आपातकाल का आम लोगों, मीडिया और राजनेताओं पर ही नहीं, हिंदी सिनेमा पर भी दमनचक्र चला था। सरकार ने तुगलकी फरमान जारी कर विदेश में फिल्मों की शूटिंग और फिल्म पार्टियों पर रोक लगा दी थी। बेतुके सेंसरशिप नियम लागू किए थे। फिल्मों में मनमाने ढंग से काट-छांट की गई। यहां तक कि परदे पर शराब की बोतल या खून के धब्बे जैसे दृश्य भी हटाने के लिए निर्माताओं को बाध्य किया गया। सेंसरशिप कानून की आड़ में फिल्मों की लंबाई, फिल्म निगेटिव का वितरण और आपूर्ति भी सीमित कर दी गई थी। फिल्म निर्माण में अनावश्यक हस्तक्षेप किए जा रहे थे। राजकपूर और सत्यजीत रे जैसे निर्माता-निर्देशकों को फिल्म निर्माण का पाठ पढ़ाया गया। पार्श्व गायक किशोर कुमार के गाने आकाशवाणी से हटा दिए गए। देव आनंद जैसी हस्तियों को भी परेशान किया गया।
देशभर में जिन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसरशिप लागू की गई थी, उनमें फिल्मी ‘गॉसिप’ छापने वाली पत्रिका ‘फिल्मफेयर’ भी शामिल थी। इस कारण निर्माता-निर्देशक और अभिनेता-अभिनेत्री ही नहीं, फिल्मी पत्रिकाओं के संपादक भी सत्ता की दमनकारी नीतियों से आक्रोशित थे। इसलिए 21 माह के काले दौर में फिल्म पत्रिकाएं और फिल्मी हस्तियां एक-दूसरे का सहयोग करती रहीं। सभी फिल्म पत्रिकाओं के संपादकों ने बाकायदा एक विज्ञापन प्रकाशित किया, जिसमें फिल्म प्रेस की स्वायत्तता की रक्षा करने की मांग की गई थी। फिल्म प्रेस पर प्रतिबंध का फैसला अमिताभ बच्चन के कारण लिया गया। उन्होंने अपने बचपन के दोस्त संजय गांधी से कुछ पत्रकारों की शिकायत की थी।
किशोर पर गाज, लता को धमकी
गीतकारों और अभिनेताओं को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने और गाने के लिए मजबूर किया गया। संजय गांधी के कहने पर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल ने सरकार के 20 सूत्री कार्यक्रम के प्रचार के लिए देव आनंद, किशोर कुमार जैसे प्रसिद्ध कलाकारों को कांग्रेस के कार्यक्रम में बुलाया, लेकिन दोनों ने मना कर दिया।
दरअसल, किशोर कुमार से अपेक्षा थी कि वह कांग्रेस की रैली में गाएं, लेकिन गुस्से में उन्होंने मना कर दिया। बाद में एक साक्षात्कार में किशोर कुमार ने कहा था, ‘‘मैं किसी के आदेश पर नहीं गाता।’’ इस इनकार के कारण आल इंडिया रेडियो पर उनके गानों के प्रसारण पर पाबंदी लगा दी गई। उनके घर पर आयकर छापे मारे गए। यहां तक कि लता मंगेशकर को भी प्रतिबंधित करने की धमकी दी गई। देव आनंद अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में लिखते हैं, ‘‘मुश्किल हालात के बावजूद 1977 में चुनाव की घोषणा के बाद हिंदी सिनेमा वास्तव में इंदिरा गांधी एंड कंपनी का समर्थन कर रहा था। फिल्म जगत का अधिकांश हिस्सा चाहता था कि इंदिरा सत्ता में बनी रहें।’’
