भारत के वैज्ञानिकों में एक प्रमुख और सम्मानित नाम थे- डॉ. होमी जहांगीर भाभा। परमाणु भौतिकी में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण ‘भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक’ के रूप में भी उनका नाम सम्मान से लिया जाता है।
भारत के वैज्ञानिकों में एक प्रमुख और सम्मानित नाम थे- डॉ. होमी जहांगीर भाभा। परमाणु भौतिकी में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण ‘भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक’ के रूप में भी उनका नाम सम्मान से लिया जाता है। अपने असामयिक निधन से पहले डॉ. भाभा ने आल इंडिया रेडियो पर एक महत्वपूर्ण बयान दिया था। न्होंने केवल 18 महीनों के भीतर प्लूटोनियम से परमाणु बम विकसित करने की भारत की क्षमता का संकेत दिया था।
लेकिन बहुत सी संदिग्ध बातें सामने आई हैं। विशेष रूप से ‘कन्वर्सेशन विद द क्रो’ पुस्तक से। यह पुस्तक सीआईए के संचालन निदेशालय के शीर्ष से दूसरे स्थान के कमांडर रॉबर्ट टी. क्रॉली के साथ पत्रकार ग्रेगरी डगलस के साक्षात्कार पर आधारित है। रॉबर्ट ट्रंबुल क्रॉली कभी सीआईए के गुप्त संचालन प्रभाग के नेता थे। सीआईए के भीतर उन्हें ‘द क्रो’ के नाम से जाना जाता था। रॉबर्ट टी. क्रॉली सीआईए की स्थापना के समय ही उसमें शामिल हुए थे। उनका पूरा करिअर सीआईए योजना निदेशालय में बीता, जिसे ‘डर्टी ट्रिक्स विभाग’ के रूप में जाना जाता है। बॉब क्रॉली से पत्रकार ग्रेगरी डगलस की टेलीफोन पर वार्तालाप की शृंखला चार साल तक चली।
भाभा की मृत्यु सुनियोजित साजिश!
बहरहाल, इस बातचीत पर आधारित पुस्तक में संकेत दिया गया है कि 24 जनवरी, 1966 को आल्प्स के पास हुई जिस दुखद विमान दुर्घटना में डॉ. होमी जहांगीर भाभा का निधन हुआ था, उसमें सीआईए की भूमिका हो सकती है। यह संकेत एक कथित सुनियोजित चौंकाने वाले खुलासे की ओर इशारा करता है। माने भारत विरोधियों के उन अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों की ओर, जिनमें भारतीय वैज्ञानिकों की रहस्यमय मौतें शामिल हैं।
कोई संदेह नहीं कि सीआईए या अन्य खुफिया एजेंसी किसी हत्या या किसी मानव वध के लिए (जिनमें संदिग्ध परिस्थितियों में आत्महत्या शामिल है) कोई सुराग नहीं छोड़ती है। सीआईए शुरू से इस नियम का पालन करती आ रही है।
24 जनवरी, 1966 को 0702 यूटीसी पर, एयर इंडिया की उड़ान संख्या-101, बोइंग 737-437 जिसका नाम कंचनजंगा था, नई दिल्ली, बेरूत और जिनेवा के रास्ते मुंबई से लंदन के अपने नियमित मार्ग पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में 106 यात्री और 11 चालक दल के सदस्य सवार थे। फ्रांस में माउंट ब्लैंक पर्वत के दक्षिण-पश्चिम हिस्से पर ग्लेशि
अपने असामयिक निधन से पहले डॉ. भाभा ने आल इंडिया रेडियो पर एक महत्वपूर्ण बयान दिया था। उन्होंने केवल 18 महीनों के भीतर प्लूटोनियम से परमाणु बम विकसित करने की भारत की क्षमता का संकेत दिया था।
यर डेस बॉसन्स (बोसंस ग्लेशियर) में हुई विमान दुर्घटना में कोई यात्री जीवित नहीं बचा। इनमें डॉ. भाभा भी एक थे। उनकी संदिग्ध मृत्यु के पहले तक भारत का परमाणु कार्यक्रम उनके कुशल नेतृत्व में प्रगति कर रहा था। उनकी मृत्यु ने इसमें एक बाधा पैदा कर दी।
…तो अमेरिका की स्थिति कमजोर हो जाती फिर ‘कन्वर्सेशन विद द क्रो’ पुस्तक पर लौटें। सीआईए के पूर्व संचालक रॉबर्ट टी. क्रॉली ने एक साक्षात्कार में स्पष्ट संकेत दिया कि भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा परमाणु हथियार विकसि
त करने की रिपोर्ट एशियाई उपमहाद्वीप के लिए खतरा हो सकती थी, क्योंकि सोवियत संघ इस तरह के प्रयास में भारत का सहयोग करने के लिए तैयार था। इससे एशिया में अमेरिका की स्थिति कमजोर हो सकती थी। आगे कहा है- ‘सीआईए तो केवल आदेश वाहक थी’।
