कथित उदारवादी वामपंथी बुद्धिजीवियों और इस्लाम की वकालत करने वाले लोगों के गठजोड़ ने हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की, लेकिन देश में उनकी राजनीतिक ताकत घटने से उनके प्रयास सफल नहीं हुए। हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में पहले से कुछ अधिक सीटें लाने में सफल होने के बाद वह फिर से देश में इस तरह का खतरनाक नैरेटिव गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। यह सब देश में हिंदू समाज के बीच भ्रामकता फैलाने और अराजकता वाली स्थितियां पैदा कर राजनीतिक फसल काटने के लिए किया जा रहा है।
यह वही पुरानी नेहरूवादी पंथनिरपेक्षता है, जिसे हिंदू के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। इसका हर स्तर पर विरोध किए जाना चाहिए। हर हिंदू को इसका विरोध हिंदू सभ्यता और संस्कृति के हित में अपना कर्तव्य मानकर करना चाहिए।
बहुत से टिप्पणीकारों ने राहुल गांधी द्वारा भाजपा नेतृत्व को घेरने के लिए दिए गए इस बयान को बचकाना बताते हुए खारिज कर दिया है। राहुल गांधी ने संसद में भगवान शिव की तस्वीर को लहराया (शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने अल्लाह को बख्श दिया, इसलिए उनका सिर सही सलामत है)। यह सदन में बिना किसी उद्देश्य के नहीं किया गया।
समाज को तोड़ने का प्रयास
दरअसल, यह विदेशी ताकतों की उस वैश्विक योजना का हिस्सा है, जिसके तहत योजना बनाकर हिन्दू समाज को कमजोर और विभाजित करने के प्रयास हमेशा से किए जा रहे हैं। ये वे ताकते हैं, जो घिसी पिटी आर्य-द्रविड़ की बात कर समाज को बांटने का प्रयास करती रही हैं। अब फिर से एक नए तरीके से यह ऐसा ही करने की कोशिश कर रही हैं। ये वही लोग हैं, जिन्होंने उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों में विभेद पैदा करने के लिए भगवान राम को उत्तर भारतीय और आक्रमणकारी बताते हुए ‘मुरुगन सम्मेलन’ (भगवान कार्तिकेय को दक्षिण भारत में मुरुगन कहा जाता है) करने योजना बनाई है।
कुछ समय पहले एक डीएमके नेता ने कहा था, ‘राम कौन हैं? राम की दक्षिण में कोई प्रासंगिकता नहीं है।’ इस तरह की बात कहकर वे हमेशा वे शैवों और वैष्णवों के बीच दरार पैदा करने कोशिश करते हैं। इस झूठे विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए पिछले साल केरल में में ‘कटिंग साउथ’ सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसे वामपंथी और कांग्रेस नेताओं ने समर्थन दिया था।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे ‘सनातन धर्म को मिटाने’ की बात बोलकर पहले ही अपना उद्देश्य जाहिर कर चुके हैं। सदन में राहुल गांधी ने भाजपा को घेरने के लिए जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया, वह कुछ और नहीं, बल्कि हिन्दू धर्म को लेकर भ्रामक दृष्टिकोण, भ्रामक विमर्श स्थापित करने का प्रयास है। उन्होंने इस तरह की बयानबाजी कर हिन्दुओं के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की। हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम शब्दों को सही परिप्रेक्ष्य में समझें। कई विद्वानों को ‘हिन्दू धर्म’ शब्द से समस्या है, क्योंकि ‘इज्म’ का अर्थ विचारों की एक बंद किताब या एक अंध विश्वास प्रणाली है। वे स्वदेशी दर्शन और विश्वास प्रणाली को दर्शाने के लिए हिन्दू धर्म के बजाय हिन्दुत्व (हिन्दूू-नेस) या हिंदू धर्म शब्द का उपयोग करना पसंद करते हैं।
