देशघाती यह ‘राहुल-नीति’

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उमेश्वर कुमार

क्या कोई ऐसी नीतियां को अमल में लाने की सोच सकता है जो समय की कसौटी पर लगातार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असफल होती रही हों? भारत के परिप्रेक्ष्य में आजादी के बाद, दशकों तक सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस पार्टी अब कुर्सी पाने की छटपटाहट में कुछ इसी तरह की मुहिम में लगी है।

‘धन का समान वितरण’ कार्ल मार्क्स की एक यूटोपीयन अवधारणा रही है। तथाकथित वैज्ञानिक समाजवाद और आर्थिक समाजवाद के नाम पर दुनियाभर के शैक्षणिक परिसरों में भले ही इसने तहलका मचा दिया, लेकिन बाद में परिणाम शून्य ही आए। समय था औद्योगिक क्रांति के बाद का। उस समय यूरोपीय परिवेश में मजदूरों का शोषण हो रहा था और उनमें परिवर्तन की छटपटाहट थी।

ऐसे में साम्यवाद का यह सिद्धांत एक लुभावनी आशा की किरण के रूप में दिखा। रूस, चीन के अतिरिक्त बंटे हुए जर्मनी का एक हिस्सा भी इसके प्रभाव में आया, लेकिन कालक्रम में क्या हुआ, यह सबको पता है। मार्क्सवाद के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ गईं, रूस बिखर कर टुकड़े-टुकड़े हो गया, चीन पूंजीवाद का पोषक हो गया, एकीकृत जर्मनी भी नई राह पर चल पड़ा।

1917 में रूस की बोल्शेविक क्रांति के बाद कुछ अन्य देशों में भी कम्युनिस्ट क्रांतियां हुईं, और वहां राज्य ने समस्त संपतियों पर कब्जा कर लिया। चीन ने भी क्रांति के बाद संपत्तियों पर कब्जे की शुरुआत की, लेकिन इन संपत्तियों के पुनर्वितरण का खेल बिगड़ता चला गया। देश के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने का नाश हो गया। स्थितियां बिगड़ती गईं, लोगों का जीवन स्तर नारकीय हो गया और बाद में वहां जो नई आर्थिक व्यवस्था पनपी, उसमें 1980 और 1990 के दशक में कमान निजी पूंजीपतियों के हाथ आ गई। कम्युनिज्म सिर्फ एक लबादा मात्र रह गया। आगे हम भारत में भी तथाकथित उदारवादी साम्यवाद और समाजवाद के प्रयोगों की चर्चा करेंगे कि किस तरह से इनपर आधारित सभी योजनाएं एक के बाद एक ध्वस्त होती चली गईं।

कांग्रेस की वामपंथी सोच

अब जब भारत विकास की राह पर अग्रसर है, इसके विकास की गति को देख सारी दुनिया प्रधानमंत्री मोदी की मुरीद हो रही है। विश्व की कई मानी हुई रेटिंग एजेंसियों के अनुसार, जीडीपी में विकास की रफ्तार आठ प्रतिशत के दायरे में है, लगभग 40 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ चुके हैं, उद्योग, विज्ञान, रक्षा, अंतरिक्ष, आधारभूत ढांचा, शिक्षा, खेल आदि क्षेत्रों में लगातार करिश्मे हो रहे हैं। ऐसे माहौल में कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार यह बयान देते फिर रहे हैं कि उनकी पार्टी अगर सत्ता में आती है, तो वे पहले राष्ट्रव्यापी जातिगत जनगणना करेंगे। उसके बाद धन के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए एक वित्तीय और संस्थागत सर्वेक्षण कराएंगे। इसके बाद संपत्ति का पुनर्वितरण होगा।

अपनी चुनावी रैलियों में राहुल गांधी लगातार यह बयान दे रहे हैं। इस तरह का बयान कांग्रेस के घोषणापत्र के जारी होने के पहले से भी आ रहा था और घोषणापत्र के जारी होने के बाद भी आ रहा है। कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि आपको क्या चुनना है, सभी के लिए समृद्धि या कुछ लोगों के पास धन? कांग्रेस की यह मानसिकता कोई नई नहीं है। कांग्रेस की नीतियों की जड़ों को इनके इतिहास में टटोलना होगा।