हवाई दुर्घटना जांच रिपोर्ट आम तौर पर रहस्यमय घटनाओं से घिरे कारणों के साथ समाप्त होती है या कोई स्पष्ट कारण नहीं होता है। लेकिन डॉ. भाभा के मामले में विमान के पायलट ने निकटतम नियंत्रण टावर से उस ऊंचाई के बारे में पुष्टि की थी, जिस ऊंचाई पर उसका विमान गुजर रहा था। लेकिन फिर कॉकपिट नियंत्रण अचानक विफल हो गया और विमान सीधे नीचे की ओर चला गया। रडार और उपग्रह उपकरणों के माध्यम से कॉकपिट नियंत्रण को जाम करना उस समय भी एक चिरपरिचित और पुरानी चाल मानी जाती थी। एक और रहस्यपूर्ण बिंदु यह है कि डॉ. भाभा की मृत्यु लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के ठीक 13 दिन बाद हुई।
पुस्तक में डॉ. भाभा का जिक्र करते हुए क्रॉली को यह कहते हुए उद्धृत किया गया, ‘‘वह खतरनाक थे। उनके साथ एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना हुई। वह और अधिक परेशानी पैदा करने के लिए वियना के लिए उड़ान भर रहा था, जब उसके बोइंग 707 के कार्गो होल्ड में एक बम विस्फोट हुआ और वे सभी आल्प्स में एक ऊंचे पहाड़ पर गिर गए। उसके बाद कोई वास्तविक सबूत नहीं बचा और दुनिया अधिक सुरक्षित हो गई।’’
हालांकि इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है कि ग्रेगरी डगलस षड्यंत्र सिद्धांत गढ़ने वाले के तौर पर जाने जाते हैं। कई लोगों ने उन्हें जालसाज भी कहा है। उन्होंने कई षड़यंत्र पुस्तकें भी लिखीं। इसलिए डगलस द्वारा अपनी पुस्तक में बताई गई क्रॉली की बातचीत भाभा की मौत के पीछे सीआईए का हाथ होने का पर्याप्त सबूत नहीं माना जाता है। यह भी सत्य है कि डॉ. भाभा की मृत्यु की घटना अभी भी रहस्य के दायरे में ही है। आधिकारिक सबूत अपर्याप्त हैं, तत्कालीन भारतीय अधिकारियों की ओर से साधी गई चुप्पी और जल्दबाजी में की गई जांच को लीपापोती का सबूत माना जा सकता है।
वैज्ञानिकों की संदिग्ध मौत
एक अन्य पक्ष देखिए। 2013 में भारत की पहली परमाणु-संचालित पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत के निर्माण कार्य में लगे दो मुख्य इंजीनियरों के.के. जोश और अभीष शिवम को श्रमिकों ने रेलवे ट्रैक पर पड़ा हुआ पाया था। हालांकि उन्हें ट्रेन से कटने से बचा लिया गया, लेकिन पता चला कि उनकी मृत्यु पहले ही हो चुकी थी। उनके रिश्तेदारों ने कहा कि उनके शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं था। पुलिस ने भी इस दावे की पुष्टि की। कई लोगों का मानना था कि उनकी मौत को
फिर तथ्य यह भी है कि 2000 से 2013 की अवधि के दौरान परमाणु ऊर्जा विभाग (डीईए) में लगभग 15 परमाणु वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की संदिग्ध मौतें हुई और इसे महज एक संयोग के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता है। भारतीय वैज्ञानिकों की रहस्यमय मौतों को, जिनका उद्देश्य संभवत: परमाणु प्रौद्योगिकी और अंतरिक्ष अन्वेषण में भारत की प्रगति को बाधित करना था, गलत तरीके से किसी प्राकृतिक घटना के तौर पर रिपोर्ट किया गया था।
इसमें एक बड़ा प्रमुख उदाहरण भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क ) के इंजीनियर एम. अय्यर का मामला है, जो दक्षिण मुंबई में अपने आवास पर मृत पाए गए थे। उनके सिर के अंदरूनी हिस्से में रक्तस्राव पाया गया था, जो एक पुलिस अधिकारी के अनुसार, ‘संभवत: किसी विचित्र प्रयोग का परिणाम था।’ इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई। इस संबंध में बॉम्बे उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में कहा गया, ‘‘प्रारंभिक जांच के बाद पुलिस यह पता नहीं लगा सकी कि अय्यर को आंतरिक चोटें कैसे लगीं, जबकि शरीर पर कोई चोट नहीं दिख रही थी और जांच विफल हो गई।’’