हिंदुत्व कोई धर्म नहीं है, यह जीने का एक तरीका है। धर्म वह है, जो मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाए। संस्कृत शब्द धर्म शब्द की उत्पत्ति धृ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है ‘धारण करना’। यह वह तत्व है, जो समाज को, परिवारों को एक साथ जोड़े रखता है। अंग्रेजी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो धर्म के पूरे अर्थ को समझा सके। यह मूल सभ्यतागत विचार है, जिसने भारतीय दिमाग को सुसंगतता प्रदान की है।
हिन्दू धर्म की सार्वभौम दृष्टि
हिंदुत्व या हिंदू धर्म ईश्वर तक नहीं ले जाता, बल्कि यह परम सत्ता के साथ एकत्व की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इसलिए कहा भी जाता है, ‘शिवो भूत्वा, शिवम्यजेत’ अर्थात् शिव बनो, फिर शिव की पूजा करो। ईश्वर और मनुष्य के बीच कोई द्वैत नहीं है। यह हिन्दू धर्म की सार्वभौमिक दृष्टि है। यही हिन्दू धर्म का सार्वभौमिक दर्शन है। हालांकि, हिन्दुत्व बिना किसी द्वेष या दुर्भावना के, भारतीय भौतिकवाद के पूर्व-चार्वाक या लोकायत विद्यालयों के दार्शनिक तर्कों को समायोजित और स्वीकार कर सकता है। लेकिन यह उस दर्शन और सिद्धांत को अपने में समायोजित नहीं कर सकता, जो दुनिया को आस्थावान और अनीश्वरवादी धड़ों में विभाजित करने की बात करता है।
जैसा कि डॉ. एस राधाकृष्णन कहते हैं, ‘‘धर्म वह है, जो समाज को एक सूत्र में बांधे रखता है। जो समाज को बांटता है, टुकड़ों में बांटता है और लोगों को आपस में लड़ाता है, वह अधर्म है। धर्म सर्वोच्च की प्राप्ति और अपने जीवन के हर छोटे कार्य को अपने मन में मौजूद उस सर्वोच्च के साथ करने के अलावा और कुछ नहीं है। यदि आप ऐसा करने में सक्षम हैं, तो आप धर्म का पालन कर रहे हैं। यदि अन्य रुचियां आप में व्याप्त हैं और आप अपने मन को अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित करने का प्रयास करते हैं, तो भले ही आप सोचें कि आप एक आस्तिक हैं, आप सच्चे आस्तिक नहीं बन पाएंगे। ईश्वर के प्रति सच्ची आस्था रखने वाले का हृदय सदैव धर्म की ओर लगा रहता है।’’
हिंदू धर्म साधक को विचार और चयन करने की स्वतंत्रता देता है। यहां व्यक्ति प्रश्न करने, स्वीकार करने और इनकार करने के लिए स्वतंत्र है। स्वामी शिवानंद कहते हैं, ‘‘हिन्दू धर्म मनुष्य के तर्कसंगत दिमाग को पूर्ण स्वतंत्रता देता है। यह कभी भी मानवीय तर्क की स्वतंत्रता, विचार, भावना और इच्छा की स्वतंत्रता पर किसी अनुचित प्रतिबंध की मांग नहीं करता है। हिंदू धर्म स्वतंत्रता का धर्म है, जो आस्था और पूजा के मामलों में स्वतंत्रता का व्यापक अंतर देता है। यह ईश्वर की प्रकृति, आत्मा, पूजा के रूप, सृष्टि और जीवन के लक्ष्य जैसे प्रश्नों के संबंध में मानवीय तर्क और हृदय की पूर्ण स्वतंत्रता की अनुमति देता है। यह किसी को विशेष अनुष्ठान या पूजा के रूपों को स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करता है। यह हर किसी को चिंतन करने, जांच करने, पूछताछ करने, विचार करने की अनुमति देता है।’’
हिन्दुत्व एक दर्शन
