18वीं लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। पार्टी को सबसे बड़ा धक्का उत्तर प्रदेश में लगा, जहां 80 सीप्रमोद जोशीटों में से उसे केवल 33 पर विजय मिली है। समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीत कर उसे दूसरे स्थान पर धकेल दिया है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीत का अंतर घट कर लगभग डेढ़ लाख हो गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने इस बार अयोध्या की सीट गंवा दी। भाजपा को पूरे देश में लगभग 60 सीटों का नुकसान हुआ है, जिसमें 46 सीटें उत्तर भारत की हैं।
2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा की विजय में उत्तर प्रदेश की भूमिका सबसे बड़ी थी, जहां पार्टी को क्रमश: 71 और 62 सीटों पर विजय मिली थी। पिछली बार के मुकाबले पार्टी को इस बार लगभग आधी सीटें आईं। प्रदेश में 12 केंद्रीय मंत्रियों में से 7 को पराजय का मुंह देखना पड़ा है। स्मृति ईरानी अमेठी में एक अनजान प्रत्याशी के हाथों पराजित हो गईं। इसके अलावा, जालौन से भानु सिंह वर्मा, चंदौली से महेंद्र नाथ पांडेय, मुजफ्फरनगर से संजीव बालियान, मोहनलालगंज से कौशल किशोर, लखीमपुर खीरी अजय मिश्र टेनी और फतेहपुर से साध्वी निरंजन ज्योति को हार का सामना करना पड़ा। उत्तर भारत के राज्यों में भाजपा का राजनीतिक आधार बेहतर है। उत्तर के 10 राज्यों और दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और चंडीगढ़ के केंद्र शासित क्षेत्रों को मिलाकर 245 लोकसभा सीटें हैं। 2019 में भाजपा ने इनमें से 163 और उसके सहयोगी दलों ने 29 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
80 प्रतिशत दल-बदलू हारे
8वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने दल-बदलू नेताओं को सबक सिखाया है। इनमें सर्वाधिक भाजपा के हैं। भाजपा ने दूसरे दलों से आए 25 उम्मीदवारों को टिकट दिया था, लेकिन इनमें से 80 प्रतिशत यानी 20 उम्मीदवार हार गए। यही हाल दूसरी पार्टियों के दल-बदलू नेताओं का हुआ। कांग्रेस ने दूसरे दलों से आए 7 नेताओं को टिकट दिया, पर एक ही जीता। राजद के 3 में से 2 और बीजद के एक प्रत्याशी ने जीत दर्ज की है।
भय की राजनीति
इंडी गठबंधन इस बार जातिगत विभेद, आरक्षण खत्म करने को लेकर भ्रम फैलाने में सफल रही, जिसका काट भाजपा नहीं ढूंढ सकी। ज्यादा से ज्यादा सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों के सामने गठबंधन ने एक ही प्रत्याशी उतारा और टिकट बंटवारे में भी सावधानी बरती। हालांकि राज्य में बसपा का अच्छा जनाधार है, पर उसके समर्थकों ने भी इंडी गठबंधन के प्रत्याशियों को वोट दिया। इंडी गठबंधन का सबसे बड़ा कारण वह झूठा प्रचार था, जिसमें कहा गया कि भाजपा ‘400 पार’ सीटें ले आई तो संविधान को खत्म कर देगी और इसी के साथ आरक्षण भी खत्म हो जाएगा।
इस प्रचार से एक बड़े तबके के भीतर भय पैदा हुआ और इसने उन्हें इंडी गठबंधन की शरण में जाने को प्रेरित किया। इसी किस्म के भय के सहारे ओं को ये पार्टियां अपने पाले में लाने में कामयाब रहीं। इंडी गठबंधन की सोशल इंजीनियरिंग भी सफल हुई। सपा नेता अखिलेश यादव ने ‘पीडीए’ यानी पिमुस्लिम मतदाताछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का फार्मूला दिया और इसी फार्मूले को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशियों का चुनाव किया। पार्टी ने 17 सीटों पर दलित, 29 पर ओबीसी, 4 पर मुस्लिम और बाकी सीटों पर सवर्ण उम्मीदवार उतारे।
