‘हिन्दू’ के अस्तित्व में आने के साथ ही ‘हिन्दुत्व’ भी अस्तित्व में आया। हिन्दू का निसर्गजन्य भाव है हिन्दुत्व। जैसे नर का नरत्व और देव का देवत्व। उसे हिन्दू का स्वत्व, अस्मिता या पहचान कहा जा सकता है। हिन्दू का अनन्य व्यक्तित्व है हिन्दुत्व। हिन्दू के आमूलाग्र जीवन का द्योतक है यह शब्द। हिन्दू के समग्ररूपी जीवन के किसी एक अंश, जैसे आचरण, आस्था, उपासना, पंथ आदि को हिन्दुत्व कहना गलत होगा। अत: जिसको आज हम ‘हिन्दुइज्म’ कहते हैं उसको हिन्दुत्व मानना युक्तिहीन होगा। हिन्दुत्व जीवन संबंधित शब्द है और ‘हिन्दुइज्म’ आस्था संबंधित। अत: जब तक हिन्दू रहेगा तब तक हिन्दुत्व रहेगा।
हिन्दुत्व का प्रयाण प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) के पश्चात प्रारंभ होता है। 19वीं सदी के उस उत्तरार्द्ध में हमें तीन प्रकार के हिन्दू दृष्टिगत होते हैं जिसका स्पष्ट उल्लेख महर्षि अरविन्द ने ‘भारत का पुनरुत्थान’ नामक पुस्तक में किया है। पहला वर्ग था-शरणापन्न। वे अंग्रेजों को ही नहीं, पूरे गोरे लोगों को अपना और अपने देश का त्राता मानता था। दूसरा वर्ग था-गतानुगतिक। ‘पाश्चात्यं सर्वमुत्तमं अस्माकं सर्वमधमं’ था उनका दृष्टिकोण और व्यवहार। आत्मनिन्दा उनका स्वभाव था। परानुकरण उनका आचरण था। तीसरा वर्ग था-नवजाग्रत कर्तृत्ववान्! उनमें अपनी गलतियां समझकर उन्हें सुधारने की शक्ति थी। इन तीनों प्रकार के भारतीयों ने हिन्दू समाज के नाते सोचना प्रारंभ किया था। फलत: तीन प्रकार का हिन्दुत्व दिखा-पराधीन हिन्दुत्व, परानुगामी हिन्दुत्व और प्रबुद्ध हिन्दुत्व।
प्रबुद्ध हिन्दुत्व का सटीक उत्तर
इतिहास बताता है कि इनमें से तीसरा वर्ग, प्रबुद्ध हिन्दुत्व अविलंब प्रभावी हो गया। उन दिनों, पश्चिमी विद्वानों का कहना था कि ‘भारत एक राष्ट्र नहीं, हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं, हिन्दू शब्द मिथ्या है।’ प्रबुद्ध हिन्दुत्व ने इसका सटीक उत्तर दिया। पश्चिमी जगत में भारत की धर्मध्वजा फहराकर लौटेस्वामी विवेकानन्द ने श्रीलंका से लाहौर तक के सार्वजनिक व्याख्यानों में बार-बार उद्धोषित किया कि ‘सिंधु नदी के उस पार रहने वाले लोगों को प्राचीन काल में फारसी लोगों ने ‘हिन्दू’ नाम दिया। उस नाम को हमने स्वीकारा। उसको स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं। पुराने ज़माने में यहां एकमात्र उपासना समूह था। अब यहां अनेक समूह हैं, किन्तु हिन्दुस्थान में रहने वाले सारे हिन्दू ही हैं। किसी की आस्था इस्लामी या ईसाइयत से जुड़ी हो तो भी उन सबको हिन्दू अभिधान स्वीकारना चाहिए। वे सारे हिन्दू अभिधान के पात्र हैं।’
स्वामी जी इतने पर ही नहीं रुके। हिन्दू जाति के कर्तव्यबोध पर जोर देते हुए उन्होंने कहा-‘‘जब कोई व्यक्ति स्वयं को हीन मान कर अपने पूर्वजों के प्रति लज्जान्वित हो जाता है, तब समझो उसका सर्वनाश निकट होता है। हेय मानने के बजाए हम अपनी कृति से यह सिद्ध करें कि विश्व की किसी भी भाषा के किसी भी शब्द से श्रेष्ठ हिन्दू शब्द है।’’ इसी भाव को लेकर इसी दशक में महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक के ‘केसरी’ ने गर्जना की-‘‘हिन्दुत्व को छोड़ देने से राष्ट्रीय दृष्टि से आगे अच्छा परिणाम होगा, अगर किसी को ऐसा लगता है तो वह पूर्ण भ्रम में है। हमें आगे जो ऊर्जित अवस्था प्राप्त करनी है वह हिन्दू राष्ट्र के नाते ही प्राप्त करनी है।’’ (केसरी, 2 जनवरी, 1906) इतना ही नहीं, उन्होंने अपने तरीके से ईसाइयत पर भी प्रत्याक्रमण किया। परोक्ष में ईसाइयत की संकुचितता, असहिष्णुता, कट्टरवादिता को उजागर कर भावात्मक रूप से हिन्दू धर्म की व्याख्या की ‘प्रामाण्यबुद्धिवेदेषु, साधनानामनेकता,उपास्थानमिनियम हिन्दुधर्मस्य लक्षणम्’। वेदों की ओर श्रद्धायुक्त आस्था, साधना के मार्गों की अनेकता, उपासकजन के लिए अमर्यादित छूट, यही हैं हिन्दू धर्म के लक्षण।
इसी विचार स्तर के और भी लोग पूरे देश में यत्र-तत्र थे, जो बहुत विख्यात नहीं थे, परन्तु प्रतिभावान थे। उनमें एक थे चेन्नै के कस्तूरी अय्यंगर। अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे। उन्होंने उस महानगर में ‘द हिन्दू’ नाम से अंग्रेज़ी समाचार पत्र प्रारंभ किया। आज वह समाचार पत्र समूचे भारत में सुज्ञात है। ध्यान देने की बात है कि आज भी उसके शीर्षक के नीचे लिखा जाता है-‘1878 से, हिन्दुस्थान का राष्ट्रीय समाचार पत्र’। इसका मतलब क्या है? हिन्दू शब्द राष्ट्रीय है, सांप्रदायिक नहीं, संकुचित नहीं। संभवत: पंजाब में भी इसी नाम का समाचार पत्र था। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि स्वामी विवेकानन्द के उपरोक्त कथन के अनुसार, हिन्दू स्वाभिमान से गौरवान्वित होने वाले लोगों, शरणापन्नों और परानुगामियों के बावजूद दृश्यमान थे।
इसी दिशा में आगे बढ़ने वाले एक अन्य प्रज्ञावान थे डॉ. राधाकृष्णन। इंग्लैण्ड में अंग्रेज़ों के सम्मुख उनका उद्बोेधन हुआ था। वहां के मैंचेस्टर कॉलेज की व्याख्यानमाला में उन्होंने कहा कि ‘पारसी लोगों, तत्पश्चात पश्चिमी आक्रान्ताओं ने सिन्धु नदी के उस पार रहने वाले जन समुदाय को हिन्दू कहा।…..मूल निवासी जनजातियां, अप्रगत कुसंस्कारित समूह, सुसंस्कारित द्रविड़जन, वैदिक आर्यजन-ये सब हिन्दू हैं क्योंकि ये सब एक माता की संतान हैं!’ यह व्याख्यान इतना प्रभावी था कि इससे प्रेरित होकर सुविख्यात अंग्रेज लेखक सी.ई.एम. जॉड ने ‘काउंटर अटैक फ्रॉम द ईस्ट’ (पूर्व से प्रत्याक्रमण) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। उस समय शरणापन्नों तथा परानुकारियों का प्रतिभाव बिल्कुल अलग था। मूल जड़ों से स्वयं उखड़कर वे अपने को पृथक् मानते थे।
हिन्दू की आत्मा
प्राय: इसी कालखंड में युगपद अस्मिता का भी बोध जागा। इस आत्मजागृति के महान कार्य के पुरोधा थे स्वामी विवेकानन्द और उनके गुरुभाई अभेदानन्द आदि। उसी उज्ज्वल धारा के थे महर्षि अरविन्द। हिन्दू के कलेवर की पहचान के साथ इन महान द्रष्टाओं ने हिन्दू की आत्मा को पहचाना और उसको मुखरित किया। संभवत: स्वामी विवेकानन्द प्रथम द्रष्टा थे जिन्होंने कहा कि विश्व के हर राष्ट्र की एक विशिष्ट प्रकृति है और वह है उस राष्ट्र की आत्मा। दुनिया का प्रत्येक राष्ट्र उसी के भरोसे पहचाना जाता है। इसका विवेचन करते हुए स्वामीजी ने अपनी ‘ईस्ट एंड वेस्ट’ पुस्तक में कहा कि अंग्रेज़ी राष्ट्र की अस्मिता वाणिज्य है, फ्रेंच राष्ट्र की राजनीति और भारत राष्ट्र की अस्मिता है धर्म। आगे चलकर महर्षि अरविन्द ने स्पष्ट कहा कि सनातन धर्म ही भारत का राष्टÑत्व है।
