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बोया पेड़ बबूल का

अगर आग को बुझाने के लिए उसमें घी डालने का तरीका अपनाएंगे, तो क्या होगा? वही होगा, जो बलूचिस्तान में हो रहा है

by अरविंद
Jul 5, 2024, 11:31 am IST
in विश्लेषण, जम्‍मू एवं कश्‍मीर
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‘यदि आप बलोच हैं और राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं तो इसका मतलब है कि आप अपनी, अपने परिवार वालों और अपने से जुड़े बाकी लोगों की जान खतरे में डाल रहे हैं।’ यह कहना है बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली मेहरंग बलोच का। मेहरंग बिल्कुल सही कह रही हैं। शहर तो छोड़ दीजिए, शायद ही ऐसा कोई कस्बा-मुहल्ला हो जहां इसके उदाहरण न हों। पाकिस्तान ने बलूचों की आजादी की लड़ाई को कमजोर करने के लिए जो रणनीति अपनाई, उसमें इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के हौसले को तोड़ना भी रहा है और इसी के तहत आजादी के लिए आवाज बुलंद करने वालों के परिवारों को निशाना बनाया जाता रहा। लेकिन ऐसा करके शायद वह उसी शाख को काट रहा है जिसपर बैठा है।
चावल पके हैं या नहीं, यह जानने के लिए एक-एक चावल को देखने की जरूरत नहीं पड़ती। वैसे ही, पाकिस्तान की यह रणनीति किस तरह उसके लिए उलटे परिणाम दे रही है, इसे भी समझने के लिए चंद उदाहरण काफी हैं। बात मेहरंग बलोच ने शुरू की है तो सबसे पहले उनका ही उदाहरण।

आज मेहरंग बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली अग्रणी कार्यकर्ताओं में गिनी जाती हैं। कम उम्र में पाकिस्तान सरकार और उसकी ताकतवर फौज की हैवानियत के खिलाफ मानवाधिकार हनन को हथियार बनाकर मुहिम छेड़ने के पीछे उनके निजी जज्बात हैं। उनके पिता अब्दुल गफ्फार लैंगोव बलूचिस्तान की आजादी के लिए लड़ते थे और इसी कारण फौज ने उन्हें अगवा करके मार डाला था। चूंकि लैंगोव आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और ऐसे लोगों को ‘रास्ते पर लाना’ पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए जरूरी था जिससे कि ‘लैंगोव’ बनने से लोगों को हतोत्साहित किया जाए और खास तौर पर उनके परिवार को तो ‘सबक’ सिखाना निहायत जरूरी था जिससे कि उनके परिवार के लोग सरकार के खिलाफ खड़े होने के बारे में सोच भी न सकें। इसी उद्देश्य के साथ फौज लैंगोव के बेटे यानी मेहरंग के भाई को भी अगवा करके ले गई और उसे आजादी की लड़ाई लड़ रहा एक कमांडर बताते हुए तीन माह तक कैद में रखकर तरह-तरह की यातनाएं दीं। लेकिन इससे हुआ क्या? बेशक, मेहरंग आजादी की लड़ाई में अब तक प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं हैं, लेकिन वे मानवाधिकार हनन के मामलों को उठाकर अप्रत्यक्ष रूप से इसे मजबूत जरूर कर रही हैं।

हर तबका शामिल

इस तरह के उदाहरण हर तबके में मिल जाएंगे-अमीर हों या गरीब, शिक्षित हों या अशिक्षित, मर्द हों या औरतें। चंद उदाहरणों पर ध्यान दें। बरहमदाग बुगती को लें। उनके दादा अकबर खान बुगती आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े एक लोकप्रिय बलूच नेता थे और बलूचिस्तान के मंत्री और गवर्नर भी रह चुके थे। लेकिन बलूचिस्तान के लिए अधिक स्वायत्तता की खातिर उनके अभियान को पाकिस्तान ने सख्ती से कुचला और आखिरकार एक बलूच भेदिए की कथित मुखबिरी से अकबर खान बुगती मारे गए। आज उनके पोते बरहमदाग बुगती ‘बलूचिस्तान रिपब्लिकन पार्टी’ (बीआरपी) के अध्यक्ष हैं और बलूचिस्तान की आजादी के लिए जिनेवा में रहकर लड़ाई लड़ रहे हैं। 2006 में अकबर बुगती की हत्या के दो साल बाद 2008 में बीआरपी का गठन किया गया और 2012 में संयुक्त राष्ट्र स्थापना दिवस यानी 24 अक्तूबर को पाकिस्तान सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था। इस तरह अकबर बुगती जो केवल ज्यादा स्वायत्तता और संसाधनों पर बलूचों का ज्यादा हक चाहते थे, उसे सत्ता ने अपनी लापरवाही से आजादी के आंदोलन में बदल जाने दिया।

वैसे ही, मर्री कबीले के नेता हरबयार मर्री को लें। 1997 में बलूचिस्तान असेंबली के लिए चुने गए हरबयार को संचार मंत्री नियुक्त किया गया। लेकिन वर्ष 2000 में उनके पिता खैर बख्श मर्री को बलूचिस्तान उच्च न्यायालय के जस्टिस नवाज मर्री की हत्या में कथित संलिप्तता के कारण गिरफ्तार किए जाने के बाद हरबयार मर्री की जिंदगी बदल गई। आज निर्वासित जीवन बिता रहे हरबयार को बलूचिस्तान की आजादी के चंद सबसे बड़े समर्थकों में गिना जाता है। एक बार फिर, बलूचिस्तान की राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल रहे एक व्यक्ति को आजादी के लिए काम करने को मजबूर कर दिया जाता है।

