‘‘अगर भारत को आजाद होना है तो एक ही रास्ता है, शिवाजी की तरह लड़ो। भारत की स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सैन्य मुहिम छेड़ने वाले आजाद हिंद फौज के नायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का कथन यह बतलाता है कि किस तरह शिवाजी ने सैनिकों और सैन्य नेतृत्व को पीढ़ी दर पीढ़ी को प्रेरित किया है। वर्तमान परिदृश्य में भी शिवाजी महाराज की उल्लेखनीय सैन्य रणनीति, व्यूहकौशल प्रासंगिक है। जून 2024 के इस महीने में, हिंदवी साम्राज्य के संस्थापक, कुशल प्रशासक और महान सैन्य रणनीतिकार व योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक (जून 1674) के 350 साल पूरे हो रहे हैं।
16 साल की छोटी उम्र में, शिवाजी ने बीजापुर में तोरना किले पर कब्जा करने के साथ हिंदवी साम्राज्य की स्थापना के लिए एक सुनियोजित सैन्य अभियान शुरू किया। उन्होंने सिंहगढ़, राजगढ़, चाकन और पुरंदर के किलों को भी जल्द ही जीत लिया। भारत की सुरक्षा चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए हमें भी सैनिक स्कूलों, एनसीसी और सैन्य अकादमियों में हमारे युवा लड़के और लड़कियों में इस तरह के सैन्य कौशल का निर्माण करना होगा। एक महान सामरिक योजनाकार के रूप में शिवाजी ने अपने राज्य के हर कोने में अनेक किलों का भी निर्माण किया। निरंतर युद्धों के उस दौर में पहाड़ी किले रक्षात्मक व्यूहरचना के लिए बहुत महत्वपूर्ण थे जिन्होंने शिवाजी के कितने ही सफल सैन्य अभियानों के लिए धुरी के रूप में काम किया। किलों के निर्माण की यह रणनीति सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘प्रतिरक्षा आधारभूत ढांचे’ के निर्माण के समान है। आज, शांतिकालीन प्रशिक्षण और प्रशासन के लिए सैन्य छावनियों और सैन्य आधारों का निर्माण और अच्छा रखरखाव भी ऐसा ही अति महत्वपूर्ण कार्य है।
कोई भी तकनीक प्रशिक्षित और समर्पित सैनिक का स्थान नहीं ले सकती। शिवाजी ने इस ओर ध्यान दिया और परिश्रम किया। शिवाजी की नियमित सेना अपेक्षाकृत छोटी, 30 से 40 हजार सैनिकों की थी, जिसमें अधिकांश पैदल मावले सैनिक थे। साथ चलने वाली प्रशिक्षित, गतिशील घुड़सवार सेना इस सैनिक ताकत को घातक और प्रभावी बनाती थी। शिवाजी के तोपखाने की सीमित क्षमता थी, लेकिन गतिमान युद्ध और बिजली की तरह प्रहार करने की क्षमता पर ध्यान केंद्रित करने से इस कमी की भरपाई हुई। शिवाजी अपनी सेना की न्यूनताओं से अवगत थे और इसलिए मुगल सेना के कमजोर पक्षों पर त्वरित छापामार हमले किया करते थे। भारत की अपनी सीमाओं की रक्षा तथा आंतरिक सुरक्षा के लिए इस रणनीति का अध्ययन व प्रशिक्षण आज भी प्रासंगिक है।
सामरिक स्तर पर शिवाजी से सीखने लायक कई सबक हैं, लेकिन , मेरी दृष्टि में, सबसे महत्वपूर्ण है पहाड़ियों, जंगलों, नदी के क्षेत्रों और बीहड़ों पर शिवाजी की सैन्य महारत विशाल मुगल सेनाओं से सीधी मैदानी लड़ाई घातक थी। शिवाजी ने इसे समझा, वे जिस तरह से दुश्मन को ललचा कर या मजबूर करके, छापामार युद्ध के लिए उपयुक्त दुर्गम इलाकों में ले आते थे, वह सेना की उपइकाई और इकाई स्तर के युद्ध प्रशिक्षण और रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है। नेतृत्व की असली परीक्षा तब होती है, जब आप दुश्मन को विवश करके, अपनी योजनाओं के अनुसार उससे लड़ते हैं। इलाके की भौगोलिक रचना आपके दिमाग में नक्शे की तरह छपी रहती है और आप अपने कदमों तथा दिमाग से उसे नापते हैं, जीतते हैं।