हिन्दुत्व किसी विशेष धर्मग्रंथ या मार्ग को प्रधानता नहीं देता। यहां तक कि बहुत से हिंदू लोगों द्वारा पूजे जाने वाले वेद भी अंतिम प्रमाण नहीं हैं। एक हिंदू वेदों के अधिकार पर भी सवाल उठाने के लिए स्वतंत्र है। आदि शंकराचार्य ‘शंकर भाष्य’ के अपने परिचय में कहते हैं- शेतो अग्नि अप्रकाशो वा इथि ब्रुवन श्रुति शतमपि न प्रमाणमुपैथि।
अर्थात् यदि कोई वेद कहता है कि आग ठंडी है और प्रकाश उत्सर्जित नहीं करती है, तो मैं इसे अस्वीकार कर दूंगा।
कुछ उदाहरणों में भगवद्गीता भी वेदों के अधिकार पर सवाल उठाती है। हिन्दुत्व व्यक्तिगत अनुभव को प्रधानता देता है और यह सत्य के एकमात्र स्वामी के रूप में व्यक्तियों के दावों को अस्वीकार करता है। उपनिषद, वेद केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शक हैं। प्रत्येक पुरुष या महिला अपना रास्ता चुनने के लिए स्वतंत्र है। विद्वान और अशिक्षित, दोनों को अपने अनुभव और स्वयं द्वारा चुने गए रास्ते पर चलने का समान अधिकार है। हिंदू धर्म में कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसके पास आध्यात्मिक सत्य या ईश्वर तक पहुंचने का एकमात्र तरीका है। एक विधि या संदेश अनेक में से केवल एक ही हो सकता है। इसीलिए हम कहते हैं कि हिंदुत्व ‘केवल’ विश्वास नहीं है, बल्कि एक दर्शन है। भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में इसे खूबसूरती से समझाया है-
ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तंस्तथैव भजाम्यहम्,
मम वर्त्मनुवर्तन्ते मनुष्य: पार्थ सर्वश:।
जैसे-जैसे मनुष्य मेरे पास आते हैं, वैसे-वैसे मैं उन्हें अपने प्रेम (भजामि) में स्वीकार करता हूं। हे पार्थ! मनुष्य हर प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।
इसलिए हमारे यहां विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि कोई भी विश्वास प्रणाली जो किसी विचार या आस्था की स्वतंत्रता को नकारती है, वह हिंदुत्व का हिस्सा नहीं हो सकती। ‘भारत के पुनर्जन्म’ के लिए श्री अरबिंदो ने सुझाव दिया था कि जीवन में सत्य आचरण की बहाली के लिए हिन्दू धर्म के मूल्यों को हमारी शैक्षिक प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिए। कुछ साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक माननीय आर. हरि के साथ बातचीत के दौरान केरल के पूर्व मुख्य सचिव स्वर्गीय डॉ. डी बाबू पॉल, जो कि एक सीरियाई ईसाई हैं, ने कहा था, ‘हिन्दुओं का हिन्दू धर्म को लेकर अधिक से अधिक आस्थावान बनना मानवता के लिए वरदान होगा।’
हिंदुत्व में अपने दार्शनिक मूल को अक्षुण्ण रखते हुए परस्पर विरोधी विचारों और विश्वास प्रणालियों को भी समायोजित करने और आत्मसात करने की उल्लेखनीय शक्ति है। इसमें नए विचारों से कभी घृणा नहीं की। दूसरी ओर, यह नए लोगों के लिए ग्रहणशील था, चाहे वे कहीं से भी उत्पन्न हुए हों।
अनो भद्र कृतवो यंतु विश्वत:।
