शिया बहुल ईरान में 1979 तक राजतंत्र चलता था और लोग खुली सोच की हवा में सांस लेते थे। महिलाएं पुरुषों से हेय नहीं समझी जाती थीं और हिजाब, बुर्के के पर्दे में ढके रहने को मजबूर नहीं थीं। लेकिन फिर ऐसी इस्लामी क्रांति हुई कि उसके बाद से आज तक भी समाज में एक घुटन जैसी महसूस की जाती रही है।
ईरान में कट्अर मजहबी सोच के उम्मीदवार को हराकर नए राष्ट्रपति बने मसूद पढ़े—लिखे, पेशे से हार्ट सर्जन रहे हैं और उदार सोच के माने जाते हैं। लेकिन आज ईरान सहित अन्य इस्लामी देशों में इस बात को लेकर कौतुहल है कि डॉ. मसूद का उस देश में सत्ता की चूलें हिला देने वाले हिजाब विरोधी आंदोलन पर किस प्रकार का कदम उठाएंगे। क्या मसूद हिजाब की अनिवार्यता खत्म कर सकेंगे? क्या वहां ‘मोरल पुलिस’ जैसा कोई बल रहेगा? क्या महिलाएं मान लें कि अब महसा अमीनी की शहादत रंग दिखाने वाली है? ऐसे कई प्रश्न हवा में तिर रहे हैं।
इन सब प्रश्नों के बीच एक आशंका यह भी है कि क्या नए राष्ट्रपति शिया बहुल ईरान के सर्वोच्च और ‘सर्वशक्तिमान’ मजहबी नेता अयातुल्ला खामनेई के ‘दिशानिर्देशों’ की अनदेखी कर पाएंगे? कुछ लोग हैं जो शायद यह मानते हैं कि डॉ. मसूद के राष्ट्रपति पद पर आने से साफ है कि वह खामेनेई के सामने एक चुनौती जैसी होंगे और उनके दसियों वर्ष से बना ‘सर्वशक्तिमान’ नेता का अघोषित पद जाता रहेगा!
ईरान की महिलाओं में डॉ. मसूद से उम्मीदें जगना स्वाभाविक है। कारण, वे जिस प्रगतिशील सोच पर चलती हैं और 21वीं सदी के हिसाब से जीने की तमन्ना रखती हैं, उसे देखते हुए हिजाब एक ‘मजहबी बाधा’ से ज्यादा पुरोगामी सोच का प्रतीक माना जाने लगा है। महिलाओं को लगता है कि डॉ. मसूद अपनी छवि को सार्थक बनाते हुए हिजाब पहनने को अनिवार्य नहीं रहने देंगे।
लेकिन किसी जमाने में सोच, रहन—सहन और जीवनचर्या में पश्चिम को टक्कर देने वाला ईरान कट्टर मजहबी थानेदारी और बेवजह की पाबंदियो से आजाद हो पाएगी, इस बारे में अभी कुछ भी कहना जल्दी होगी।
शिया बहुल ईरान में 1979 तक राजतंत्र चलता था और लोग खुली सोच की हवा में सांस लेते थे। महिलाएं पुरुषों से हेय नहीं समझी जाती थीं और हिजाब, बुर्के के पर्दे में ढके रहने को मजबूर नहीं थीं। लेकिन फिर ऐसी इस्लामी क्रांति हुई कि उसके बाद से आज तक भी समाज में एक घुटन जैसी महसूस की जाती रही है। मजहबी कायदे, खासकर महिलाओं को समाज में दोयम दर्जे की बनाते हैं।
अभी जो चुनाव हुए हैं उनमें उदारवादी डॉ. मसूद के बरअक्स थे कट्टर रूढ़वादी सईद जलीलों, जिन्हें हराने का मतलब है कि समाज सुधार चाहता है। पूर्व प्रधानमंत्री इब्राहिम रईसी, जिनकी हेलीकाप्टर दुर्घटना में असमय मृत्यु की वजह से ये चुनाव हुए, वे भी मजहबी कायदों को लागू करते रहे थे और सुधारवादी जनता के गुस्से का शिकार रहे थे, लेकिन उन पर मजहबी नेता खामनेई का वरदहस्त था इसलिए पद पर बने रहे थे।
लेकिन सर्वोच्च शिया नेता अयातुल्ला खामेनेई का ईरान पर दबदबा तो अब भी है। उस दबदबे को क्या डॉ. मसूद हल्का करके हिजाब पहनना महिलाओं पर ही छोड़ सकेंगे कि चाहे तो पहनें, चाहे न पहनें? क्या ‘मॉरल पुलिसिंग’ जैसा कुछ रह जाएगा? अगर रह जाएगा तो क्या वह उतना ही क्रूर होगा जिसके लिए वह बदनाम रहा है?
पश्चिम के प्रति कड़ी दृष्टि से देखने वाले लेकिन प्रगतिगामी सोच वाले डॉ. मसूद अमेरिका से किस तरह का व्यवहार रखेंगे, यह आने वाला वक्त बताएगा। क्या अब ईरान पश्चिमी प्रतिबंधों को हटवाकर अपने प्राकृतिक संसाधनों से पैसा कमा पाएगा? मसूद डगमगाती ईरानी अर्थव्यवस्था को सुधारकर बेरोजगारी को दूर करने के लिए क्या कदम उठाने वाले हैं, इसे लेकर भी ईरान वाले उत्सुक हैं।
नए राष्ट्रपति कह तो रहे हैं कि मॉरल पुलिसिंग की धार कुंद की जाएगी, विशेषकर युवाओं को इंटरनेट की बाधित उपलब्धता से हो रही परेशानी दूर की जाएगी, लेकिन बात फिर खामनेई पर आ टिकती है कि क्या वे ऐसा सब करने देंगे?
बेशक, डॉ. मसूद पेजेश्कियान को एक साथ कई मोर्चों पर जूझना होगा अगर अपने चयन को सार्थक सिद्ध करना है तो। खामनेई के साथ बीच का रास्ता क्या और कैसा होगा, यह भी तय करना होगा।
ईरान की इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड नामक सेना की कमान मजहबी नेता खामनेई के हाथ में है और रहने वाली है। इसलिए नीतियों के मामले में मसूद की खास चल पाएगी, इसमें संदेह है।
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