों को लेकर बात की जाती है वह असहज नजर आते हैं। असहजता उनके चेहरे पर साफ नजर आती है क्योंकि उन्हें ऐसे विषयों की शिक्षा ही नहीं दी जाती है, इसके चलते उन्हें अन्य लोगों से तालमेल बिठाने में दिक्कत होती है। जाहिर तौर पर यह उनकी तरक्की को भी प्रभावित करता है। तरक्की के लिए यह जरूरी है कि उनका शिक्षा का स्तर अच्छा हो।
उदारवादी आएं आगे
इस्लाम में उदारवादी और सकारात्मक सोच रखने वाले मुसलमानों को आगे आकर इस फैसले के पक्ष में बोलने की जरूरत है। उन्हें आगे आकर कट्टरपंथियों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और लोगों को बताना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय का गुजारा भत्ता फैसला मुस्लिम समाज की महिलाओं के हक में है। यह मुस्लिम समाज को एक अच्छी दिशा में ले जाने का प्रयास है। मुस्लिम समाज को चाहिए कि वह मुल्ला के इस्लाम से मुक्त होकर सकारात्मकता के साथ देश की तरक्की में योगदान दें।
(लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
टिप्पणियाँ