निर्माता-निर्देशक ओपी रलहन की फिल्मों पर केंद्रीय प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) के हमले के बाद सिनेमा जगत का आक्रोश और भड़का। अप्रैल 1977 में ‘फिल्मफेयर’ ने एक सत्ता विरोधी लेख प्रकाशित किया। इसमें कहा गया कि सिनेमा जगत की हस्तियों ने अभूतपूर्व साहस दिखाते हुए सत्ता में बैठे राजनेताओं के हाथों हुए अपमान और ब्लैकमेल की कहानी दुनिया को बताई। इनमें निर्माता-निर्देशक विजय आनंद, शत्रुघ्न सिन्हा, प्राण, डैनी डेन्जोगप्पा, अमोल पालेकर, मौसमी चटर्जी आदि शामिल थे। इन्होंने आपातकाल के बाद 1977 में होने वाले आम चुनाव में जनता पार्टी के पक्ष में रैलियां भी की थीं। देव आनंद ने तो बाकायदा पार्टी भी बनाई थी, लेकिन उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिला तो चुनाव लड़ने का विचार त्याग दिया। वास्तव में इन सभी के खासतौर से ‘खलनायक’ यानी तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल थे, जिन्हें वे हर हाल में सत्ता से बाहर करने में जुटी हुई थीं।
दो गुटों में बंटा फिल्म जगत
हिंदी सिनेमा दो धड़े में बंट गया था। एक धड़ा सरकार की नीतियों का महिमामंडन कर रहा था, जबकि दूसरा गुट विरोध कर रहा था। देव आनंद ने आपातकाल का खुला विरोध किया था। उन्होंने इसे प्रोपेगेंडा बताया था। इस कारण सरकार ने दूरदर्शन पर उनकी सभी फिल्मों के प्रसारण पर रोक लगा दी थी। नरगिस दत्त ने भी यह कहते हुए उनका विरोध किया था कि वे जिद पर अड़े हुए हैं।
वृत्तचित्र फिल्म निर्माता केएल खंडपुर और एनएस थापा, जो सीबीएफसी का नेतृत्व कर रहे थे, सरकारी सहायक और सेंसर बन गए थे। ये लोग अनुभवी निर्देशकों को बताते थे कि फिल्मों का संपादन कैसे किया जाए। जिसने भी सरकारी फरमान का पालन नहीं किया या संजय गांधी की मांगें पूरी नहीं कीं, उन्हें प्रताड़ित किया गया। आलम यह था कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के लिए फिल्मी हस्तियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सामने परेड करने के लिए नई दिल्ली भेजा गया। उस समय की एक रोचक घटना है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने बंबई (अब मुंबई) में एक बैठक बुलाई, जिसमें राजकपूर और सत्यजीत रे से लेकर सिनेमा जगत के नीचे तक के सभी लोग वहां मौजूद थे। जब मंत्री महोदय को कच्चे स्टॉक, विशेषकर रंगीन निगेटिव की कमी के बारे में बताया गया तो उन्होंने जो कहा, वह हास्यास्पद है। शुक्ल ने कहा, ‘‘आप अपने ब्लैक एंड व्हाइट कैमरे बदल कर रंगीन कैमरे क्यों नहीं खरीद लेते?’’
