काँवड़ यात्रा आरंभ होने वाली है और इसे लेकर हर प्रकार की तैयारियों के मध्य यह भी तैयारी की गई है कि हर खाने-पीने की वस्तुओं को बेचने वाले अपने नाम से ही दुकान का नाम रखें। जैसे ही यह कदम उत्तर प्रदेश पुलिस ने उठाया, वैसे ही कट्टरपंथी मुस्लिम भड़क गए। और इस निर्णय का विरोध तो होने ही लगा, इसे ओवैसी जैसे लोग मुस्लिमों के जीनोसाइड से जोड़ने लगे। ओवैसी ने जीनोसाइड का अध्ययन काफी किया है, मगर उन्होंने भारतीय संविधान का अध्ययन शायद नहीं किया है, जो हर व्यक्ति को उसकी धार्मिक परंपराओं का पालन उसके धर्म के अनुसार करने का अधिकार देता है।
यह कानूनी रूप से भी अनिवार्य है कि जो व्यक्ति का नाम है, उसी नाम से उसका व्यावसायिक प्रतिष्ठान हो। इसमें क्या गलत है? हर धार्मिक यात्रा में कुछ ऐसी परम्पराएं होती हैं, जिन्हें मात्र वही समझ सकता है जो उस परंपरा का स्वयं पालन करता हो। और काँवड़ यात्रा कोई साधारण एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा न होकर ऐसी यात्रा है जिसमें एक भक्त अपनी भक्ति के कारण जाता है और इसमें शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि यह जानना किसी भी यात्री के लिए आवश्यक है कि वह जिससे फल या अन्य वस्तु खरीद रहा है, क्या वह शुद्धता के मानकों पर खरी हैं?
इसमें धर्म या धार्मिक भेदभाव कहीं से भी मामला नहीं है, यह धार्मिक अधिकारों के पालन का मामला है। ओवैसी ने जिस शब्द का उल्लेख किया है, कि जर्मनी में इसे Judenboycott अर्थात यहूदियों के व्यापारों का बहिष्कार कहा गया था, तो उन्हें यह समझना होगा कि फलों के ठेलों और दुकानों पर नाम लिखने से बहिष्कार कैसे हो सकता है? यहूदियों ने अपने किसी भी कृत्य से शेष जर्मनी के नागरिकों के दिलों में वह अविश्वास उत्पन्न नहीं किया था, जो पिछले दिनों कुछ कृत्यों के कारण उत्पन्न हुआ है। और फिर हलाल जैसी प्रक्रियाओं पर भी बात की जानी चाहिए, क्योंकि असली आर्थिक जीनोसाइड तो वही करती हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम परस्पर पारदर्शिता के लिए आवश्यक है। यह कदम इसलिए आवश्यक है कि जो काँवड़ यात्रा कर रहा है, वह अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुसार खानपान के नियमों का पालन कर सके और दूसरा यह हर उपभोक्ता का अधिकार है कि वह जाने कि वह किससे वस्तु को खरीद रहा है। इसमें बहिष्कार जैसी बात कहाँ से आ गई?
और ओवैसी ही नहीं बल्कि भड़काने वाले कई लोग इस दिशा में सक्रिय हो गए हैं, जो एक कानूनी रूप से आवश्यक निर्णय को धर्म का लबादा पहना रहे हैं। जबकि पुलिस द्वारा जो कहा गया है, उसमें किसी भी धर्म का उल्लेख नहीं है। मात्र यह कहा गया है कि जहां से भी काँवड़िए कुछ खान-पान की सामग्री खरीदें, वहाँ पर वे अपने प्रोपराइटर और काम करने वालों के नाम जरूर डिस्प्ले करें, जिससे कि काँवड़ियों के लिए कन्फ्यूजन न हो!
