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शरिया कानून को चुनौती

‘एक्स मुस्लिम्स आफ केरल’ की महासचिव सफिया ने सर्वोच्च न्यायालय में शरिया कानून के विरुद्ध याचिका दाखिल की है। उनका कहना है कि संपत्ति बंटवारे में मुस्लिम पर्सनल लॉ महिलाओं से पक्षपात करता है, इसलिए वे चाहती हैं कि उन पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम-1925 लागू हो

by टी. सतीशन
May 16, 2024, 04:00 pm IST
in भारत, विश्लेषण, केरल
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इस समय जब पूरा देश समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर चर्चा कर रहा है और नरेंद्र मोदी सरकार इसे लाने और लागू करने की प्रक्रिया में है। इसी बीच, केरल के अलप्पुझा जिले की एक महिला ने शरिया कानून के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की है। इसमें उसने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत नहीं आना चाहता, तो क्या उसे देश के पंथनिरपेक्ष कानून के अंतर्गत रखा जा सकता है? शीर्ष अदालत इस याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गई है।

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सफिया की याचिका पर चर्चा के बाद केंद्र सरकार और केरल सरकार को नोटिस जारी किया है। तीन सदस्यीय पीठ में मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्र भी हैं। पीठ ने अटॉर्नी जनरल आर. वेंटरमणी से इस मामले में एक कानून अधिकारी नियुक्त करने को कहा है। याचिका पर जुलाई के दूसरे सप्ताह में सुनवाई होगी।

याचिकाकर्ता पी.एम. सफिया ‘एक्स मुस्लिम्स आफ केरल’ की महासचिव हैं। सफिया तलाकशुदा और एक बच्ची की मां हैं। ‘एक्स मुस्लिम्स आफ केरल’ के राज्य कार्यकारी समिति के सदस्य और अधिवक्ता मोहम्मद उर्फ दिलीप इस्माइल ने बताया कि सफिया ने जो याचिका दाखिल की है, उसमें शरिया कानून की बजाए पंथनिरपेक्ष कानून का लाभ पाने की मांग की गई है। उसने अपनी याचिका में कहा है कि वह भारतीय उत्तराधिकार कानून को मानना चाहती है। मजहब में उसकी आस्था नहीं है, इसलिए वह उत्तराधिकार के मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ यानी शरिया कानून की बजाए भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 को मानना चाहती है, जो पांथिक स्वतंत्रता देता है। याची का तर्क है कि पांथिक स्वतंत्रता में किसी मजहब-मत में विश्वास न करने का अधिकार भी शामिल है।

बाध्यकारी शरिया कानून

सफिया ने याचिका में कहा है कि उसके पिता भी इस्लाम को नहीं मानते, लेकिन उन्होंने आधिकारिक तौर पर मजहब से नाता नहीं तोड़ा है। शरिया कानून के अनुसार, यदि कोई मुस्लिम व्यक्ति इस्लाम से विमुख होता है या मजहब पर भरोसा नहीं करता तो उसे समाज से बाहर कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रह जाता। इसलिए सफिया चाहती हैं कि उत्तराधिकार के मामले में उन पर मुस्लिम पर्सनल लॉ के बजाए भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम-1925 लागू हो।

हालांकि सफिया की याचिका मजहब से जुड़ी है, फिर भी उन्होंने उत्तराधिकार मामले में पंथनिरपेक्ष व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर दिया है। सफिया ने यह भी कहा है कि शरिया कानून के अनुसार, कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का एक तिहाई से अधिक हिस्सा वसीयत में नहीं दे सकता है। इस लिहाज से उसके पिता अपनी जायदाद में से एक तिहाई से अधिक हिस्सा उसे नहीं दे सकेंगे, शेष दो तिहाई संपत्ति उसके भाई को मिलेगी।

सफिया की ओर से अधिवक्ता प्रशांत पद्मनाभन मुकदमा लड़ रहे हैं। प्रशांत पद्मनाभन का कहना है कि पंथनिरपेक्षता भारत के संविधान में निहित है। यह पांथिक स्वतंत्रता का आश्वासन देता है और नागरिकों को मजहब-मत को मानने या नहीं मानने का अधिकार भी प्रदान करता है। उनका कहना है कि यदि कोई नागरिक अपना मजहब छोड़ देता है, तो उसके साथ पुश्तैनी संपत्ति और नागरिक अधिकारों को लेकर किसी भी तरह का पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूलभूत पहलू पर जोर दिया है, जो सभी मत-पंथों पर समान रूप से लागू होता है और सभी नागरिकों को किसी भी मत-पंथ में आस्था या विश्वास करने या न करने की अनुमति प्रदान करता है। यदि कोई व्यक्ति अपना मजहब छोड़ देता है, तो उससे उत्तराधिकार का अधिकार और अन्य महत्वपूर्ण नागरिक अधिकार नहीं छीने जा सकते।

