पति-पत्नी में से अगर किसी के दिमाग में संदेह का कीड़ा घुस जाए तो क्या होता है? कुछ मामलों में रिश्ते टूट जाते हैं, कुछ में भावनाओं का ज्वार हत्या-आत्महत्या जैसे अंजाम तक ले जाता है तो कुछ में तथ्य और सत्य के आलोक में इसे दूर करने के भी उदाहरण हो सकते हैं। अब फलक को विस्तार दीजिए। क्या होगा, यदि करोड़ लोगों के दिमाग में संदेह का कीड़ा पनप जाए या पनपा दिया जाए! क्या कोई गारंटी दे सकता है कि बाद में यदि कोई संदेह तथ्य की कसौटी पर गलत सिद्ध भी हो जाए, तो सबके दिमाग में घर बना कुलबुलाता हुआ वह कीड़ा मर जाएगा?
हमारी संवैधानिक संस्थाओं के प्रति लोगों के मन में संदेह का कीड़ा घर बना ले, इसकी कोशिशें लगातार की जा रही हैं और ये अलग-अलग स्वरूपों में सामने आती रही हैं। देश अभी चुनाव के दौर में है सो इस विषय को चुनाव आयोग तक ही सीमित रखते हैं। चुनाव आयोग के कामकाज में तरह-तरह से खोट निकालकर उसे कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें की गईं और की जा रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई कि चुनाव आयोग को निर्देश दिया जाए कि वह हर बूथ पर वोटिंग के आंकड़े को सार्वजनिक करे। न्यायालय ने यह कहते हुए इसे खारिज कर दिया कि चुनाव निष्पक्ष हों, यह सभी के सरोकार का विषय है, लेकिन चुनाव प्रक्रिया के वर्तमान स्तर में हस्तक्षेप कर इसे बाधित करने का कोई मतलब नहीं।
यह याचिका गैरसरकारी संगठन एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) ने दायर की थी। उसकी मांग थी कि फॉर्म 17-सी में मतदान का जो आंकड़ा वहां से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को उपलब्ध कराया जाता है, उसे सार्वजनिक किया जाए यानी आयोग उसे अपनी वेबसाइट पर डाले। एडीआर ने कथित चुनावी पारदर्शिता के लिए जो-कुछ भी किया हो, कम से कम उसकी चिंताएं उन उम्मीदवारों से ज्यादा तो नहीं हो सकतीं जिनके लिए चुनाव लड़ना उनकी किस्मत तय करने वाला कदम होता है। बूथवार आंकड़े हर उम्मीदवार को उपलब्ध करा दिए जाते हैं और उन पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं कि उन आंकड़ों को सौ तालों में बंद रखें। वे चाहें तो उन्हें सार्वजनिक कर सकते हैं। लेकिन चुनाव आयोग से यह अपेक्षा क्यों की जाए कि वह सबको इकट्ठा करे और फिर वेबसाइट पर डाले! एक और बात, चुनाव आयोग लोगों को आश्वस्त करने के लिए स्वयं ही हर दो घंटे पर एप के माध्यम से मतदान प्रतिशत के बारे में जानकारी देता रहता है जबकि वह ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं है।
सुधार वह यात्रा है जो किसी प्रक्रिया को धीरे-धीरे परिकल्पित आदर्श की ओर ले जाती है, और यह बात चुनाव आयोग के लिए भी उतनी ही लागू होती है, जितनी किसी और के लिए। लेकिन इसकी बेहतरी की आड़ में इसकी जड़ें खोदने वालों से सावधान तो रहना ही होगा
चुनाव से ही जुड़ा एक और विषय है-वीवीपैट से मिलान का। इस मामले में भी कई कोनों से आशंका जताई गई कि ईवीएम के जरिये खेल किया जा रहा है और जब तक वीवीपैट से एक-एक वोट को नहीं मिलाया जाता, दूध का दूध और पानी का पानी होने से रहा। विपक्षी दलों ने खास तौर पर इस तरह की बातें कीं। वीवीपैट से मिलान को लेकर हो-हल्ला मचाने वाले दलों को अगर अपनी ‘कहानी’ के हकीकत होने का इतना ही यकीन था तो सामान्य समझ की बात तो यही है कि वे अपने कार्यकर्ताओं, मतदाताओं को कहते कि वोट डालने के बाद बगल की मशीन की स्क्रीन पर उभरने वाली पर्ची को देख लें कि उनका वोट सही जगह गया या नहीं। अगर इस तरह की गड़बड़ी के बारे में बड़ी संख्या में लोग सामने आकर शिकायत करते तो क्या उनकी बातें अनसुनी रह जातीं?
ऐसा लगता है कि इस तरह संवैधानिक संस्थाओं की अखंडता पर सवाल उठाने वालों के पक्ष में परिणाम आएं या नहीं, उनका उद्देश्य आंशिक रूप से जरूर पूरा होगा। और वह उद्देश्य है लोगों के मन में संदेह का कीड़ा रोप देना। झूठ और आधे-अधूरे तथ्य से पोषण पाने वाले ये कीड़े लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं और इनकी काट बस एक ही चीज से हो सकती है- सत्य और तथ्य। ऐसे कीड़ों के एक से एक हमलों को देश की व्यापक समग्र चेतना ने निष्फल किया है। सुधार वह यात्रा है जो किसी प्रक्रिया को धीरे-धीरे परिकल्पित आदर्श की ओर ले जाती है, और यह बात चुनाव आयोग के लिए भी उतनी ही लागू होती है, जितनी किसी और के लिए। लेकिन इसकी बेहतरी की आड़ में इसकी जड़ें खोदने वालों से सावधान तो रहना ही होगा।@hiteshshankar
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