मगर हैरानी की बात यह है कि जो वर्ग आज काँवड़ियों के लिए बने इस साधारण नियम की आलोचना करने के साथ ही इसे न जाने कहाँ-कहाँ से जोड़ रहा है, वही वर्ग अपनी विशेष मजहबी पहचान को कायम रखने के लिए हर प्रकार की जोड़-तोड़ करता है।
उनकी महिलाओं की मजहबी पहचान दिखे, इसलिए वे चाहते हैं कि हिजाब स्कूलों तक में पहनने की अनुमति मिले और उनके अपने खानपान ही नहीं बल्कि हर चीज “हलाल” प्रमाणित हो। वह उनका विश्वास है कि उनके मजहबी यकीनों के अनुसार ही प्रोसेस की गई चीजें ही वे खरीदेंगे, फिर वे काँवड़ियों को यह अधिकार क्यों नहीं देना चाहते हैं कि वे जहां से फल आदि खरीदें, उसका नाम उन्हें पता होना चाहिए।
पिछले कई वर्षों से ऐसे वीडियो सामने आए हैं, ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें कुछ मुस्लिम फल और सब्जी विक्रेता फल एवं सब्जियों को दूषित करते हुए पाए गए हैं। फलों और सब्जियों पर थूकने के कई वीडियो सामने आए, तंदूरी रोटी में थूक मिलाकर सेंकने के वीडियो सामने आए और सबसे बड़ा दुर्भाग्य इस बात का कि जो लोग आज फलों और शेष खाने पीने की चीजों के ठेलों आदि पर नाम लिखने का विरोध कर रहे हैं, वे ऐसी घटनाओं का विरोध करते नजर नहीं आए।
जो भी घटनाएं सामने आईं, उनसे हिन्दू समुदाय के उन लोगों के मन में भय का संचार हुआ जो अपनी पूजा आदि जैसे पवित्र कार्यों के लिए फल बिना जाँच-पड़ताल के खरीदा करते थे। यह प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि आखिर ऐसे गलत कृत्यों का विरोध क्यों नहीं किया गया? पिछले दिनों मेरठ से ही एक वीडियो सामने आया था, जिसमें वकीलों ने किसी मोहम्मद इस्लाम को पकड़ा था और ऐसा दावा किया गया था कि वह फलों को मूत्र से धो रहा था। हालांकि पुलिस ने वीडियो की पुष्टि नहीं की थी। मगर फिर भी न जाने कितने वीडियो हैं जिनमें नाली से सब्जियों को धोया जा रहा है।
यह भी प्रश्न है कि हर जगह हलाल मांस और हलाल चीजें खरीदने की जिद्द करने वाले लोग, इस साधारण सी बात को क्यों नहीं समझ रहे हैं कि काँवड़ यात्रा करने वालों के भी अपने धार्मिक अधिकार हैं। और हलाल के नाम पर हिंदुओं के साथ जीनोसाइड प्रक्रिया कहीं न कहीं की जा रही है, क्योंकि उन्हें आर्थिक रूप से एक प्रक्रिया से लगभग बाहर ही कर दिया जाता है या फिर उन्हें उन नियमों का पालन करना पड़ता है, जो मजहब के यकीन के अनुसार है।
परंतु ज़ुबैर और ओवैसी जैसे लोग हिंदुओं को उनकी पवित्र यात्रा करने के लिए भी अधिकार नहीं देना चाहते हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर ज़ुबैर को लोग उत्तर दे रहे हैं, कि यह प्रशासन का अच्छा कदम है, क्योंकि लोग कहीं फल में थूक मिला रहे हैं, कहीं सब्जी नाली में धो रहे हैं।
दुर्भाग्य की बात यही है कि एक सामान्य प्रक्रिया को भेदभावपरक बताया जा रहा है, जो कानूनी रूप से भी अनिवार्य है और नैतिक रूप से और उसके कारण हलाल आदि प्रक्रियाओं के माध्यम से स्वयं द्वारा किया जा रहा वास्तविक भेदभाव छिपाया जा रहा है, जिसमें गैर मुस्लिमों को लगभग व्यापार से बाहर ही कर दिया जाता है या फिर उनके नियमों के अनुसार ही व्यापार करने दिया जाता है।
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