कांग्रेस का डीएनए विदेशी था और विदेशी ही रह गया। इसके जनक ए.ओ. ह्यूम विदेशी; जॉर्ज यूल और विलियम वेडरबर्न सहित इसके छह अध्यक्ष विदेशी; देश के लोगों के बीच रहकर जिन हितों को साधने के लिए इसका जन्म हुआ, वह सोच विदेशी। वह सोच क्या थी? इस विचार को समझने के लिए हमें कांग्रेस की स्थापना से कुछ वर्ष पीछे जाना होगा।
दरअसल, अंग्रेज किसी तरह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लपटों से बच तो गए थे, लेकिन उन्हें यह अहसास हो चुका था कि भारत के लोगों के मन में विद्रोह की चिनगारी सुलग रही है और यदि यह भाव बना रहा तो उनके दिन गिनती के हैं। उन्हें भारतीयों में उमड़ती राष्ट्रीयता की भावना को दबाना था। साथ ही, भारत में मौजूद ब्रिटिश कर्मचारियों के मन से असंतोष को खत्म कर ब्रिटिश शासन के प्रति समर्पण भाव जगाना था, क्योंकि इन्हीं कर्मचारियों के जरिए अंग्रेज सरकार के प्रति आम जन की नाराजगी भी खत्म करवानी थी।
यानी भारत में देश को लूटने वाले विदेशी आक्रांताओं के शासन को स्थायी बनाना, यहां के लोगों में एकता नहीं होने देना, भारत में फिर किसी क्रांति को न होने देना, और यह सुनिश्चित करना कि कांग्रेस एक राजनीतिक मंच के तौर पर दिखती रहे। कांग्रेस के गठन के पीछे अंग्रेजों की मंशा यही थी।
यह तथ्य इतिहास में दर्ज है कि ए.ओ. ह्यूम को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 17 जून, 1857 को इटावा (उत्तर प्रदेश) से मुंह पर कालिख पोतकर, साड़ी पहनकर और ऊपर से बुर्का डालकर भागना पड़ा था। उस समय ह्यूम इटावा के मजिस्ट्रेट और कलेक्टर थे। ह्यूम 22 वर्ष तक कांग्रेस के महासचिव रहे। वे चाहते थे कि कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता कोई अंग्रेज अधिकारी ही करे, अंग्रेजों के चाटुकार कांग्रेस के भारतीय सदस्य भी यही चाहते थे। लेकिन इससे अंग्रेजों का असली उद्देश्य पूरा नहीं होता। अंग्रेजों को वैसे देसी मुखौटे चाहिए थे जिन्हें आगे रखते हुए वे अपने हित पूरा कर सकें। इसलिए व्योमकेश बनर्जी को कांग्रेस का पहला अध्यक्ष चुना गया, जो न सिर्फ कन्वर्टेड बंगाली ईसाई थे, बल्कि अंग्रेजों के चहेते भी थे।
व्योमकेश बनर्जी ने अधिवेशन की शुरुआत इस प्रकार की, “We pledge our unstinted and unswerving loyalty to Her Majesty the Queen Victoria, the Empress of India” अर्थात् ‘हम भारत की सम्राज्ञी, महारानी विक्टोरिया के प्रति अपनी दृढ़ और अटल निष्ठा की प्रतिज्ञा करते हैं।’ इसे अधिवेशन में मौजूद सदस्यों ने समवेत स्वर में दोहराया। इस जय-जयकार से आह्लादित ह्यूम ने कहा कि रानी विक्टोरिया की जयकार सिर्फ तीन बार नहीं, बल्कि तीन के तीन गुना और संभव हो तो उसके भी तीन गुना बार करें, और ऐसा हुआ भी। कांग्रेस के हर अधिवेशन के अंत में गला सूखने तक चिल्ला-चिल्लाकर ब्रिटिश महारानी की जय-जयकार की जाती थी। इस परंपरा का पालन बरसों तक किया गया।
ऐसा नहीं कि भारत ने कांग्रेस को देखा नहीं या इसे अपने मिजाज के अनुरूप ढालने की कोशिश नहीं की। बाल-लाल-पाल के दौर में कांग्रेस का राष्ट्रीय चरित्र भी उभरा। इसमें डॉ. हेडगेवार का प्रयास भी शामिल है। 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने पहली बार पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, लेकिन इसे पारित नहीं किया गया।
जब आपके गुणसूत्र नहीं मिलते हैं तो आपको ऐसे लोग अखरते हैं, खटकते हैं और फिर आप उन्हें हाशिये पर डाल देते हैं। कांग्रेस में राष्ट्रीय विचार के साथ ऐसा ही हुआ। एक आयातित विचार के साथ जन्म हुआ और अब दूसरा आयातित विचार उसके कंधों पर सवार है। इसीलिए वह वामपंथी विचारधारा की तर्ज पर वर्ग विहीन समाज की बात करती है, जिसने दुनिया के कई देशों को तबाह कर दिया।
जिस वामपंथी शासन में पूरा समाज गरीबी, भुखमरी, अराजकता की भेंट चढ़ गया और विभिन्न देश आकंठ भ्रष्टाचार में डूब गए और अंतत: वहां की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। कांग्रेस उसी विफल वामपंथी मॉडल को अपनाकर देश को जातिगत संघर्ष और मजहबी उन्माद की ओर धकेलने की कोशिश कर रही है। वामपंथी बराबरी की बात करते हैं, लेकिन आज तक इन्होंने अनुसूचित जाति के एक भी व्यक्ति को पोलित ब्यूरो का सदस्य नहीं बनाया। क्यों?
अब बात इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष (अब भूतपूर्व हो गए) सैम पित्रोदा की, जो कहते हैं, ‘पूरब के लोग चीनी जैसे दिखते हैं, पश्चिम के लोग अरब जैसे, उत्तर के लोग गोरों जैसे और दक्षिण भारत के लोग अफ्रीकी जैसे दिखते हैं।’ जब कोई यह कहता है कि हम अलग-अलग तरीके के हैं, किंतु मिल-जुलकर रहते हैं तो उससे लगता है कि भारत की एकता और एकात्मता कोई थोपी हुई चीज है। क्योंकि पित्रोदा ने कहा कि सबको थोड़े-मोड़े ‘समझौते’ करने पड़ते हैं। पित्रोदा जी, हमें समझौते नहीं करने पड़ते, हमारी रचना ही ऐसी है। हमारे यहां परिवार परस्पर सरोकार और एकात्मकता की धुरी पर चलता है। लेकिन बाहर से थोपी गई विचारधारा पर चलने वाली कांग्रेस इसे भला क्या समझेगी?
विदेशी सुर-ताल पर विदेशी गाना गाने वालों को देखकर ज्वैल थीफ फिल्म का वह गाना याद आता है जिसे वैजयंती माला पर फिल्माया गया है-
होठों में ऐसी बात मैं दबाके चली आई
खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई
वह दबी हुई बात बड़े महत्वपूर्ण मौके पर खुली है और लोक के कानों में ऊंचे स्वर में ‘दुहाई हो, दुहाई हो’ सुनाई दे रही है।
@hiteshshankar
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