इसके पहले शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि भारतीय प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा पर सारी दुनिया की निगाहें इतनी गहराई से लगी हों, जितनी गहराई से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूस यात्रा को लेकर लगी हुई थीं। इसका एक बड़ा कारण तो यही था कि भारतीय प्रधानमंत्री तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के तहत एक ऐसे समय रूस जा रहे थे, जब यूक्रेन युद्ध समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। पश्चिमी देश विशेष रूप से अमेरिका, रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से इस प्रयास में हैं कि भारत उनके पाले में आए और उनकी भाषा बोले। भारत इस युद्ध से असहमति तो जताता रहा, लेकिन पश्चिमी देशों के पाले में खड़ा होने और उनकी भाषा बोलने के लिए तैयार नहीं हुआ।
स्वतंत्र विदेश नीति
भारत रूस-यूक्रेन मामले में अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर जोर देता रहा और यह बार-बार दोहराता रहा कि उसके लिए अपने हित सर्वोपरि हैं। पश्चिमी देशों को भारत का यह रवैया रास नहीं आया। वे यह जतन करते रहे कि भारत रूस से अपनी दूरी बढ़ाए और रक्षा उपकरणों के मामले में उस पर अपनी निर्भरता भी घटाए। वास्तव में युद्धक सामग्री के मामले में निर्भरता तो किसी भी देश पर नहीं होनी चाहिए- वह चाहे रूस हो या अमेरिका। यदि भारत को वास्तव में आत्मनिर्भर बनना है तो उसे सबसे पहले अपनी सैन्य सामग्री के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करनी होगी।
खरा बोले मोदी
इस पर हैरानी नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी की मास्को में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के साथ गर्मजोशी भरी मुलाकात से पश्चिमी देश जल-भुन-से गए हैं। अमेरिका ने भारतीय प्रधानमंत्री की रूस यात्रा पर चिंता व्यक्त की तो यूक्रेन के राष्ट्रपति बिना सोचे-समझे भारतीय प्रधानमंत्री पर हमलावर हो गए। वैसे यह मानने के अनेक कारण हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के इस कथन का संज्ञान लेने के पहले ही अपनी निराशा व्यक्त कर दी कि युद्ध, संघर्ष अथवा आतंकी हमलों में जब नागरिकों और विशेष रूप से मासूम बच्चों की जान जाती है तो हृदय छलनी हो जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने यह दोहराने से भी संकोच नहीं किया कि समस्या का समाधान युद्ध भूमि पर नहीं हो सकता।
उन्होंने जब पुतिन के समक्ष कीव में बच्चों के अस्पताल में मिसाइल हमले में गई जानों का जिक्र किया, तब रूसी राष्ट्रपति के हाव-भाव से यह साफ दिखा कि वे असहज हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने रूसी राष्ट्रपति को इसी तरह करीब दो वर्ष पहले समरकंद में भी तब असहज किया था, जब उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट को कहा था कि यह युग युद्ध का नहीं है। उनके ऐसे खरे बयानों के बावजूद पश्चिमी देश यह स्वीकार नहीं कर पा रहे कि भारत अपनी स्वतंत्र नीति पर कायम रहते और अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए रूस से संबंध तोड़ने अथवा उससे दूरी बनाने के लिए उस तरह तैयार नहीं है, जैसी दूरी पश्चिमी देशों ने बना रखी है और उस पर तरह-तरह के आर्थिक प्रतिबंध भी लगा रखे हैं।
पश्चिमी देशों को भारत से केवल यही शिकायत नहीं है कि वह रूस से दूरी क्यों नहीं बना रहा है। उन्हें इससे भी समस्या है कि वह उससे कच्चा तेल क्यों खरीद रहा है? यह तब है, जब भारत बार-बार यह स्पष्ट कर चुका है कि वह अपने लोगों की हितों की रक्षा और ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए जो भी संभव होगा, करेगा।
