शेर-ए पंजाब  महाराजा रणजीत सिंह : अफगानों को उनकी धरती पर भेजा, कोहिनूर ने बढ़ाई खजाने की चमक 
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शेर-ए पंजाब  महाराजा रणजीत सिंह : अफगानों को उनकी धरती पर भेजा, कोहिनूर ने बढ़ाई खजाने की चमक 

प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एकजुट किया, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया।

by सुरेश कुमार गोयल
Jun 27, 2024, 01:15 pm IST
in भारत, विश्लेषण, पंजाब
महाराजा रणजीत सिंह

महाराजा रणजीत सिंह

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शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एकजुट किया, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया। रणजीत सिंह सहस्राब्दी में पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्रमण की लहर को भारत के पारंपरिक विजेताओं, पश्तूनों (अफ़गानों) की धरती में वापस मोड़ दिया। उनका राज्य उत्तर-पश्चिम में खैबर दर्रे से लेकर पूर्व में सतलुज नदी तक और भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तरी सीमा पर कश्मीर क्षेत्र से लेकर दक्षिण में थार रेगिस्तान तक फैला हुआ था।

रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1780, बुदरूखां या गुजरांवाला में (अब पाकिस्तान) जाट सिख परिवार में महाराजा महा सिंह के घर हुआ था। उन दिनों पंजाब कई मिसलों में बंटा था। महाराजा रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे, जिसका मुख्यालय पश्चिमी पंजाब में स्थित गुजरांवाला में था। छोटी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी चली गयी थी। 1792 में जब वे मात्र 12 वर्ष के थे तो पिता का निधन हो गया और राजपाट का बोझ उन्हीं के कंधों पर आ गया। 12 अप्रैल 1801 को रणजीत सिंह ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक जी के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और 1802 में अमृतसर की ओर रुख किया। 15 साल की उम्र में उन्होंने कन्हैया के सरदार की बेटी से शादी की।

महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ते हुए पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। यह पहला अवसर था जब पश्तूनों पर किसी ग़ैर-मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने गुरुओं, सिख नेताओं की श्रद्धेय पंक्ति के नाम पर सिक्के चलवाए। एक साल बाद उन्होंने अमृतसर को अपने अधिकार क्षेत्र में लिया, जो उत्तर भारत का सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र था। उनकी ताकतवर सेना ने अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा।

एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में क़ानून एवं व्यवस्था क़ायम की और कभी भी किसी को मृत्युदण्ड नहीं दिया। उन्होंने जनता से वसूले जाने वाले जज़िया पर भी रोक लगाई। उन्होंने अमृतसर के हरिमन्दिर में संगमरमर और सोना मढ़वा कर पुनरुद्धार कराया। तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा। मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर के ऊपरी भाग पर सोने का स्वर्णपत्र जड़वाया।

दिसंबर 1809 में वह लघु हिमालय (जो अब पश्चिमी हिमाचल प्रदेश राज्य है) में कांगड़ा के राजा संसार चंद की सहायता के लिए गए और आगे बढ़ रहे घुरका बल को हराने के बाद कांगड़ा को अपने कब्जे में कर लिया। 1812 में पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। उन्होंने दस वर्ष में मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक अपने राज्य को बढ़ा लिया। रणजीत सिंह की सेना में सभी पंथों के सैनिक थे। उनके कमांडर भी विभिन्न समुदायों से थे। 1820 में रणजीत सिंह ने पैदल सेना और तोपखाने को प्रशिक्षित करने के लिए यूरोपीय अधिकारियों का उपयोग करके अपनी सेना का आधुनिकीकरण करना शुरू किया।

महाराजा रणजीत सिंह के खजाने का बहुमूल्य हीरा कोहिनूर रौनक था। लगातार लड़ाइयां लड़ते उदार हृदय महाराजा रणजीतसिंह अस्वस्थ हो रहे थे। 1838 में लकवा से ग्रसित हो गए और बहुत उपचार करने के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। 27 जून 1839 को उनका निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई।

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