छापामार या ‘गुरिल्ला युद्ध’ के कुशलतम संचालकों के रूप में शिवाजी महाराज के कारनामे उन्हें सैन्य युद्ध के इतिहास में अमर बनाते हैं। इस तरह के युद्ध की प्रभावी योग्यता, छोटे सैन्य कार्यदलों का प्रभावी संचालन है, जो दुश्मन को बड़ा नुकसान पहुंचाने में सक्षम हो, विशेष रूप से रसद आपूर्ति, सामरिक महत्त्व के संसाधनों और संचार सुविधाओं को नष्ट करने के लिए। आज जब हम आतंकवाद के अभिशाप से लड़ रहे हैं, तो ऐसी कुशलता बहुत आवश्यक हो जाती है। शिवाजी ने अफजल खान का वध (10 नवंबर 1659) छिपाए हुए बघनखे (बाघ के पंजे जैसा औजार) से किया था। छापामार युद्ध में सफलता की कुंजी है, दुश्मन के दिमाग में घुसना, उसके बुरे इरादों को समझते हुए उससे एक कदम आगे रहना। युद्ध में मानसिक बढ़त का बहुत महत्व है। शिवाजी ने मुगल सेना और उसके सिपहसालारों को आतंकित कर रखा था।
अगर हम एक ऐसे सैन्य नेतृत्व को देखना चाहते हैं, जिसने शत्रु को चौंकाने वाली मूल सैनिक व्यूह रचना से लेकर वृहद् रणनीतिक छलावे तक का सफल उपयोग किया, तो शिवाजी के अलावा कोई भी अपने जीवनकाल में ऐसा नहीं कर सका है। बीजापुर सल्तनत में व्याप्त भ्रम का लाभ उठाते हुए 1646 में तोरना किले पर कब्जा कर लेना, सामरिक आश्चर्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। रणनीतिक छलावे का उद्देश्य अपनी क्षमताओं और इरादों को छिपाते हुए, अपनी गतिविधियों से शत्रु सेना को गुमराह करना है, ताकि उसके निर्णयकर्ता भ्रमित हो जाएं, और हमारे जाल में आ फंसें।
शिवाजी ने 1657 से ही, अहमदनगर और जुन्नार के उदाहरणों से मुगलों से अपनी बेहतरीन युद्ध क्षमता का लोहा मनवा लिया था। इसी कारण औरंगजेब (1660 में) शाइस्ता खान के नेतृत्व में 1,50,000 की विशाल सेना भेजने के लिए मजबूर हुआ। 5 अप्रैल 1663 की रात, शिवाजी के नेतृत्व में हमले में, शाइस्ता खान घायल हुआ और इस विशाल फौज की हार हुई।
दूरदर्शी सैन्य नेता शिवाजी ने 1657 के बाद अपनी नौसेना का निर्माण प्रारम्भ किया। शिवाजी ने तटीय सुरक्षा के लिए कोंकण समुद्र तट पर स्थित किलों पर कब्जा किया। सिंधुदुर्ग एक ऐसा ही समुद्री किला है। अपनी अपेक्षाकृत छोटी पैदल सेना की सीमित क्षमता को समझकर शिवाजी ने नौसैनिक शक्ति को बढ़ाया और नौसेना में स्थानीय मछुआरों के अलावा पुर्तगाली नाविकों को भी नियुक्त किया। 200 से अधिक युद्धपोतों के बेड़े के साथ, शिवाजी की नौसेना ने शत्रु पर धाक जमाई। आज हमारी सुरक्षा आवश्यकताओं के मद्देनजर नौसैनिक शक्ति का महत्त्व बढ़ रहा है। भविष्य के युद्धों के लिए भारत को अपनी नौसैनिक क्षमताओं को लगातार बढ़ाना होगा।
एक ऐसे युग में जब सैन्य संरचनाएं औपचारिक नहीं थीं, भाड़े के सैनिकों का व्यापक उपयोग होता था, तब शिवाजी ने नियमित, व्यवस्थित, समर्पित थलसेना, नौसेना और दुर्ग आधारित व्यूहरचना बनाने में महान कौशल का प्रदर्शन किया। छोटे सैन्य दलों का नेतृत्व हवलदारों द्वारा किया जाता था। ये सैन्य दस्ते, पैदल सैनिकों और घुड़सवार सैनिकों के मिश्रित दस्ते होते थे। भारत में आज भी ऐसी कई सैन्य संरचनाओं का पालन किया जाता है। शिवाजी की छोटी लेकिन असरदार सेना यह साबित करती है कि भारत को युद्ध लड़ने में गुणवत्ता की आवश्यकता है, सैनिक और आयुध दोनों स्तरों पर।
शिवाजी एक गंभीर मान्य सैन्य नेता थे ही, वह महान प्रशासक भी सिद्ध हुए। उन्होंने भारत की पारंपरिक सहिष्णुता और न्याय भावना आधारित प्रशासन की स्थापना करके अपनी प्रजा को गुणवत्तापूर्ण शासन प्रदान किया। उन्होंने फारसी और अरबी के बजाय संस्कृत शब्द युक्त मराठी को कामकाजी भाषा के रूप में बढ़ावा दिया। शिवाजी की शाही मुहर संस्कृत में थी। उन्होंने 1677 में प्रशासनिक उपयोग हेतु, संस्कृत में ‘राजव्यवहार कोश’ को लिखने के लिए एक कार्यदल नियुक्त किया। अगर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सिद्धांत को संस्कृत में दर्ज किया जाता है तो यह शिवाजी महाराज की महान विरासत के प्रति उपयुक्त सम्मान होगा।
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