उस समय अपने देश में एक दार्शनिक विदेशी महिला आई थी, साध्वी ऐनी बेसंट। भारत के ज्ञान-विज्ञान से वे अतीव प्रभावित हुई। केरल के महाकवि शंकर कुरुप्प (ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त) ने उनका नामोच्चार ‘वसन्ताम्बा’ शब्द से किया है। पृथ्वी के अन्यान्य राष्ट्रों का विवेचन करते हुए वसन्ताबा ने जो कहा, वह पठनीय है। ‘जब विधाता ने पृथ्वी पर एक के पीछे एक राष्ट्र को भेजा तो उन में हर एक को सन्देश के नाते एक-एक शब्द दिया जो उसका जीवन-स्वर बन गया। जैसे ग्रीस को दिया शब्द था सुन्दरता, रोम को दिया शब्द था विधि। इसी तरह भारत, जो उनकी ज्येष्ठ सन्तान है, उसे दिया सर्वार्थकारी विशेष शब्द था धर्म! उसको अंग्रेज़ी में अनूदित करना दुष्कर है। संक्षेप में, उसका अर्थ है कर्तव्यों की संहिता, सामाजिक कर्तव्य, पशु जाति के प्रति कर्तव्य, पक्षी जाति के प्रति कर्तव्य तथा समस्त सृष्टि के प्रति कर्तव्य। सदियों से भारत इस प्रेम भरे सन्देश को संपूर्ण जगत में प्रसारित करता आ रहा है।’
हिन्दुत्व के इसी अस्तित्व एवं अस्मिता को 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हमारे राष्ट्रभिमानी मनीषियों ने सभी देशवासियों के सामने प्रस्तुत किया। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में, 1914 से 1919 तक, यूरोप में विश्व का प्रथम महायुद्ध हुआ। उसके परिणामस्वरूप वहां नये-नये राष्ट्रों का उदय हुआ। विशेषत: यूरोप के राष्ट्र-मीमांसकों ने उस विषय में अधिक खोज की और उस मंथन से ‘राष्ट्रीयता’ नाम का ताजा विषय उभर आया। अन्यान्य राष्ट्रों के अन्यान्य विद्वानों ने राष्ट्रीयता को परिभाषित करने का प्रयास किया। थोड़े बहुत भेद से प्राय: समान अनुमान था कि देश, जन, पंथ, भाषा, संस्कृति, इतिहास आदि जब और जहां समान हैं तब और वहां का लोकसमूह राष्ट्र बन जाता है।
इस विचारप्रवाह की लहर भारत में भी उठी और यहां के राजनीतिक नेता भी भारत के राष्ट्रत्व की खोज में लग गए। इस पृष्ठभूमि में है वि. दा. सावरकर की पुस्तक ‘हिन्दुत्व की खोज’। वे विवेकानन्द जैसे महामनीषियों के तिरोधान के बाद देश के रंगमंच पर, अंदमान के कारावास से मुक्त होकर कोंकण के रत्तनागिरि में रहने लगे थे। क्रान्तिवीर सावरकर थे जुझारू देशभक्त। भारत ही क्यों, स्वयं भारत की स्वतंत्रता उनकी भगवती और मंगलकारिणी थीं। उनकी मौन विचार तपस्या का फल है हिन्दू की ख्यातिप्राप्त परिभाषा-‘आसिन्धु सिन्धु पर्यन्ता यस्य भारतभूमिका पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वे हिन्दुरितिस्मृत:’। (1923) इसके पूर्व अन्य किसी ने हिन्दू को परिभाषित नहीं किया था। लोकमान्य तिलक जी का लेख हिन्दू धर्म की परिभाषा नहीं बल्कि व्याख्या है। वह हिन्दू धर्म के तीन विशेष लक्षण बताते हैं। क्रान्तिवीर सावरकर का हिन्दुत्व एक विस्तृत निबंध है जो तर्कसुसंगत और सुगठित है। अनेक दृष्टान्तों से भूषित है, उसका खंडन करना कठिन है। ईमानदार पाठक निश्चित ही ग्रंथकार के सम्मुख विनम्र्रता से झुक जायेगा।