संकट में साथ रहा रूस
भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि रूस ने सदैव संकट के समय उसकी सहायता की है। यह बात विचित्र है कि अमेरिका यह तो चाहता है कि भारत रूस से रक्षा सामग्री न खरीदे, लेकिन वह भारत की जरूरत के अनुरूप सैन्य सामग्री और उच्च तकनीक देने के लिए तैयार नहीं है। भारत को इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि अमेरिका किस तरह खालिस्तानी अतिवादियों और आतंकवादियों को जान-बूझकर संरक्षण देने में लगा हुआ है। वह अपने यहां सक्रिय खालिस्तानी चरमपंथियों के खिलाफ भारत की शिकायतों के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं कर रहा। खालिस्तानी आतंकी गुरुपतवंत सिंह पन्नू को तो वह खुलेआम संरक्षण देने में लगा हुआ है। यही काम उसके मित्र देश और विशेष रूप से आई-5 कहे जाने वाले देश भी करने में लगे हुए हैं।
इस मामले में कनाडा ने तो समस्त कूटनीतिक शिष्टाचार का ही परित्याग कर दिया है, लेकिन उसके अलावा ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया भी खालिस्तानियों को संरक्षण देने में लगे हुए हैं। इन दोनों देशों ने उन खालिस्तानी अतिवादियों के खिलाफ कहीं कोई कार्रवाई नहीं की, जिन्होंने भारतीय राजनयिकों को धमकाया अथवा हिंदू मंदिरों को निशाना बनाया। पश्चिमी देश भारत से मैत्री संबंधों को मधुर करने का गाना भी गाने में लगे हुए हैं और भारतीय हितों की रक्षा करना तो दूर, उनकी चिंता करने से भी इन्कार कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि भारत को पश्चिमी देशों की आवश्यकता नहीं है, लेकिन ऐसी ही आवश्यकता उन्हें भी है। यही बात रूस पर लागू होती है। भारतीय प्रधानमंत्री की रूस यात्रा पर स्वाभाविक रूप से चीन की भी निगाह लगी हुई थी। उसने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि प्रधानमंत्री मोदी ने यह दिखा दिया कि वे अमेरिका के प्रयासों के बावजूद रूस से दूरी बनाने के लिए तैयार नहीं, लेकिन भारत को इस पर ध्यान देना होगा कि यूक्रेन युद्ध के बाद से रूस की चीन पर निर्भरता बहुत अधिक बढ़ गई है। यह भारतीय हितों के लिए शुभ नहीं है। चीन पर रूस की निर्भरता जितनी अधिक बढ़ेगी, भारत के लिए चीन की चुनौती उतनी ही अधिक बढ़ेगी। दुर्भाग्य से पश्चिमी देश यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि यूके्रन के मामले में रूस की जायज चिंताओं की अनदेखी कर उन्होंने उसे चीन की गोद में बैठाने का काम किया है। स्पष्ट है कि भारत को जितना अधिक चीन से सतर्क रहना होगा, उतना ही अमेरिका से भी। इसके साथ भारत को इस पर भी विचार करना होगा कि वह चीन के साथ अपना व्यापार घाटा कम क्यों नहीं कर पा रहा है?
कोविड महामारी के बाद पश्चिमी देशों की जो अनेक कंपनियां चीन से बाहर निकलीं, उनमें से कुछ ने ही भारत की ओर रुख किया। भारत को उन कारणों की पहचान कर उनका निवारण करना होगा, जिनके चलते चीन से निकलने वाली पश्चिमी देशों की कंपनियों ने भारत के बजाय अन्य एशियाई देशों को अपना ठिकाना बनाना बेहतर समझा। भारत को यह भी कोशिश करनी होगी कि रूस के साथ उसका व्यापार संतुलन कायम हो। यह आसान नहीं है, क्योंकि भारत उन वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर पा रहा है, जिनकी आवश्यकता रूस के साथ विश्व के अनेक देशों को है।
(लेखक दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर हैं)
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