अर्थात् सभी ओर से नेक विचार हमारे पास आएं। इसने नए विचारों का स्वागत किया और उनके साथ प्रयोग किया, अपनी नींव पर मजबूती से खड़ा रहा। इसके ग्रंथों में जांच की भावना, चीजों के बारे में सच्चाई का पता लगाने का कभी न खत्म होने वाला जुनून निहित है। इसका विज्ञान के साथ कभी टकराव नहीं हुआ, क्योंकि इसने सत्य की खोज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया। हमारे ऋषियों ने रहस्यमय व तर्कसंगत ज्ञान को अलग-अलग नहीं देखा। उन्होंने सत्य को जानने व अनुभव करने के लिए योग जैसी पद्धतियां विकसित कीं। हिंदुओं का विश्व दृष्टिकोण अद्वैत दर्शन से आकार लेता है, जो कहता है कि ब्रह्मांड एक पदार्थ से बना है, जिसका रूप लगातार बदल रहा है। हम ब्रह्मांड का एक हिस्सा हैं और हमारा जीवन ब्रह्मांड के साथ निरंतरता में है। हिंदू धर्म के अनुसार, ब्रह्मांड भगवान का शरीर है, सभी निर्जीव व जीवित प्राणी इसका एक हिस्सा हैं।
अखण्ड-मण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्।
तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्री गुरवे नम:।।
ईश्वर जो संपूर्ण है, जो अविभाज्य है, हर जगह मौजूद है, सजीव और निर्जीव दोनों जगतों में व्याप्त है। गुरु, जिसने ऐसे भगवान के चरणों को देखा है, मैं उनका नमन करता हूं।) इसलिए, एक हिंदू के पास इस संबंधपरक निरंतरता को संतुलन में रखने के लिए एक मजबूत नैतिक प्रतिबद्धता है, क्योंकि प्रकृति को नुकसान पहुंचाने का मतलब खुद को नुकसान पहुंचाना है।
हिंदुत्व और लोकतंत्र
एक बार रा.स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक श्री राजेंद्र सिंह से एक विदेशी संवाददाता ने पूछा कि वह लोकतंत्र को कैसे देखते हैं, जो विश्व को पश्चिमी सभ्यता द्वारा दिया गया एक उपहार है। भावपूर्ण मुस्कान के साथ उन्होंने उत्तर दिया, ‘पाकिस्तान ने भी उसी समय लोकतंत्र अपनाया…और बाद में बांग्लादेश ने भी। आप इन देशों में लोकतंत्र का स्वरूप जानते हैं।’
लोकतंत्र का विचार भारत के लिए अलग नहीं था। ऋग्वेद और अथर्ववेद में सभा और समिति का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद हमें बताता है कि राजा की स्थिति पूर्ण नहीं है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र गणराज्यों के विभिन्न रूपों और निर्णय लेने में नागरिकों की भूमिका पर चर्चा करता है। बौद्ध काल के दौरान हम कई राज्यों को अपने राजाओं को चुनने के लिए लोकतांत्रिक तरीकों को अपनाते हुए पाते हैं। इतिहास बताता है कि वैशाली के राजा विशाल को जनता ने चुना था। जब महात्मा गांधी ने ‘ग्राम गणराज्य’ की स्थापना के बारे में बात की, तो उनका लक्ष्य केवल हमारे पूर्वजों द्वारा विकसित लोकतंत्र के प्राचीन, लेकिन मजबूत सिद्धांतों पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का पुनरुद्धार करना था।
देश माफ नहीं करेगा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि कुछ दिन पहले हिन्दुओं में जो शक्ति की कल्पना है, उसके विनाश की घोषणा की गई थी। आप किस शक्ति के विनाश की बात करते हैं? ये देश सदियों से शक्ति का पात्र है। ये मेरा बंगाल मां दुर्गा की पूजा करता है। आप उस शक्ति के विनाश की बात करते हो? इन्होंने हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ने की साजिश की थी। इनके साथी हिन्दू धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया ऐसे शब्दों से करें और ये लोग तालियां बजाएं। ये देश कभी माफ नहीं करेगा। एक सोची-समझी रणनीति के तहत इनका पूरा इकोसिस्टम हिन्दू परंपरा, हिन्दू समाज, इस देश की संस्कृति, इस