कांग्रेस की सोच और नीतियां शुरू से ही आयातित समाजवादी विचारधाराओं से प्रभावित रही हैं। हम इसकी जड़ें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के कराची अधिवेशन में देख सकते हैं, जहां इस एजेंडे की नींव रखी गई। इस अधिवेशन में भारत के विकास के लिए समाजवादी पैटर्न वाला लक्ष्य निर्धारित किया गया था। आजादी के बाद 1955 में कांग्रेस ने अपने संकल्प में विकास का समाजवादी पैटर्न लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया। इसके एक साल बाद भारतीय संसद ने आधिकारिक नीति के रूप में विकास के समाजवादी पैटर्न को अपनाया। इसमें इस बात की व्यवस्था करने पर बल दिया गया कि देश के उद्योगों का नियमन हो, यानी लगाम कसी हुई हो और भूमि सुधार को समाहित किया गया।

यहां भूमि सुधार की अवधारणा में कृषि को बढ़ावा देना कोई सरोकार नहीं था, बल्कि यह जोत की अवधारणा पर आधारित था, जिसमें बड़ी जोत वालों से जमीन छीन कर वंचितों में बांटनी थी। आगे आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संविधान संशोधन में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द को जोड़ दिया गया। इस समाजवाद का निहितार्थ बहुत ही व्यापक था। संदर्भ में यह भी स्पष्ट था कि सरकार धन के वितरण को अधिक समान बनाने के लिए लिए प्रयास करेगी। अवधारणा अच्छी थी, सरकारों को इस दिशा में काम करना ही चाहिए, लेकिन असली मुद्दा है तरीके का।

समानता लाने का तात्पर्य तो ठीक है। परिणाम की प्राप्ति का रास्ता क्या हो, यह असली मुद्दा है। क्या अधिक संपत्ति वालों से उनकी संपत्ति के बड़े हिस्से को छीन कर इसे गरीबों में बांट दिया जाए? क्या इससे आर्थिक समानता आ जाएगी? सच यह है कि इस तरीके से समाज में आर्थिक समानता आ ही नहीं सकती। अल्प समय के लिए लग सकता है कि समानता आ रही है, लेकिन यह लंबी नहीं चल सकती। इसके लिए जरूरी है लोगों में शिक्षा और उसके उपयोग के लिए अवसर पैदा करना। जब तक ऐसा नहीं होगा, समाज में संतुष्ट वातावरण बन ही नहीं सकता। इस चीज को साम्यवाद और समाजवाद अपनाने वाले देशों ने भली-भांति देख लिया है।

यहां हम अर्थशास्त्र के भारी भरकम सिद्धांतों से हट कर अपने पास-पड़ोस के परिवेश को देखते हैं। परिवारों में भाइयों के बीच बंटवारे तो होते ही हैं। माता-पिता अपने हिसाब से सभी को बराबर का हिस्सा देते हैं, लेकिन कालक्रम में क्या यह बराबरी बनी रहती है? नहीं, यह बराबरी कहीं महीनों में तो कहीं सालों में खत्म हो जाती है। कारण क्या होता है, सभी की अपनी क्षमता और कार्यकुशलता। जो सक्षम होता है, वह न सिर्फ संपत्ति के समेट कर रखता है, बल्कि अपने कौशल से इसे काफी आगे ले जाता है। यह बातें आसपास के परिवेश से लेकर दिग्गज कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है।

नेहरू वाली गलती

अब सवाल है कि क्या वैसी गलती फिर दोहराई जाए जैसा कि राहुल गांधी करना चाह रहे हैं। नेहरू से मिली विरासत को आगे बढ़ाते हुए अब राहुल पूरे समाज का एक्स-रे करना चाहते हैं, फिर इसे अपने चहेते कथित वंचितों में बांटना चाहते हैं। क्या यह संभव हो पाएगा या फिर क्या इसकी कोई जरूरत है? अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक साक्षात्कार में इस विषय को संजीदगी के साथ रेखांकित किया है। उनकी बात यहां उनकी ही जुबानी रखते हैं-