फिल्म निर्माता गुलजार को युवा कांग्रेस आंदोलन पर एक फिल्म बनाने के लिए कहा गया। जब उन्होंने कहा कि इसके लिए संजय गांधी बात करें, तो सरकार ने उनकी फिल्म ‘आंधी’ पर 23वें सप्ताह में ही प्रतिबंध लगा दिया। ‘आंधी’ एक राजनीतिक कथा थी, जिसमें नायिका एक राजनेता थी। इसलिए कहा गया कि फिल्म इंदिरा के जीवन पर आधारित थी, जबकि गुलजार इससे इनकार करते हैं। 1977 में जनता पार्टी जब सत्ता में आई तो ‘आंधी’ को टीवी पर दिखाया गया। रमेश सिप्पी पर दबाव बनाकर ‘शोले’ का क्लाइमैक्स ही बदल दिया गया, क्योंकि सरकार को कीलों वाले बूट से गब्बर को कुचलते हुए ठाकुर की आंखों में विद्रोह दिखा था। इसलिए दबाव बनाकर अंतिम दृश्य बदलवा दिया गया और गब्बर को गिरफ्तार होते दिखाया गया। तर्क यह दिया गया कि इससे लोगों के मन में कानून के प्रति भरोसा बढ़ेगा कि यह न्याय देता है। 26 दिन में क्लाइमैक्स को दोबारा फिल्माया गया।
अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ में 51 से अधिक काट-छांट के बाद फिल्म का प्रिंट ही जला दिया गया। इस फिल्म में संजय गांधी की राजनीति और उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना मारुति फैक्टरी, इंदिरा की गरीबी हटाओ, नसबंदी, अनाज खाने वाले चूहों पर व्यंग्य किया गया था। हालांकि नाहटा 1962 से ही कांग्रेस में थे और बाड़मेर से 1967 और 1971 में चुनाव भी जीत चुके थे। 1977 में वह जनता पार्टी में आ गए और पाली से सांसद बने।
जनता पार्टी की सरकार में संजय गांधी और वीसी शुक्ल पर फिल्म के प्रिंट मुंबई से मंगा कर गुड़गांव स्थित मारुति फैक्टरी में जलाने के आरोप लगे। इस मामले में संजय को एक माह की जेल भी हुई। बाद में 1978 में वह इसी फिल्म का नया संस्करण लेकर आए, लेकिन वह पिट गई। आईएस जौहर तात्कालिक विषयों पर फिल्में बनाते थे। 1978 में उनकी ‘नसबंदी’ ने सफलता हासिल की। फिल्म के राजनीतिक रूप से चुटीले गीत हास्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी ने लिखे थे।वीसी शुक्ल और मनोज कुमार अच्छे दोस्त थे।
अमृता प्रीतम द्वारा आपातकाल के समर्थन में लिखी गई पटकथा पर वृत्तचित्र बनाने का प्रस्ताव लेकर वे उनके पास गए। लेकिन मनोज कुमार ने फिल्म बनाने से मना कर दिया। शुक्ल ने इसका बदला लिया। उनकी फिल्म ‘शोर’ रिलीज होती, इसके कुछ दिन पहले ही शुक्ल ने इसे दूरदर्शन पर प्रसारित कर दिया। इसलिए थिएटर में लोग फिल्म देखने ही नहीं गए और यह फ्लॉप हो गई। उसी समय मनोज कुमार की दूसरी फिल्म ‘दस नंबरी’ रिलीज होने को थी, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मनोज कुमार इसके खिलाफ अदालत में गए और 1977 में मुकदमा जीत गए।
डेरियस कूपन ने अपनी किताब ‘द सिनेमा आफ सत्यजीत रे’ में लिखा है कि सत्यजीत रे ने 1980 में बांग्ला में ‘हीरक राजार देशे’ फिल्म बनाई, जिसमें परोक्ष रूप से आपातकाल की ओर संकेत किया था। इसी तरह, 1988 में मलयालम फिल्म निर्माता शाजी करुण की पुरस्कार विजेता ‘पिरवी’ ने दर्शकों को कुख्यात पी. राजन मामले की याद दिला दी, जिसमें एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी। इस मामले में वृत्तचित्र निर्माता आनंद पटवर्धन अपवाद रहे। उन्होंने आपातकाल पर कम बजट की दो अच्छी फिल्में बनाईं- वेव्स आफ रेवोल्यूशन (1975) और प्रिजनर्स आफ कॉन्शियस (1978)।