वह बुद्धिजीवी छात्र नेता

किसी भी आंदोलन में युवाओं यानी छात्रों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है और पाकिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान के छात्रों के साथ कैसा सलूक किया है और कैसे उन्हें मजबूर कर दिया है कि वे बलूचिस्तान की आजादी के आंदोलन में शामिल हों, इसका उदाहरण हैं जाकिर मजीद बलोच। बलोच स्टूडेंट्स आर्गनाइजेशन (बीएसओ आजाद) के वाइस चेयरमैन जाकिर मजीद लासबेला यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में एमए कर रहे थे। 8 जून, 2009 को जब वे क्वेटा से अपने गृहनगर खुजदार जा रहे थे, तो रास्ते में मस्तंग जिले में उन्हें अगवा कर लिया गया। तब से 15 साल हो चुके हैं लेकिन जाकिर मजीद का कोई अता-पता नहीं है। इसका नतीजा क्या हुआ? उन्हें अगवा किए जाने के 15 साल पूरे होने पर इस्लामाबाद में धरना-प्रदर्शन किया गया जिसमें पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार हामिद मीर ने भी भाग लिया। हामिद मीर ने यह भी कहा कि उन्हें मजीद की मां से जानकारी मिली है कि कुछ हफ्ते पहले ही कुछ अज्ञात लोगों ने उनके घर को जला दिया।

बीएसओ (आजाद) बलूचिस्तान की आजादी का पक्षधर रहा है और इसके लिए शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। लेकिन पाकिस्तान की सत्ता को इससे डर लगा और उसने मजीद को अगवा कर लिया। लेकिन उसके बाद हुआ क्या? आज 15 साल बाद भी मजीद छात्रों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं। इसके अलावा मजीद का पता लगाने के लिए समय-समय पर धरने-प्रदर्शन होते रहते हैं। एक तो इस तरह का कोई भी धरना जबरन लापता हुए लोगों के सगे-संबंधियों को एकजुट होने का मौका देता है और दूसरा, इस अभियान से वैसे लोग भी जुड़ते जा रहे हैं जो बलूचिस्तान के बाहर के इलाकों के रहने वाले हैं, बुद्धिजीवी हैं और पाकिस्तानी समाज को बेहतर बनाना चाहते हैं। उनकी बूढ़ी मां जब अपने बेटे को खोजने की अपील करती हैं तो उनकी बातें लोगों को भावुक कर जाती हैं। दूसरी ओर मजीद की बहन फरजाना मजीद अपने तरीके से जबरन लापता कर दिए गए लोगों के खिलाफ अभियान चला रही हैं।

2011 में उन्होंने कुछ लापता लोगों के परिवार के साथ क्वेटा से इस्लामाबाद तक का ट्रेन मार्च निकाला। इसके अलावा फरजाना उस ऐतिहासिक पैदल यात्रा के आयोजकों में से एक थीं जिसके तहत फौज द्वारा लापता कर दिए गए लोगों के परिवार के लोगों ने 2013 में क्वेटा से कराची और फिर कराची से इस्लामाबाद तक की लगभग 23,00 किलोमीटर की पैदल यात्रा निकाली थी। तो इस मामले में भी क्या हुआ? पाकिस्तानी फौज और उसकी खुफिया एजेंसी ने एक चिंगारी को भड़का दिया। आज हजारों परिवार इकट्ठे होकर पाकिस्तान सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और अपने लापता प्रियजनों को सामने लाने की मांग कर रहे हैं और इस तरह आजाद बलूचिस्तान की मांग मजबूत हो रही है।

बलूचिस्तान में मानवाधिकार पर काम करने वाली एक संस्था है ‘पांक’। इसकी हालिया मासिक रिपोर्ट बताती है कि मई के महीने में बलूचिस्तान में 3 लोगों को फौज या उसके डेथ स्क्वॉयड ने मार डाला, 19 लोगों को फौज द्वारा यातनाएं दी गईं और 90 लोगों को फौज और उसकी एजेंसियों ने अगवा कर लिया। सोचने वाली बात है कि क्या इन लोगों के अपने चुप बैठ जाएंगे? कुछ अगर किन्हीं कारणों से चुप बैठ भी जाएं, क्या बाकी के रिश्तेदार-दोस्त-बिरादरी वाले पाकिस्तानी सत्ता, उसकी फौज के खिलाफ खड़े नहीं होंगे?

सच तो यह है कि ऐसा लगातार हो रहा है और इसी कारण बलूचिस्तान में आजादी की लड़ाई का आकार और आयाम लगातार बढ़ता जा रहा है। हथियारबंद विद्रोही गुटों में लोगों का शामिल होना लगातार बढ़ता जा रहा है। सीधी सी बात है- हर किसी की प्रतिक्रिया का तरीका अलग होता है। कोई थप्पड़ खाकर बैठ जाएगा, कोई अपशब्द कहेगा, कोई पलटकर थप्पड़ मारेगा तो कोई इससे भी खतरनाक वार कर बैठेगा- यह मानव स्वभाव होता है। लेकिन यह बात उसे तो समझ में आनी चाहिए जो उसी शाखा को काटने पर तुला है जिसपर बैठा है!

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