‘‘आपने ‘युवराज’ को यह कहते हुए देखा होगा कि हम एक्स-रे कराएंगे। यह एक्स-रे हर घर पर छापा मारने के अलावा कुछ नहीं है। वे किसानों पर छापा मारकर देखेंगे कि उनके पास कितनी जमीन है। वे आम आदमी पर छापा मारकर देखेंगे कि उसने मेहनत से कितनी संपत्ति अर्जित की है। वे हमारे देश की महिलाओं के गहनों पर धावा बोल देंगे। हमारा संविधान सभी अल्पसंख्यकों की संपत्ति की रक्षा करता है। इसका मतलब यह है कि जब कांग्रेस नए सिरे से बंटवारे की बात करती है, तो वह अल्पसंख्यकों की संपत्तियों को छू नहीं सकती। वह वक्फ की संपत्तियों पर विचार नहीं कर सकती, लेकिन वह सभी दूसरे समुदायों की संपत्तियों पर नजर रखेगी। इससे सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा होगा। यह ऐसी चीज है जिसके लिए हमें बहुत सावधान रहना होगा।’’

प्रधानमंत्री आगे कहते हैं, ‘‘हमारा राष्ट्र, हमारे प्रत्येक नागरिक का कल्याण हमारी पहली और सर्वोच्च प्राथमिकता है। हमारी सरकार बहुसंख्यकों को लाभ पहुंचाने के लिए नीतियां नहीं बनाती है। हम ऐसी नीतियां बनाते हैं, जिससे अल्पसंख्यकों को लाभ हो। हम ऐसी नीतियां बनाते हैं, जो बिना किसी भेदभाव के हमारे देश और इसके 140 करोड़ नागरिकों को फायदा पहुंचाती हो।’’

साम्यवादी सिद्धांतों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय अनुभव के सिरमौर देश रहे हैं रूस और चीन, जिसकी चर्चा हमने पहले की है। अब थोड़ी बात जर्मनी की भी कर लेते हैं कि किस तरह से समाजवादी व्यवस्था में लोगों की क्षमता और कुशलता में कमी आती है और व्यवस्था जड़ता की ओर बढ़ती जाती है।

पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी की बात करें तो दूसरे विश्वयुद्ध से पहले दोनों देशों के पास समान संपत्ति थी, दोनों की जीडीपी भी समान थी और दोनों देशों के समाज की पांथिक प्रवृत्ति भी एक समान गहरी थी। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक बड़ा परिवर्तन हुआ। एक ने पूंजीवादी व्यवस्था अपनाई और दूसरे यानी पूर्वी जर्मनी ने साम्यवादी। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद जब दोनों देशों का फिर से एकीकरण हुआ तो एक बात साफ नजर आ रही थी कि सिवाय टीकाकरण के पूर्वी जर्मनी हर तरह से पश्चिमी जर्मनी की तुलना में काफी पिछड़ चुका था। पूर्वी जर्मनी में रूस के जबरदस्त निवेश के बावजूद यह ऊपर नहीं उठ पाया। इसे देख वामपंथी इतिहासकार भी पूर्वी जर्मनी के पिछड़ेपन का मूल कारण देश की साम्यवादी नीतियों को ही ठहराते हैं।

उद्योग के पैरों में बेड़ियां

अब हम बात करेंगे आजाद भारत में विकास की विरासत की। सबसे पहले औद्योगीकरण की बात। देश के प्रथम प्रधानमंत्री ने विकास का जो मॉडल अपनाया वह एक तरह से पिंजरे में बंद विकास की अवधारणा थी। नेहरू काल में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विकास को तरजीह दी गई और निजी क्षेत्र पर लगाम लगा दी गई। उस वक्त अच्छे काम करने वाले दूसरे देशों से कोई भी सबक नहीं लिया गया। यह नहीं देखा गया कि जापान जैसा छोटा-सा देश किस तरह से अपनी बाहर देखो और निर्यातोन्मुखी नीतियों के साथ कहां से कहां बढ़ गया। इधर, नेहरू का जोर आयात से जरूरतें पूरी करने पर रहा। विश्व की विकासकारी आर्थिक नीतियों, प्रतियोगी माहौल, बेहतर उत्पादन के लिए प्रोत्साहन आदि को वह लगातार दरकिनार करते रहे।