दूसरी ओर, सरकार समर्थक गुट था, जिसमें जीपी सिप्पी, दिलीप कुमार, सुनील दत्त आदि शामिल थे। सुनील दत्त ने तो विदेश से ही आपातकाल का समर्थन किया था। दिलीप कुमार भी खुलकर सरकार का समर्थन कर रहे थे। वे तो बाकायदा यूथ कांग्रेस के मंचों से जनता के बीच सरकार का पक्ष रख रहे थे। दिल्ली यूथ कांग्रेस ने 1976 में परिवार नियोजन पर एक कार्यक्रम किया था, जिसे ‘गीतों भरी शाम’ के नाम से दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था। इसमें दिलीप कुमार देश की बढ़ती आबादी और इसके परिणामों पर प्रकाश डाल रहे थे। इसके अलावा, सुखदेव, अडूर गोपाल कृष्णन, चिदानंद दासगुप्ता जैसे वृत्तचित्र निर्माताओं और फिल्म डिवीजन के कर्मचारियों को इंदिरा गांधी के 20 सूत्री कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए ‘फिल्म 20’ नाम से लघु फिल्मों की शृंखला बनाने के लिए भी तैयार किया गया था।
कुल मिलाकर दर्जनों अन्य उद्योगों की तरह, भारतीय फिल्म जगत भी ज्यादतियों का शिकार था, फिर भी लोकतंत्र के उस काले अध्याय पर चंद फिल्में ही बनीं। उनमें भी अधिकांश 2014 के बाद बनी हैं। इनमें ‘इंदु सरकार’, ‘बादशाहो’, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और बहुप्रतीक्षित ‘इमर्जेंसी’ प्रमुख हैं। आपातकाल पर सलमान रुश्दी से लेकर किरण नागरकर जैसे लेखकों ने कई किताबें लिखी हैं, लेकिन फिल्म उद्योग जो खुद को समाज का आईना कहता है, उस कभी न भूलने वाले 21 महीने के लंबे अंधियारे दौर से बड़ी सफाई से ऐसे कन्नी काट गया जैसे कि आपातकाल कभी लगा ही नहीं था। समानांतर सिनेमा के राजनीतिक रूप से जागरूक फिल्म निर्माताओं ने भी इससे दूरी बनाए रखी।
दामन पर दाग गहरे
तड़पा कर मारा था….
1970 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित बहुचर्चित दक्षिण भारतीय अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी संस्कार फिल्म से विश्वप्रसिद्ध हुईं। वे एक बेहतरीन कलाकार, कन्नड़, तमिल और तेलुगु सिनेमा की लोकप्रिय अभिनेत्री और निर्माता थीं। वे अपनी कला के चलते रुपहले पर्दे का चमकता सितारा थीं तो समाजसेविका के रूप में देश की समस्याओं के लिए सड़कों पर भी उतरती थीं। आपातकाल विरुद्ध वे भी सड़कों पर उतरीं। इसका परिणाम यह हुआ कि 2 मई, 1976 को स्नेहलता को (मैंनटेनेंस आफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) मीसा के अंतर्गत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। जेल में उन्हें ऐसी कोठरी में रखा गया जहां मुश्किल से एक व्यक्ति रह पाता है।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक इमरजेंसी रिटोल्ड में लिखा है, ‘‘जेल में स्नेहलता की कोठरी में पेशाबघर की जगह पर कोने में एक छेद बना हुआ था और दूसरे छोर पर लोहे का एक जालीदार दरवाजा लगा था। उन्हें जेल के फर्श पर सोना पड़ता था। स्नेहलता को 8 माह तक जेल में प्रताड़नाएं दी गईं।’’ वह अस्थमा रोगी थीं, जेल में उन्हें ठीक उपचार नहीं दिया गया, उलटे कठोर यातनाएं बढ़ा दी गईं। ये बातें उन्होंने ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बताई थीं। जब उनकी हालत गंभीर हो गई तब आठ महीने बाद, 15 जनवरी 1977 को उन्हें पेरोल पर रिहा कर दिया गया। रिहाई के 5 दिन बाद ही उन्हें हृदयाघात हुआ और उनकी मौत हो गई।
स्नेहलता पर यह आरोप लगाया गया था कि वे डायनामाइट से दिल्ली के संसद भवन और अन्य मुख्य इमारतों को उड़ाना चाहती थीं जो बाद में साबित नहीं हो सका। आपातकाल के दौरान झूठे केस में स्नेहलता को गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया गया। वे ही नहीं, ऐसे हजारों लोग थे जो आपातकाल में बर्बरता का शिकार हुए।
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