देश की विरासत को नीचा दिखाना, गाली देना, अपमानित करना, हिन्दुओं का मजाक बनाना, इसे फैशन बना दिया है और उसको संरक्षण देने का काम अपने राजनीति स्वार्थ के लिए ऐसे तत्व कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने कहा कि हम बचपन से सीखते हुए आए हैं। गांव का हो, शहर का हो, गरीब हो, अमीर हो। इस देश का बच्चा-बच्चा यह जानता है ईश्वर का हर रूप दर्शन के लिए होता है। ईश्वर का कोई भी रूप निजी स्वार्थ के लिए प्रदर्शन के लिए नहीं होता है, जिसके दर्शन होते हैं, उसके प्रदर्शन नहीं होते हैं। हमारे देवी-देवताओं का अपमान 140 करोड़ देशवासियों के दिलों को चोट पहुंचा रहा है। निजी राजनीति स्वार्थ के लिए ईश्वर के रूपों का इस प्रकार का खेल ये देश कैसे माफ कर सकता है? सदन के दृश्यों को देखकर अभी हिन्दू समाज को भी सोचना होगा। क्या ये अपमानजनक बयान संयोग है या कोई प्रयोग की तैयारी है? ये हिन्दू समाज को सोचना पड़ेगा।
सब में ईश्वर देखता है हिन्दू
हिन्दू संपूर्ण जड़ जगत से प्रेम करता है। सबमें ईश्वर को देखता है। हिन्दू अहिंसक है, समन्वयवादी है और सहिष्णु है। हिन्दू यही तो कहता है कि पूरा विश्व मेरा परिवार है। सबके कल्याण और सुख सम्मान की कामना करना निरंतर हिन्दू अपना धर्म मानता है। और हिन्दुओं को हिंसक कहना अथवा ये कहना कि वे घृणा फैलाते हैं, ये ठीक नहीं है। इस प्रकार की बातें कहकर पूरे समाज को लांछित कर रहे हैं। अपमानित कर रहा है। हिन्दू समाज अत्यंत उदार है और वह ऐसा समाज है जो सबमें समावेशी है, सबका सम्मान करता है। सभी जातियों का, सभी मतपंथों का सभी धर्मों का। हमारे सभी प्राणी अत्यंत आदरणीय है।
इसलिए हिन्दू तो वह है, जो सबमें ईश्वर को देखता है। आदरणीय राहुल गांधी जी का बार बार ये कहना कि हिन्दू हिंसक है और हिन्दू नफरत पैदा करते हैं या हिन्दू चौबीस घंटे हिंसा करते हैं अथवा मिथ्या बोलते हैं। मैं इनके इन शब्दों की भर्तस्ना करता हूं। खेद व्यक्त करता हूं। वे सदन के सम्माननीय सदस्य हैं और विपक्ष के नेता है। इसलिए इन शब्दों को वापस लेना चाहिए। पूरा समाज आहत है। संत समाज में रोष है। उन्होंने हिन्दुओं की मान्यता पर प्रहार किया है जो कि अत्यंत कोमल करूणामयी वेदना हुई है। उन्होंने ऐसा कहकर संत समाज को कलंकित किया है। उन्हें इसके लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
सब में ईश्वर देखता है हिन्दू
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के संसद में दिए गए भाषण पर रा.स्व.संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा, ‘‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद में महत्वपूर्ण जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग हिंदुत्व को हिंसा से जोड़ रहे हैं। हिंदुत्व ऐसा है कि चाहे वह विवेकानंद का हो या गांधी का, यह सद्भाव और भाईचारे का प्रतीक है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। हिंदुत्व पर ऐसी प्रतिक्रिया ठीक नहीं है।’’
हिन्दुत्व बनाम नेहरूवादी सेकुलरिज्म