सरस्वती विद्या मंदिर ने दिए तीन वैज्ञानिक
उत्तर प्रदेश के जालौन के तीन वैज्ञानिक भी चंद्रयान-3 लॉन्चिंग टीम का हिस्सा रहे। इन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर से की है। इसरो वैज्ञानिक अतुल निगोताया ने 1995 में झांसी रोड स्थित सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज से हाई स्कूल पास किया है। वहीं, अंकुर त्रिगुणायक ने वर्ष 1996 में उरई स्थित सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज हाई स्कूल तथा आर्बिटर इंटिग्रेशन और टेस्टिंग टीम में शामिल सोहन यादव ने तपकरा स्थित शिशु मंदिर से प्राथमिक शिक्षा हासिल की है।
वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की ऐसी सभी अस्पष्ट मौतों में कहीं भी उंगलियों के निशान नहीं पाए गए, जिससे संकेत मिलता है कि इन हत्याओं में कथित तौर पर शामिल रहे लोग उच्च स्तर के दक्ष और चालाक रहे हो सकते हैं। यहीं नहीं, कोई भी ऐसा फॉरेंसिक सुराग, जो आमतौर पर मौतों की व्याख्या करने व दोषियों की पहचान करने में काम आता है, इन मौतों के मामलों में नहीं मिलता है। जिन अन्य घटनाओं ने संदेह पैदा किया है, उनमें भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के अग्रणी व्यक्ति विक्रम साराभाई का निधन भी है, जो कोवलम के एक होटल के कमरे में मृत पाए गए थे। इसके अलावा, इसरो के पूर्व वैज्ञानिक नंबी नारायणन को जासूसी मामले में झूठा फंसाए जाने का मामला संदेह को और बढ़ाता है। हाल के चंद्र अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली क्रायोजेनिक्स तकनीक में नारायणन के योगदान को उनकी गिरफ्तारी के कारण झटका लगा था।
षड्यंत्र कितना गहरा रहा होगा, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि नारायणन पर जासूसी का आरोप लगने और उनकी गिरफ्तारी के कथित बिंदु को आधार बना कर अमेरिका ने रूस पर दबाव बनाया। माना जाता है कि इसी दबाव में भारत को क्रायोजेनिक इंजन प्रौद्योगिकी हस्तांतरित करने का करार रूस को रद्द करना पड़ा। मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता चेतन कोठारी का खुलासा चौंकाने वाला है। चेतन कोठारी का दावा है कि 1995 और 2010 के बीच भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के लगभग 684 कर्मचारियों ने अपनी जान गंवाई।
इसके अलावा, उन्होंने दावा किया है कि परमाणु प्रतिष्ठानों के 197 वैज्ञानिकों और कर्मचारियों इस अवधि के दौरान आत्महत्या कर ली और 1,733 अन्य लोगों की विभिन्न बीमारियों के कारण मृत्यु हो गई। इनमें से कई मौतें ‘अज्ञात’ बनी हुई हैं। रोचक बात यह है कि डीईए में महत्वपूर्ण अनुसंधान में शामिल कई शीर्ष वैज्ञानिकों की रहस्यमय और अस्पष्ट परिस्थितियों में मृत्यु 2009 और 2013 के बीच, यानी संप्रग-2 के शासनकाल के दौरान हुई।
इसरो के बढ़ते कदम
स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन: 5 जनवरी, 2014 को जीएसएलवी एमके-2 का प्रक्षेपण भारत के लिए बड़ी सफलता थी। इसमें इसरो ने स्वदेश निर्मित क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग किया था। इसी के साथ उपग्रह प्रक्षेपण के लिए दूसरे देशों पर भारत की निर्भरता खत्म हो गई।
मंगल की छलांग: 24 सितंबर, 2014 को पहले ही प्रयास में इसरो ने मंगल ग्रह की कक्षा में उपग्रह स्थापित किया। इस पर मात्र 450 करोड़ रुपये की लागत आई थी, जो नासा के मानव मिशन की लागत का महज 10 प्रतिशत था।
स्वदेशी नेविगेशन सिस्टम: इसरो द्वारा 28 अप्रैल, 2016 में नेविगेशन सिस्टम आईआरएनएसएस की लॉन्चिंग के साथ ही भारत को अमेरिका के जीपीएस सिस्टम जैसा अपना नेविगेशन सिस्टम मिला।