इसी तरह, बिहार में राजद के तेजस्वी यादव ने ‘बाप’ (बहुजन अगड़ा, आधी आबादी और गरीब) फार्मूला दिया। मूलत: दोनों राज्यों का एक ही फार्मूला है, ‘एमवाई’ यानी मुस्लिम और यादव। बिहार में 2015 विधानसभा चुनाव के बाद ही महागठबंधन की परिकल्पना बाहर निकली थी, जो आज इंडी गठबंधन के रूप में सामने है। नीतीश कुमार इसके प्रेरक थे, लेकिन उनके राजग में वापस आने के बाद इंडी गठबंधन के तेवरों में कमी आई है। 2019 के चुनाव में एनडीए ने बिहार में 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी, पर इस बार उस सफलता को दोहराने में वह सफल नहीं हो सका।
असंतोष का लाभ
अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पेपर लीक को मुद्दा बनाया था। राज्य में बार-बार हो रहे पेपर लीक और बेरोजगारी के कारण युवा मतदाता नाराज हैं। सेना की अग्निवीर योजना को भी उन्होंने इस तरीके से पेश किया, जिससे नौजवानों की नाराजगी बढ़ी। केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, उत्तर भारत के राज्यों में भी इंडी गठबंधन को इसका फायदा मिला। विपक्ष के महंगाई, बेरोजगारी, अग्निवीर और पेपर लीक जैसे मुद्दों पर भाजपा सही तरीके से जवाब नहीं दे सकी। हालांकि सेना में भर्ती का मामला उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भी है, लेकिन वहां ये मुद्दे और सोशल इंजीनियरी के दूसरे कारक कारगर नहीं रहे और भाजपा सभी सीटें जीतने में सफल रही।
इस लिहाज से दिल्ली की सभी सातों सीटों पर विजय के कारणों को भी समझने की जरूरत है। दिल्ली में एक को छोड़कर सभी प्रत्याशी नए थे, लेकिन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन बेमेल था। कांग्रेस के संगठन के भीतर भी आआपा के साथ गठबंधन को लेकर असहमतियां थीं। चुनाव के ठीक पहले अरविंदर सिंह लवली का पार्टी छोड़कर जाना भी कांग्रेस के लिए घातक सिद्ध हुआ। अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के कारण आआपा संगठन में भी गिरावट आई है।
मतों का बंटवारा
उत्तर प्रदेश में सपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और 2019 में बसपा के साथ गठबंधन किया था, पर तब इन पार्टियों को अपने मतदाताओं के वोट ट्रांसफर कराने में सफलता नहीं मिली थी। पिछले अनुभवों से सीख कर इंडी गठबंधन ने इस बार वोट ट्रांसफर कराने में भी सफलता प्राप्त की। कुल मिलाकर यह संगठनात्मक सफलता भी है, जिसके लिए इसके पहले तक भाजपा की तारीफ की जाती रही है। इस बात की गहराई से पड़ताल करने की जरूरत होगी कि भाजपा ऐसा क्यों नहीं कर पाई?
इसी तरह, हरियाणा में जाटों-किसानों की नाराजगी, खिलाड़ियों का मुद्दा, बेरोजगारी और जातीय समीकरण भाजपा पर भारी पड़ा। 2019 में भाजपा ने राज्य की सभी 10 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार फरीदाबाद, गुड़गांव, करनाल, कुरुक्षेत्र और भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट ही जीत सकी, जबकि सोनीपत, रोहतक, अंबाला, हिसार और सिरसा सीट कांग्रेस के खाते में चली गई। पिछली बार भाजपा को 90 में से 79 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी, लेकिन इस बार यह बढ़त 44 सीटों तक सीमित रही, जबकि कांग्रेस ने 46 पर बढ़त बनाई।
कांग्रेस ने सिरसा, रोहतक संसदीय क्षेत्र की सभी 18 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की है। चौटाला परिवार की दोनों पार्टियों, इनेलो और जजपा का प्रदर्शन खराब रहा और इनके प्रत्याशी जमानत भी नहीं बचा सके। इस बार भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग भी विफल रही। दूसरे, हरियाणा में 22 प्रतिशत जाट मतदाता हैं, जो कभी कांग्रेस तो कभी इनेलो व जजपा की ओर झुकते रहे हैं। इस बार जाट वोट कांग्रेस को मिले और उसका वोट प्रतिशत 15 प्रतिशत बढ़ गया। पिछली बार भाजपा को 58 प्रतिशत वोट मिले थे और इस बार 46 प्रतिशत ही मिले।
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