बदलती परिभाषाएं
किन्तु आज, भारतीय स्वतन्त्रता के 75वें वर्ष में उस मूल्यवान मौलिक प्रतिपादन को पढ़ते हुए कहना पड़ेगा कि वह आज की समस्याओं का समाधान देने में कम पड़ता है। राष्ट्रत्व संबंधित कल्पनाएं विश्वभर में बदल गयी हैं, फलत: परिभाषायें भी बदली हैं। उस निबन्ध में आर्यों के उपनिवेशन सिद्धान्त को उन्होंने स्वीकारा है। पुस्तक के पहले भाग में उसका संकेत करते अनेक वाक्य हैं। आज वह सिद्धान्त अनेक अनुसंधानों के फलस्वरूप आधारहीन हो चुका है और तिरस्कृत भी।
दूसरी बात, अथर्ववेद का ‘माता भूमि:’ प्रयोग सुविदित है। आगे चलकर बंग भंग आन्दोलन से लेकर सभी स्वातंत्र्य समरों में ‘भारत माता की जय’ नारा सर्वत्र गूंज रहा था। सावरकर जी के निबंध के पूर्व भाग में ‘मातृभू’ शब्द बहुत बार आया है। फिर परिभाषा में ‘पितृभू’ का शब्द क्यों आया, यह एक पहेली है। तीसरी बात। राष्ट्रीय अस्मिता के विषय में यह परिभाषा मौन है। यद्यपि स्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषियों ने उस संकल्पना को उजागर किया था, परन्तु पश्चिमी जगत उससे अज्ञात था। राष्ट्र की आत्मा की कल्पना उन राजनीतिक मीमांसकों को अस्वीकार्य थी। ‘आसिन्धु सिन्धु’ परिभाषा में वही भाव दिखता है।
‘हिन्दुत्व’ पुस्तक का प्रकाशन 1923 में हुआ था। दो वर्ष बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। संघ का ध्येय जैसे प्रतिज्ञा में कहा गया, ‘हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करना’ था। परन्तु संघ संस्थापक कभी भी हिन्दू शब्द की परिभाषा के पीछे नहीं पड़े। किसी भी प्रकार के वाद-विवाद में न पड़ना उनकी कार्यशैली थी। हिन्दू शब्द की परिभाषा के अभाव से वे चिन्तित भी नहीं थे। फिर भी हिन्दू का नाम लेकर काम करते-करते संघ का कार्य आगे के 22 वर्ष तक बढ़ता गया, अपेक्षा के अनुसार फैलता रहा।
1947 में स्वतंत्रता मिलने पर देश भर में नया वातावरण उत्पन्न हुआ। उस समय दूसरा महायुद्ध भी समाप्त हुआ था। युद्धान्तर के वातावरण में दुनिया में नये-नये राष्ट्रों का उदय हुआ। मानो एक नयी दुनिया का उद्भव हुआ। तरह-तरह के वैश्विक संगठन या संस्थाएं अवतरित हुईं। उसके अनुसार नयी अपेक्षायें, नयी समस्यायें, नये कर्तव्य आदि भी सामने आए। भारत का भी इस वैश्विक प्रवाह से अलग रहना असंभव था। रा.स्व.संघ को भी इस बदले परिप्रेक्ष्य में परिचिन्तन करना पड़ा। संघ प्रतिज्ञा को ‘स्वतंत्रता’ के स्थान पर ‘सर्वांगीण उन्नति’ से संशोधित करना पड़ा।
तब से परम पूजनीय गुरुजी के बौद्धिकों में एक नया विषय सुनने में आया-‘भारतवर्ष का वैश्विक कर्तव्य’, ‘हिन्दू का वैश्विक मिशन’। तब से संघ अधिकारियों के बौद्धिकों में कृण्वन्तो विश्वमार्यम् गूंजने लगा। जब मैं प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के लिए गया था, तब सुने गणगीतों में एक है, ‘विश्वमखिलमूद्धर्तु निर्मिता वयं, हरिणा प्रेषिता वयम्’– अर्थात् समस्त विश्व के उद्धार हेतु प्रभु द्वारा निर्मित और प्रेषित हैं हम। परिणाम था कि संघ के कार्यकर्ताओं के अन्त:करण में पुरानी विवेकानन्द वाणी अधिक अर्थपूर्ण प्रतीत हुई।
हिन्दू कौन?
