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आपातकाल का संघर्ष : लिखना मना था…

हाहाकार, प्रतिरोध, गुस्से का लावा शहर के हर कोने में धधक रहा था। उन्हीं दिनों मेरे जैसे अनेक साहित्यकारों के खिलाफ बार बार सीआईडी, कभी विश्वविद्यालय में तो कभी घरों में दस्तक देती थी

by प्रो. हरमहिन्दर सिंह बेदी
Jun 26, 2024, 01:24 pm IST
in भारत, विश्लेषण, पंजाब
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मैं उस समय अमृतसर में था। अचानक जीवन रुक गया। चारों ओर उदासी, अजीब सा माहौल। मैं उन दिनों कविता लिखता था। नौजवान हिन्दी शायर कहलाता था। कवि गोष्ठियों में अक्सर मेरी कविताओं को गर्म लोहा और गर्म खून कविताएं कहा जाता था। अचानक कविताओं पर प्रतिबंध लगा। शहर में सीआईडी वाले घूम-घूम कर लेखकों की सूचियां बांटने लगे। आतंक, संत्रास, त्रासदी जैसे शब्द हवा में तैरने लगे। चारों ओर भय, डर का माहौल छाने लगा।

प्रो. हरमहिन्दर सिंह बेदी
कुलाधिपति, केंद्रीय विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश

कविताएं थमने लगीं। मैं सोचने लगा कि सरकार ऐसा क्यों करती है? कविता पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? पिताजी ने मना किया कि कोई भी कविता किसी भी अखबार को मत भेजना। पर मैंने कविताएं भेजनी बंद नहीं की। और एक दिन अचानक वही हुआ जिसका पिताजी को डर था। एक लंबे कद वाले सरदार जी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा मैंने खोला, उन्होंने रौब भरी आवाज में पूछा, क्या नाम है?

इमरजेंसी के विरोध में पंजाब केसरी अखबार को आपने कविता भेजी थी? मैंने जवाब दिया, वह छपी नहीं। सरदार जी बोले काली स्याही वाला पृष्ठ देखा, वहीं तुम्हारी कविता है। मैं सहम गया। फिर पूछा, क्या काम करते हो? मैंने कहा गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. करता हूं। सरदारजी बोले, पी.एच.डी. की ओर ध्यान दो। लिखना है तो आपातकाल को अनुशासन पर्व के नाम से लिखो।

सरदारजी चले गये। मैं कई दिन तक उन घूरती आंखों से डरता रहा। दिल्ली से एक मित्र लौटे, बहुत खुश थे। कहने लगे, ‘‘अब बहुत कुछ ठीक हो जाएगा। सब अच्छा हो रहा है। तुम अभी नौजवान हो, भीतर झांककर देखो, भारतीय संस्कृति के गुणगान छोड़ दो। आप जैसे भारतीय संस्कृति के पहरेदारों को भी समझ आनी चाहिए। आप कहते हो अभिव्यक्ति का संकट। मैं कहता हूं कि पूरा देश एक नई चेतना को ग्रहण कर रहा है। धर्म, राष्ट्र से उपर उठो। सच्चा पंथ निरपेक्ष माहौल सत्ता बना रही है। एक नया हिन्दुस्थान उभर रहा है और आप उसके विरोध में खड़े हो! कब तक आप जैसे कवि इसे लोकतंत्र की हत्या कहेंगे।’’

मैं कुछ नहीं बोला। मैं उस वामपंथी नौजवान की ओर देखता रहा, जो लंबे चौड़े भाषण अभिव्यक्ति के संकट के खिलाफ दिया करता था, आज अचानक ही सत्ता के समर्थन में उठ खड़ा हुआ। कुछ ही महीनों बाद हवा साफ होने लगी। विरोध, अभिव्यक्ति की खबरों पर दबी हुई आवाजें चर्चा में भाग लेने लगीं। युवाओं का खून उबलने लगा। हाहाकार, प्रतिरोध, गुस्से का लावा शहर के हर कोने धधक रहा था।

उन्हीं दिनों मेरे जैसे अनेक साहित्यकारों के खिलाफ बार-बार सीआईडी, कभी यूनिवर्सिटी में तो कभी घरों में दस्तक देती थी। मुझे याद है कि गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में बीए भाग-1 की पुस्तक में एक कविता इमरजेंसी के खिलाफ पाठ्यक्रम का हिस्सा बनी। यूनिवर्सिटी में कांग्रेस के समर्थन वाले बौखला उठे। लेकिन कुलपति पीछे नहीं हटे और कहा कि विचारों पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। फिर क्या था, हिन्दी की अनेक कविताओं का पंजाबी में अनुवाद किया। पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगा। आपातकाल हटा, बादल छंटने लगे। सूर्य उदय हुआ। सत्ता के नशे की रात ढल चुकी थी।

आपातकाल हटने के कुछ साल बाद ही कि काले बादल दूसरे रूप में पंजाब के शांत माहौल को डराने लगे। पंजाब में पनपे आतंकवाद के चलते पंजाब की धरती आंसुओं से भर गयी। सत्ता के मोह में डूबे सत्ताधारियों ने दोबारा पंजाब की धरती पर आतंकवाद की फसल बो दी। वह भयावह दौर था।

मुझे लगता है कि इमरजेंसी का भयानक रूप बहुत देर तक पंजाब के साहित्य, कला, पंजाब की अनुभूतियों पर, चेहरों पर छाया रहा। अब वैसी सत्ता नहीं है, विश्वास है कि आने वाले दिनों में इस सूर्य की किरणें पंजाबियत की एक नयी दुनिया को विश्व के सामने रखेंगी।

सरकार की कलाई खोलने वाली सरकारी रिपोर्ट

 

 

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