याचिका में सफिया ने कहा है, ‘‘जो लोग मुस्लिम पर्सनल लॉ का पालन नहीं करना चाहते हैं, उन्हें वसीयत या वसीयत न होने की स्थिति में देश के पंथनिरपेक्ष कानूनों और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम-1925 पर चलने की अनुमति दी जानी चाहिए।’’ साथ ही, उसने कहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट-1937 की धारा 2 या 5 में सूचीबद्ध किसी भी मामले के लिए उसे मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा नियंत्रित न किया जाए। लेकिन कानून या नियमावली में इसका कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए न्यायिक व्याख्या या हस्तक्षेप से इस पर स्थिति स्पष्ट की जा सकती है।

संपत्ति बंटवारे में पक्षपात

सफिया का मामला व्यक्तिगत कानूनों को चुनौती देने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। अधिवक्ता दिलीप इस्माइल ने बताया कि सफिया ने ‘एक्स मुस्लिम्स’ के पदाधिकारी के तौर पर नहीं, बल्कि अपनी व्यक्तिगत हैसियत से अदालत में याचिका दाखिल की है। शरिया कानून के अनुसार, उसे अपने पिता से विरासत में मिली संपत्ति का 50 प्रतिशत हिस्सा अपने मानसिक रूप से बीमार भाई को देना होगा, क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं है। सफिया का तर्क है कि उसकी एक बेटी है। यदि सफिया की मृत्यु हो जाती है तो उसकी बेटी को पूरी संपत्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि इसमें उसके पिता के भाई भी अपना हक मांगेंगे। इस तरह, शरिया कानून महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जो संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। शरीयत कानून (और मुस्लिम कानून) भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम-1925 के विपरीत हैं।

दूसरा, मुद्दा वसीयत की प्रक्रिया से जुड़ा है। वसीयत किसी तहसीलदार या जिला कलेक्टर से संपर्क करने के बाद तैयार की जानी चाहिए। चूंकि सफिया ने इस्लाम छोड़ दिया है, इसलिए उसके लिए यह संभव नहीं है। यदि वह मौजूदा नागरिक नियमों के अनुसार वसीयत करती है, तो उसका समुदाय इसे मान्यता नहीं देगा। इस्माइल ने कहा कि कुछ लोगों ने केरल उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सुन्नत प्रथा खत्म करने की अपील की थी। इसमें उन्होंने कहा था कि यह अमानवीय प्रथा है और यह नपुंसकता का कारण भी बनती है। इस मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दो जजों की पीठ ने की, लेकिन यह कहते हुए कोई निर्णय नहीं दिया कि यह नितांत मजहबी मुद्दा है।

‘एक्स मुस्लिम्स’ उन सैकड़ों मुसलमानों का एक संगठन है, जो गैर-राजनीतिक हैं। वे शरीयत और अप्रचलित मुथलक जैसे इस्लामी कानूनों के विरुद्ध प्रचार करते रहते हैं। इस संगठन की स्थापना आधिकारिक तौर पर 2021 में की गई थी। संगठन के सदस्यों का कहना है कि इस्लाम छोड़ने के बाद उन्हें लगातार प्रताड़ित किया जा रहा है। उन्हें धमकी भरे फोन आते हैं और मुस्लिम समुदाय के लोग भद्दी-भद्दी गालियां देते हैं। यही नहीं, सोशल मीडिया पर भी उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। ‘एक्स मुस्लिम्स आफ केरल’ उन लोगों का संगठन है, जो मुस्लिम माता-पिता से पैदा हुए हैं, लेकिन जिन्होंने बाद में इस्लाम छोड़ दिया। अब वे न तो मजहब को मानते हैं और न इस्लाम के किसी रीति-रिवाज को। यह संगठन हर वर्ष 9 जनवरी को ‘एक्स मुस्लिम दिवस’ मनाता है।

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