भारत को स्वतंत्रता मिली, लगभग उसी समय विश्व के अनेक लोक समूहों को स्वतंत्रता मिल चुकी थी। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात के वातावरण में उपनिवेशवाद का अन्त हो चुका था और विश्वभर में नये स्वतंत्र राष्ट्रों का उदय भी हो चुका था। उनमें ब्रह्मदेश, त्रिनिदाद, थाईलैंड, मलेशिया जैसे देश थे, जहां हिन्दू आबादी नगण्य नहीं थी। उन स्वतंत्र राष्ट्रों के नेतागण भी अपने पांथिक-सांस्कृतिक जीवन को सुरक्षित बनाने में तत्पर थे। वे भी अपनी परंपरागत जड़ों को सुदृढ़ बनाने को लेकर चिन्तित थे।
वे सारे भारत से मार्गदर्शन और सहारा चाहते थे। संघ का कार्य तो भारत में बढ़ ही रहा था। उस समय ब्रह्मदेश के सर्वोच्च न्यायपाल उ चान ठून, त्रिनिदाद के सांसद शंभुनाथ कपिलदेव, अमेरिका के पंडित उषरबुद्ध जैसे श्रेष्ठ प्रतिभावानजन परम पूजनीय गुरुजी से मिले। दो-तीन दिन वे उनके साथ रहे और अपने मन की पीड़ा उस महान हिन्दू संगठक के सामने व्यक्त की। विश्व के अन्यान्य कोनों में पहुंचे व्यवसायी स्वयंसेवकों से भी पर्याप्त मात्रा में जानकारी परम पूजनीय गुरुजी के पास व्यक्तिश: अथवा पत्र द्वारा पहुंचती थी। इस सबका वैचारिक मंथन संघ में हुआ और पर्याप्त तैयारी और सावधानी से विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना हुई।
अब एक नयी समस्या खड़ी हुई। नये संगठन की दृष्टि से कौन है हिन्दू? आधुनिक व्यवस्था के अनुसार, उसको घोषित करना और अक्षरबद्ध करना अनिवार्य था। अत:, पहली बार स्वतंत्र भारत में हिन्दू शब्द को विश्व हिन्दू परिषद् के प्रन्यासियों को परिभाषित करना पड़ा। उसके अनुसार उनके बीच सर्वकष चिन्तन-मंथन हुआ। उससे परिभाषा का जो नवनीत निकला, वह इस प्रकार है: ‘जो भारतीय ऋषियों के ऐहिक प्रवर्तित अर्थों को सिद्ध करने वाले सनातन सत्यनिष्ठा सिद्धान्तों को श्रद्धा से मानता है, जो महात्मा दिव्य विभूतियों द्वारा कालानुकाल प्रवर्तित संप्रदायों का आदर करता है, जो जन्म से कहीं का भी हो, निवास से कहीं का भी हो, वह सुशीलवान मानव हिन्दू कहलाता है।’ यहां परिभाषित हिन्दू किसी देश की सीमा से बंधा नहीं है। भारत में उत्पन्न आध्यात्मिक संपदा को मानने वाला वह आस्थावान है। राष्ट्र, वंश, सभ्यता जैसे तथ्यों से वह मर्यादित नहीं।
भारत सरकार ने 1958 में हिन्दू विवाह अधिनियम लागू किया। उस अधिनियम के परिप्रेक्ष्य में हिन्दू की व्याख्या देना आवश्यक था। अत: प्रारंभ में ही कहा गया कि ‘उपासना पंथ से हिन्दू, जैसे वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्म समाजक, आर्य समाजक, अन्य पंथ वाले, जैसे बौद्ध, जैन, सिख, जनजातियां और जो ईसाई या इस्लामी नहीं, वे सारे यहां हिन्दू माने जायेंगे।’
राष्ट्रधर्म ही सर्वश्रेष्ठ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विवशता दूसरे प्रकार की थी। सदियों से कन्वर्टिड स्वजनों अर्थात् तथाकथित अल्पसंख्यकों में रूढ़ीगत ‘मतान्तर से राष्ट्रान्तर ’ का मिथ्या ज्ञान किस प्रकार मिट जाए, यह उसकी चिन्ता का विषय था। उसके अनुसार प्रबोधन भी संघ के मंचों से प्रभाषित होने लगा। विशेषत: परम पूजनीय गुरुजी के 51वें जन्मदिन की सत्कार सभाओं में वे इस विषय को सांगोपांग प्रस्तुत करते। राष्ट्रधर्म, कुलधर्म और व्यक्तिधर्म…इन तीनों का उल्लेख करते हुए वे कहते कि समस्त जनता अर्थात संपूर्ण