सस्ता अंतरिक्ष यान: 23 मई, 2016 को स्वदेश निर्मित स्पेस शटल आरएलवी-टीडी लॉन्च किया। इसे बनाने में 5 वर्ष लगे और खर्च लगभग 95 करोड़ रुपये आया।
विश्व रिकॉर्ड: 15 फरवरी, 2017 को इसरो ने एक रॉकेट से 104 उपग्रह प्रक्षेपित कर विश्व कीर्तिमान बनाया। इनमें भारत के 3 और 101 उपग्रह विदेशी थे। इनमें अमेरिका के सर्वाधिक 96 तथा शेष कजाकिस्तान, इस्रायल, नीदरलैंड और यूएई के थे। पहले यह रिकॉर्ड रूस के नाम था। उसने 2014 में एक साथ 37 उपग्रह प्रक्षेपित किया था। इससे पहले जून 2015 में भारत ने एक साथ 23 उपग्रह प्रक्षेपित किए थे।
विदेशी निर्भरता खत्म: 5 जून, 2017 को इसरो ने भारत का सबसे भारी रॉकेट (3,136 किलो) जीएसएलवी-एमके3 लॉन्च किया। इससे 2,300 किलो से अधिक वजनी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए भारत विदेशी प्रक्षेपकों पर आश्रित था।
सरकार की चुप्पी
इन रहस्यमय मौतों पर भारत सरकार की चुप्पी ने देश के शीर्ष स्तर के बौद्धिक संसाधनों की सुरक्षा के बारे में चिंता बढ़ा दी। मृत वैज्ञानिकों में से कई के बारे में माना जाता है कि वे फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों और थोरियम-आधारित रिएक्टरों से संबंधित अनुसंधान में लगे हुए थे। इतनी ही रहस्यपूर्ण बात यह है कि संप्रग-2 के शासनकाल में मीडिया रिपोर्टों में थोरियम के अवैध खनन और निर्यात से जुड़े एक घोटाले का खुलासा हुआ, जिसका अनुमानित मूल्य 60 लाख करोड़ रुपये था। तमिलनाडु और केरल के समुद्र तटों की रेत इल्मेनाइट, रूटाइल, ल्यूकोक्सिन, गार्नेट, सिलिमेनाइट, जिरकोन और मोनाजाइट जैसे भारी खनिजों से समृद्ध है और वह इस विवाद के केंद्र में थी।
इन कारकों और तथ्यों को देखते हुए संदेह जताया जाता रहा है कि भारतीय हाई-प्रोफाइल वैज्ञानिकों की अप्राकृतिक मौतों के पीछे सीआईए, पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई), और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का हाथ रहा हो सकता है। इन संदिग्ध हत्याओं के पीछे का उद्देश्य कथित तौर पर अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रमों में उत्कृष्टता हासिल करने से भारत को रोकना और स्वदेशी थोरियम-आधारित रिएक्टरों के विकास में बाधा डालना माना जाता है, जो भारत को अपनी परमाणु आवश्यकताओं में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में सक्षम बना सकते हैं।
कोठारी का दावा है कि बार्क में पिछले 15 वर्षों के दौरान कम से कम 680 कर्मचारियों की मृत्यु की सूचना दर्ज की गई है। इसी अवधि में बड़ौदा हेवी वाटर प्लांट में 26 मौतें तथा कोटा व तूतीकोरिन के संयंत्रों में क्रमश: 30 और 27 मौतें हुई हैं। इस अवधि के दौरान इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र कलपक्कम में कार्यरत 92 व्यक्तियों की मृत्यु हुई।
याचिकाकर्ता को एक आरटीआई के उत्तर में बताया गया कि उनमें से 16 मौतें आत्महत्या थीं। पूरे भारत में आत्महत्या की दर 10,000 में लगभग 1 है, जबकि मृत्यु दर में आत्महत्या का अनुपात 1,000 में 7 है। इसका अर्थ है कि भारत में मृत्यु दर में आत्महत्या का अनुपात 70 में लगभग 1 है। इसके अनुसार 92 मौतों में से एक या दो आत्महत्याएं होना संभव जरूर था। लेकिन शेष?
दिलचस्प बात यह है कि 15 साल की अवधि के भीतर, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने भी 684 कर्मियों को खो दिया या प्रति वर्ष 45 मौतें हुर्इं।
इन चुनौतियों के बीच से होकर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन चला है चांद की ओर।
(साथ में उमेश अग्रवाल)
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