25 जून, 1975 को पूरा देश जैसे बंधक बन गया था। जिस रायबरेली ने इंदिरा गांधी पर दुलार लुटाया, वह रायबरेली जिला भी उन्हीं इंदिरा गांधी की वजह से कराह उठा था। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री गिरीश नारायण पांडेय उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तहसील कार्यवाह थे। आपातकाल के दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया, ‘‘3 जुलाई, 1975 की रात मैं लालगंज स्थित घर में सो रहा था। लगभग 1:30 बजे पुलिस का दारोगा दरवाजे पर आया, उसने कुंडी खटखटाई। मैंने पूछा कि क्या काम है? उसने कहा कि एसडीएम साहब बुला रहे हैं, कोई जरूरी काम है। मैंने कहा कि इतनी रात में क्या काम होगा, उनसे कह दीजिए कि सुबह आएंगे। उसने कहा कि आप चले चलिए, मैं छोड़ जाऊंगा। मैंने कहा कि झूठ मत बोलो, तुम गिरफ्तार करने आए हो। सीढ़ी से नीचे उतरे तो देखा करीब एक दर्जन पुलिस वाले खड़े थे। उनके पास लाठी और बंदूकें थीं।
उन्होंने घेर लिया। कहा कि गाड़ी में बैठिए। मैंने कहा कि पैदल चलेंगे। हम पैदल थाने पहुंचे। वहां एसडीएम बैठे थे, शायद सलोन तहसील के थे। उन्होंने कहा कि आप मिल गए तो सांस में सांस आई, डीएम और एसपी ने कहा था कि ये खतरनाक आदमी हैं, अगर पकड़ कर नहीं ला सके तो हम मानेंगे कि आप इनसे मिले हुए हैं। फिर उन्होंने कहा कि रात में थाने में रहिए, सुबह पहुंचा दिया जाएगा। थाने में लगातार फोन आ रहे थे। सुबह एक प्राइवेट बस में बैठाकर रायबरेली ले गए। रायबरेली में थाने में संघ के और कार्यकर्ता भी थे। शाम तीन बजे हम लोगों को वहां से रायबरेली जेल के लिए रवाना किया।’’
उन्होंने पाञ्चजन्य को बताया, ‘‘वहां एलआईयू के इंस्पेक्टर मिले। वे घूम-घूमकर एक-एक आदमी को ढूंढ रहे थे। वे बोले कि रॉ वालों ने रिपोर्ट दी है, उस पर कार्रवाई की गई है। जेल में चाय तक नहीं दी गई। 24 घंटे अनशन किया तब हम लोगों को नाश्ता और चाय आदि दी गई। मैं जेल में करीब 11 महीने था। हमें यह पता नहीं था कि कहां ले जा रहे हैं। 15 दिन तक घर वालों को पता ही नहीं चला था कि हम कहां हैं।’’
झूठी एफआईआर
पांडेय आगे बताते हैं, ‘‘जमानत की अपील रायबरेली न्यायालय से भी खारिज हो गई थी। डीएम का सख्त आदेश था कि जब तक शासन नहीं कहेगा तब तक जमानत भी नहीं दी जाएगी। मेरे खिलाफ झूठी एफआईआर लिखाई गई थी। उसमें लिखा था कि मैं अपने घर के दरवाजे पर बैठक कर रहा था और उसमें पुलिस एवं फौज के सेवानिवृत्त लोग थे। शासन के खिलाफ भड़काने के लिए हथियार लेकर गए थे और हथियार बांट रहे थे। शासन के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भड़काने की बात भी लिखी गई थी।’’
उन्होंने एक अन्य घटना के बारे में बताया, ‘‘एक मामला फैजाबाद के एक वकील साहब का था। उनका एक ही हाथ था, उन पर आरोप था कि वे खंभे पर चढ़कर बिजली का तार काट रहे थे। न्यायाधीश ने कहा कि कोई एक हाथ से कैसे खंभा पकड़ेगा और कैसे तार काटेगा।’’
इंदिरा के खिलाफ दी थी गवाही
पांडेय इंदिरा पर चले मुकदमे के गवाह भी रहे हैं। वे बताते हैं, ‘‘इंदिरा गांधी के खिलाफ राज नारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। राज नारायण की तरफ से मैं भी गवाह था। इसी गवाही के आधार पर इंदिरा के खिलाफ फैसला आया था। मैंने गवाही दी थी कि 1971 के चुनाव में सरकारी साधनों का दुरुपयोग किया गया। इंदिरा गांधी के सचिव थे यशपाल कपूर। वे सरकारी कर्मचारी थे, लेकिन दौड़-दौड़कर चुनाव का सारा कार्यक्रम देखते थे। एसडीएम-डीएम बैठक की व्यवस्था करते थे। सरकारी कागजों का दुरुपयोग किया गया। उच्च न्यायालय में मुझसे डेढ़ घंटे तक जिरह की गई। गवाही न दूं, इसलिए धमकी दी जाती थी।’’
न्यायमूर्ति सिन्हा पर था दबाव
एक घटना के बारे में पांडेय बताते हैं, ‘‘जब मैं उत्तर प्रदेश में न्याय, विधि मंत्री था तो इलाहाबाद दौरे पर गया। वहां इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने वाले न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि जब निर्णय लिख रहा था तो फोन आ रहे थे कि क्या लिख रहे हो। जो भी चाहो वह दे देंगे। हमने कोई जवाब नहीं दिया। निर्णय पर कोई असर न पड़े, इसलिए मैंने अपने सहयोगी से कहा कि दो महीने तक मेरे साथ मेरे घर में अलग रहोगे। किसी से कोई टेलीफोन संपर्क नहीं होगा। मैं जो बोलूंगा वह लिखोगे। सुनवाई के बाद दो महीने तक परिवार में किसी से बात नहीं की। एक कमरे में रहा। कोई फोन नहीं था। एक-आध दिन किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ता था तो दो गनर लेकर जाते थे। धमकियां मिलती थीं, लेकिन हम डरे नहीं।’’