राष्ट्र की उन्नति और समृद्धि के लिए राष्ट्रधर्म को सर्वश्रेष्ठ मानना चाहिए। हर व्यक्ति का उपासना पंथ मात्र वैयक्तिक है। मतान्तर से राष्ट्रान्तर नहीं होता। उससे अपने पूर्वज नहीं बदलते। डॉ. सैफुद्दीन जिलानी जैसे विख्यात विद्वान श्री गुरुजी से मिलकर मधुर ज्ञानप्रद संवाद से मुग्ध हुए और बाद में लिखा, ‘ईमानदारी से कहूं तो मुझे यही लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के विषय में एकमात्र श्री गुरुजी ऐसे हैं जो यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं।’
बदलते वातावरण में, भले अपवादात्मक ही क्यों न हो, ‘मैं वंश से हिन्दू हूं यद्यपि आस्था से मुसलमान’, यह कहने वाले न्यायाधीश मु.क. छागला देखे। ‘मेरी संस्कृति हिन्दू है, किन्तु मेरा पंथ ईसाई है’, इस प्रकार सार्वजनिक वक्तव्य देने वाले उच्चस्तरीय पादरी जोसफ देखे। भगवान राम और कृष्ण के भक्तिगीतों के रचयिता यूसुफ अली केचेरी को केरल का आधुनिक रसखान कहा जा सकता है।
हिंदुत्व को बदनाम करने का भयावह प्रयास
1983 में तलजाई में संपन्न पश्चिम महाराष्ट्र प्रान्तीय शिविर की समापन सभा में तत्कालीन परम पूजनीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने कहा था कि ‘यहां के मुसलमान वंश से हिन्दू हैं। उनका उपासना मार्ग बदलने मात्र से उनकी राष्ट्रीयता नहीं बदलती। अन्यत्व और पार्थक्य का भाव छोड़कर उन सबको राष्ट्रीय धारा में एक रूप होना चाहिए।’ हिन्दुस्थान के रहने वाले हिन्दू हैं, इस बात में आश्चर्य कैसा? दुनिया की रीत देखिए। अफगानिस्तान का निवासी अफगान है। उज्बेकिस्तान का निवासी उज्बेक है। किर्गिस्तान का निवासी किर्गीज है। तुर्किस्तान का निवासी तुर्क है तो हिन्दुस्थान का निवासी हिन्दू ही तो हुआ।
वास्तव में संघ का व्यवहार प्रारंभ से समन्वय का रहा। कालचक्र की उलटी गति के कारण हिन्दुस्थान का हिन्दू आत्मविस्मृति में डूबकर दास्यता का शिकार बन गया था। ऐसे वक्त में अमृतवाहक गरुड़ जैसे परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार आए और उन्होंने अपने पौरुष एवं कृतित्व से हिन्दू को संगठित करना प्रारंभ किया। लगभग एक सदी के बाद अब सिद्ध हुआ है कि हिन्दू संगठनीय अर्थात संगठन योग्य है। वतर्मान में समूचे भारत में सबसे विशाल संगठन है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। उसके क्रियाशील प्रत्येक स्वयंसेवक में पुराना आत्मसत्कार का भाव जाग उठा है।
भगिनी निवेदिता ने शब्द दिए थे-विक्रान्त हिन्दुत्व। वतर्मान हिन्दुत्व वही है। वह ‘विजेत्री….संहताकार्यशक्ति’ का परिचायक है। यह अद्भुत दूरदृष्टि है कि प्रखर देशभक्त सावरकर जी ने अपने हिन्दुत्व नामक मूल्यवान ग्रंथ में इस दिन का चित्र कल्पनाचक्षु से देख लिया था। उसमें (पृ. 86) वे कहते हैं कि ‘संभवत: आगे किसी काल में हिन्दू अभिधान से हिन्दुस्थान का केवल आम आदमी अभिप्रेत होगा। किन्तु उस दिन का उदय तभी होगा जब मज़हबी आक्रामक अहंकार मिट जायेगा, साम्प्रदायिक पंथीय कट्टरवादी खेमों का निष्कासन होगा और मज़हब एक ‘इज्म’ के नाते थम गया होगा।’
(श्री रंगाहरि द्वारा प्रज्ञा प्रवाह की भोपाल में हुई चिंतन बैठक (16-17 अप्रैल, 2022) में दिए उद्बोधन के संपादित अंश। अक्तूबर 2023 में रंगाहरि जी का निधन हो चुका है।)
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