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ज्येष्ठ माह, जलदान की सनातन परम्परा और लोककवि घाघ-भड्डरी की कहावतें

Published by
पूनम नेगी

लोककवि घाघ और भड्डरी की मध्ययुग में मौसम, वर्षा और कृषि को लेकर की गयी भविष्यवाणियां आज भी उतनी ही सटीक हैं जितनी तब थीं, जब पर्यावरण संकट जैसी कोई परिकल्पना भी नहीं थी।


सूर्य किरणों की तपन की ज्येष्ठता (प्रचंडता) के कारण हिन्दू पंचांग में वर्ष के तीसरे महीने को ‘ज्येष्ठ’ (आम बोलचाल की भाषा में जेठ) कहा जाता है। सर्वाधिक बड़े दिन वाला यह महीना गर्मी के हिसाब से सबसे ज्यादा कष्टकारी होता है। इस महीने में ‘नौतपा’ भी लगता है। ‘नौतपा’ यानी सर्वाधिक तपने वाले नौ दिन। ज्योतिषीय गणना के अनुसार इस वर्ष 25 मई शुरू हो चुके इस ‘नौतपा’ की अवधि दो जून तक रहेगी। इस गणना के अनुसार माना जाता है कि जेठ महीने में सूर्य जब रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है, तब गर्मी प्रचंड पड़ती है। इन दिनों में अधिकतम तापमान 45 से 48 डिग्री तक पहुंच जाता है। आधुनिक मौसम वैज्ञानिक इसे ‘हीट वेव’ या लू वाले दिन भी कहते हैं।

घाघ, भड्डरी और मौसम विज्ञान

भारत की पुरातन कृषि संस्कृति के सदियों पुराने अनुभवों से निकले निष्कर्ष आज के मशीनी युग में भी सही साबित हो रहे हैं। भारतीय लोकजीवन के मौसम विज्ञानी महाकवि घाघ और भड्डरी द्वारा मध्ययुग में मौसम, वर्षा और कृषि को लेकर की गयी भविष्यवाणियां इक्कीसवीं सदी में भी उतनी ही सटीक हैं जो तब थीं, जब पर्यावरण संकट जैसी कोई परिकल्पना भी नहीं थी। कहावतों व लोकोक्तियों में की गयी इन भविष्यवाणियों में ‘नौतपा’ के बारे में लोककवि घाघ कहते हैं-

जेठ मास जो तपे निरासा, तब जानों बरसा की आसा
तपै नवतपा नव दिन जोय, तौ पुन बरखा पूरन होय

अर्थात यदि ज्येष्ठ माह में नौतपा खूब तपा तो उस साल बारिश जमकर होगी। वहीं यदि नौतपा के दौरान बारिश हो गयी तो इसे ‘नौतपा’ का गलना कहा जाता है। ऐसा होने पर मानसून के दौरान अच्छी बारिश की संभावना नहीं होती। इसी तरह महाकवि घाघ के समकालीन लोककवि भड्डरी भी कहते हैं-

सर्व तपे जो रोहिनी, सर्व तपे जो मूर
परिवा तपे जो जेठ की उपजे सातों तूर

अर्थात जब जेठ के रोहिणी नक्षत्र की परेवा में गर्मी खूब गर्मी पड़ती है तो उस वर्ष जमकर वर्षा होती है। यदि हम देश के मानसून के बारे में सोचें तो यह अनुमान सही प्रतीत होते हैं।

ज्येष्ठ माह में भंडारों की पावन परम्परा

ज्येष्ठ माह में सूर्य के प्रचंड ताप के कारण कुएं, नदी, तालाब व पोखर सूख जाने के कारण जल संकट की समस्या गहरा जाती है। मनुष्य तो अपनी प्यास किसी तरह बुझा लेता है, लेकिन निरीह पशु-पक्षियों के लिए यह समय जानलेवा मुसीबत से कम नहीं होता। भूख और प्यास से पशु-पक्षियों के मरने की सर्वाधिक घटनाएं इसी गर्मी के मौसम में होती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि भोजन शृंखला के चलते एक जीव का जीवन दूसरे पर और वनस्पती व जीवों का जीवन परस्पर अस्तित्व पर टिका है। अप्राकृतिक रूप से कोई एक जीव मरता है तो उससे पूरी शृंखला प्रभावित होती है। हमारे वैदिक मनीषी मानवी चेतना के मर्मज्ञ होने के साथ प्रकृति संरक्षण के ज्ञान विज्ञान के भी गहन जानकार थे। इसीलिए उन्होंने सदियों पूर्व ही ऋतु चक्र परिवर्तन के अनुरूप समाज में ऐसी परम्पराएं विकसित कर दी थीं ताकि धार्मिक क्रियाकृत्यों के अनुपालन के साथ जन सामान्य विषम व प्रतिकूल परिस्तिथियों में बच सके।

वैदिक संस्कृति की प्राचीन परम्परा

‘ज्येष्ठ’ माह में जल संरक्षण के साथ अन्न व जलदान महान पूर्वजों द्वारा विकसित ऐसी ही एक श्रेष्ठ परम्परा है, जिसका अनुपालन आज भी हमारी ग्राम्य संस्कृति में देखा जा सकता है। यह हमारी वैदिक महान संस्कृति की अत्यंत प्राचीन परम्परा है। वैशाख व ज्येष्ठ मास में जब गांव में नया अनाज आता है तो पूरे माह स्थान-स्थान पर देव पूजा के साथ भंडारे आयोजित किये जाते हैं। इन भंडारों से अनेक लाभ होते हैं। पहला तो समष्टि के प्रति लोकमंगल की भावना विकसित होती है। दूसरे इन आयोजनों में अमीर-गरीब सभी के लिए बिना किसी भेदभाव के प्रसाद पाने की व्यवस्था होने से सामाजिक समरसता बढ़ती है तथा तीसरे इनसे बन्दर, कुत्ते, कौए, चिड़िया व चीटीं आदि अनेक मनुष्येत्तर जीवों को भी इस तपती शुष्क ऋतु में सहजता से पेट भरने लायक आहार उपलब्ध हो जाता है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ज्येष्ठ माह में लगने वाले बड़े मंगल के भंडारे कुछ वर्षों में आसपास के कई जिलों में भी खासे लोकप्रिय होते जा रहे हैं। भारत के लोग अतिथि सेवा में आनन्दित होते हैं। इस दौरान शर्बत के साथ प्रसाद में पूरी-सब्जी, हलवा, बूंदी, कढ़ी चावल, चने आदि अन्य व्यंजन परोस कर आनन्दित होते हैं।

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