डर का माहौल था
रायबरेली शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर जगतपुर भिचकौरा गांव में रहने वाले नरदेव सिंह चौहान भी आपातकाल के साक्षी हैं। इन दिनों वे अस्वस्थ हैं, बोलने में असमर्थ हैं, फिर भी आपातकाल पर खुद को बोलने से न रोक सके। नरदेव चौहान कहते हैं, ‘‘उस समय मेरे पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जिला बौद्धिक प्रमुख का दायित्व था। आपातकाल के विरोध में मैं अपने चार साथियों के साथ लालगंज थाना पहुंचा और वहां अपनी गिरफ्तारी दी। इसके बाद मुझे रायबरेली की जेल में बंद कर दिया गया। 22 दिन तक जेल में रहे। उस समय कांग्रेस का बहुत ज्यादा डर था। इस कारण जेल में मुझसे मिलने के लिए कोई नहीं आया और किसी ने मेरी जमानत भी नहीं ली। खैर, 22 दिन बाद जेल से छूटे। इसके बाद फिर मुझे एक महीने के लिए जेल में डाल दिया गया।’’ चाहे गिरीश नारायण पांडेय हों या फिर नरदेव चौहान, इन दोनों ने आपातकाल के अत्याचारों को सहा। केवल इस आस में कि एक दिन आपातकाल का कलंक मिटेगा और लोकतंत्र मजबूत होगा। सच में ऐसा हुआ। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में मतदाताओं ने कांग्रेस को नकार दिया। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं। यह इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र में मनमानी नहीं चलती है, फिर चाहे वह इंदिरा की ही क्यों न हो।
लोक-तंत्र-विधान की शत्रु कांग्रेस
शादी की खुशी बदली उदासी में
आपातकाल की विभीषिका को याद कर आज भी पीड़ितजन या पीड़ित परिवार सहम उठते हैं। एक ऐसा ही परिवार है स्व. हरीश कुमार शर्मा उर्फ नेताजी का। उन दिनों उनका परिवार दरियागंज, दिल्ली में रहता था। शर्मा उस समय दिल्ली विद्युत बोर्ड में कार्यरत थे। दिल्ली विद्युत मजदूर संघ की स्थापना में उनकी बड़ी भूमिका रही थी।
उनकी पत्नी सरोज शर्मा बताती हैं, ‘‘12 जून, 1975 को उनका रिश्ता पक्का हुआ और 25 जून की रात आपातकाल लग गया। इसके बाद जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की धर-पकड़ शुरू हो गई।एक-एक कर मीसा के अंतर्गत जेल में बंद किया जाने लगा। स्थिति को देखते हुए हरीश शर्मा ने अपने ससुर मिट्ठन लाल शर्मा से कहा कि अभी भी वक्त है, मेरा कुछ मालूम नहीं कि किस दिन जेल जाना पड़े, चाहें तो आप रिश्ता तोड़ सकते हैं, लेकिन उन्होंने सहजता से यह कहकर बात को टाल दिया कि जो भी होगा देखा जाएगा।’’ समय गुजरता रहा।
11 दिसंबर, 1975 को हरीश शर्मा और सरोज शर्मा का विवाह संपन्न हो गया। शादी के कुछ ही दिन बाद पुलिस ने घर पर छापा मारा, पर वे वहां नहीं मिले। लेकिन इससे शादी की खुशी उदासी, भय और अनिश्चितता में बदल गई। परिवार वालों को कभी पुलिस से कहना पड़ा कि हरीश शर्मा माता वैष्णो देवी गए हैं, तो कभी किसी दूसरे झूठ का सहारा लेना पड़ा।
हालत यह हो गई कि हर दिन ठिकाना बदलने को मजबूर होना पड़ा। उस समय चिंता और भी बढ़ गई कि जब दिल्ली विद्युत बोर्ड में कार्यरत सतीश कटारा को भी जेल में मीसा के तहत बंद कर दिया। इसके बाद हरीश शर्मा को लगा कि शायद अब जेल जाने का समय निकट आ चुका है। यह बात उन्होंने अपने घरवालों को भी बता दी। परिवार की सुरक्षा के लिए और पुलिस से बचने के लिए। ऐसे में न जाने कितने रिश्तेदारों के घर आसरा लेना पड़ा, लेकिन हर कोई अपनी सलामती के लिए कुछ ही समय बाद यह कहकर बचने लगा कि कल कुछ पुलिस वाले यहां भी आपके बारे में पूछ रहे थे कि यह नया आदमी या रिश्तेदार कौन है?
सगे-संबंधियों का यह कहना हरीश शर्मा के चेहरे पर चिंता का भाव बढ़ाने लगा और चाहते या न चाहते हुए भी उन्हें अपना ठिकाना बदलना पड़ा। दिल्ली में धरपकड़ तेज होने पर हरीश शर्मा ने आखिरकार उत्तर प्रदेश का रुख किया और कई माह तक अपने कुछ रिश्तेदारों के यहां शरण ली। आखिर में उन्होंने एक लंबा वक्त अपनी ससुराल में गुजार कर आपातकाल के अज्ञातवास को पूरा किया। अक्तूबर, 2019 में हरीश शर्मा का स्वर्गवास हो गया, लेकिन अपने जीते जी वे आपातकाल के दंश को भूल नहीं सके। -राहुल शर्मा
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