दुनिया के व्यापार में भारत की हिस्सेदारी नहीं बढ़ सकी। अक्षम सरकारी क्षेत्र पर जोर रहा और निजी क्षेत्र के पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं, जिससे देश में विदेशी मुद्रा के आने का प्रवाह भी रुक गया। उद्योग के कई क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। दूसरी ओर, दक्षिण कोरिया जैसे देश निजी क्षेत्र के विकास को प्रोत्साहित करते रहे, उन्हें आसान शर्तों पर कर्ज के साथ अन्य सुविधाएं दी गईं। इधर, आलम यह था कि जब जीडी बिरला ने इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति मांगी तो मना कर दिया गया। टाटा की अनगिनत योजनाओं को मंजूरी नहीं दी गई। देश में उद्योग के लिए उचित माहौल नहीं होने के कारण कई उद्यमियों ने दूसरे देशों में उद्योग लगाना अधिक श्रेयस्कर समझा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

उपेक्षित रहा कृषि क्षेत्र

नेहरू और उनके सलाहकार भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि की ही महत्ता को समझ नहीं पाए। उन्हें इसका भान नहीं था कि जब तक कृषि उत्पादन जरूरत से अधिक नहीं होगा, तब तक न तो तेजी से बढ़ने वाली शहरी जनसंख्या का हम पेट भर पाएंगे और न ही औद्योगिक विकास में तेजी आएगी। कृषि की उपेक्षा का नतीजा सूखे के रूप में सामने आया और देश भूखों की फौज बन गई और हम बन गए अंतरराष्ट्रीय भिखारी। उसी काल में जापान ने कृषि और शिक्षा पर जोर दिया और नतीजा सामने है।

कृषि पर ध्यान को लेकर एस निजलिंगप्पा की नेहरू से कभी नहीं बनी। वह कृषि पर जोर और सिंचाई पर जोर देने की बात करते थे और नेहरू उन्हें देहाती कहकर दुत्कार देते थे। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी की नीतियां भी सरकारी तंत्र को अकूत ताकत देने की पक्षधर रहीं। नेहरू के समय उद्योग पर सम्यक ध्यान नहीं देने और कृषि को नकारने का यह नतीजा हुआ कि देश में गरीबी और बेरोजगारी के साथ भुखमरी की नौबत आ गई। देश में जमाखोरी और लाइसेंस परमिट राज का खुला खेल शुरू हो गया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण शुरू हो गया, यानी नेहरू के समय के बड़े उद्योगों की तरह अन्य क्षेत्रों में भी केंद्रीकरण शुरू हो गया।

इस तरह से इतिहास ने साबित कर दिया है कि कोई भी देश जबरिया धन के बंटवारे से देश को उन्नति की राह पर नहीं ला सकता। विकास एक सतत प्रक्रिया है जिसके केंद्र में है राष्ट्रीय हितों से मेल खाता देश का आम नागरिक। जब तक केंद्र में मौजूद इस व्यक्ति का हाथ नहीं खोला जाए और जरूरत पड़ने पर थोड़ी सहायता नहीं की जाए, तब तक उसे विकास के मार्ग पर नहीं लाया जा सकता और देश का समग्र विकास नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सारी योजनाएं उसी राह पर हैं। यह न तो किताबी समाजवाद है और न ही पूंजीवाद। यह व्यावहारिक आवश्यकताओं के हिसाब से तैयार किया गया एक लाजवाब सर्वकल्याणकारी मॉडल है। राहुल गांधी को दुनिया और कांग्रेस के इतिहास से जरूर सबक लेना चाहिए और 1931 में कांग्रेस में बोए गए कथित समाजवाद के एजेंडे से बाहर आना चाहिए।

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