हम उस चीज को अस्वीकार करते हैं, जिसे नेहरूवादी सेकुलरिज्म के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जिसने राजनीति को फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। इसने एक जाति को दूसरी जाति और एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा कर दिया है और तथाकथित अल्पसंख्यक समुदायों को राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ एकीकृत होने से रोक दिया है।
नेहरूवादी पंथनिरपेक्षता की उत्पत्ति की व्याख्या करते हुए वरिष्ठ पत्रकार माधव नलपत लिखते हैं, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि नेहरू विभाजन की विभीषिका को लेकर इतने भयभीत थे कि उन्होंने स्पष्ट रूप से निर्णय लिया कि कहीं धर्म के आधार पर फिर ऐसा न हो। इसका तरीका ‘अल्पसंख्यकों’ को अलग करना है। नेहरू ने यह सुनिश्चित किया कि ‘पर्सनल लॉ’ जैसे मुद्दों के अपवाद के रूप में ‘अल्पसंख्यक’ को वे अधिकार दिए जाएं, जो ‘बहुसंख्यकों’ को नहीं दिए गए। नेहरूवादी सेकुलरिज्म का जन्म असुरक्षा, बेईमानी और कमजोरी से हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं को विभाजित रखना और अल्पसंख्यकों को एकजुट होने देना है। इसका उद्देश्य किसी भी ईमानदारी से रहित एकता की झूठी भावना को बढ़ावा देना है और इसका उपयोग ‘विचार में स्वतंत्रता और कार्रवाई में प्रगतिशीलता को हतोत्साहित करने’ के लिए किया जा रहा है।
श्री अरबिंदो हमें झूठी एकता को बढ़ावा देने के खतरों के प्रति आगाह करते हैं, जब वे कहते हैं, ‘‘एक मृत और निर्जीव एकता की व्यापकता राष्ट्रीय पतन का सच्चा सूचकांक है, ठीक उसी तरह जैसे एक जीवित एकता की व्यापकता राष्ट्रीय महानता का सूचकांक है।’’ दिलचस्प बात यह है कि नेहरूवादी सेकुलरिज्म की सबसे प्रासंगिक और तीखी आलोचना किसी और ने नहीं, बल्कि पहले प्रधानमंत्री के कैबिनेट सहयोगी केएम मुंशी ने की थी। उनका कहना था, ‘‘सेकुलरिज्म की आड़ में धर्म विरोधी वे ताकते हैं, जो कथित सेकुलरों और साम्यवाद द्वारा प्रायोजित हैं।
ये बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक धर्मपरायणता, उनकी भक्ति की निंदा करती हैं। इनके नाम पर सत्ताधारी राजनेता एक अजीब रवैया अपनाते हैं, जो अल्पसंख्यक समुदायों की मजहबी और सामाजिक संवेदनाओं को तो स्वीकार करता है, लेकिन बहुसंख्यक समुदाय में इसी तरह की संवेदनाओं को सांप्रदायिक और रूढ़िवादी करार देने के लिए तैयार रहता है। यदि फिर भी ‘सेकुलरिज्म’ शब्द का दुरुपयोग जारी रहता है, तो पारंपरिक सहिष्णुता के झरने सूख जाएंगे। केएम मुंशी द्वारा व्यक्त की गई आशंकाएं आज उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी तब थीं।
एसएन बालगंगाधर ने ‘रीकॉन्सेप्चुअलाइजिग इंडिया’ स्टडीज में लिखा है कि इस तरह की पंथनिरपेक्षता हिंसा को जन्म देती है। यह हमने देखा ही है कि कैसे नेहरूवादी सेकुलरिज्म के समर्थक पंथनिरपेक्षता की बात करने वाले राम जन्मभूमि मामले में झूठ और जालसाजी का सहारा ले रहे थे।
भारत की सच्ची नियति
हिन्दुत्व में समय की आवश्यकताओं के अनुरूप खुद को सुधारने और नया आविष्कार करने की जबरदस्त क्षमता है। हमें अपने अतीत पर गर्व है, हमारा ध्यान भविष्य पर है- अपनी मातृभूमि को परम गौरव प्राप्त कराने के लिए हमें भारतीय विचारों और दर्शन की आवश्यकता है, न कि विदेशी अवधारणाओं और समाधानों की।
गर्व से उन्नत हिन्दू मस्तक
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