हैदराबाद एक ऐसा रजवाड़ा था जिसका निजाम एक मुसलमान था परंतु राज्य में बहुमत हिंदुओं का था। निजाम हिंदुओं से नफरत करते थे। अपनी एक कविता में निजाम ने लिखा है: ‘मैं पासबाने दीन हूं, कुफ्र का जल्लाद हूं।’ अर्थात मैं इस्लाम का रक्षक हूं और हिंदुओं का भक्षक हूं। निजाम के अंतर्गत हैदराबाद में 13 प्रतिशत ही मुसलमान थे परंतु उच्च पदों पर 88 प्रतिशत मुसलमान थे। इसी तरह 77 प्रतिशत हाकिम मुसलमान थे। हैदराबाद की आमदनी का 97 प्रतिशत हिंदुओं से वसूला जाता था। इसके बावजूद निजाम हिंदू विरोधी था। उसके हरम में 360 स्त्रियां थीं। उनमें से अधिकतम ‘काफिर’ अर्थात् गैर मुस्लिम थीं। निजाम को खुश करने के लिए उसके अधीनस्थ अफगानिस्तान से चुरा कर लाई गई 10-12 साल की गैर-मुस्लिम लड़कियां भी खरीद कर लाते थे।
मुसलमान निजाम पाकिस्तान में मिलना चाहता था। परंतु हैदराबाद पाकिस्तान से बहुत दूर था और चारों तरफ से भारत से घिरे द्वीप की भांति था। 1933 में चौधरी रहमत अली द्वारा लिखे एक घोषणापत्र ‘अब या कभी नहीं’ में पाकिस्तान की स्थापना का विचार पहली बार रखा गया था। इसके बाद मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने 1940 में पाकिस्तान की औपचारिक मांग की थी। चौधरी रहमत अली के विचारों में उस्मानिस्तान प्रांत का भी उल्लेख है, जो कि डेक्कन में पाकिस्तान के एक अंत:क्षेत्र के तौर पर प्रस्तावित किया गया था। रहमत अली ने उस्मानिस्तान नाम हैदराबाद के आखिरी निजाम उस्मान अली खान के सम्मान में दिया था।
रजाकारों का आतंक
1948 में कासिम रिजवी मजलिस-ए-इत्तेहादुलमुस्लिमीन के अध्यक्ष थे। मजलिस-एतिहाद-उल-मुस्लिमीन आज के एआईएमआईएम का पूर्ववर्ती संगठन था। यह संगठन चाहता था कि हैदराबाद का विलय पाकिस्तान में हो। हिंदू बहुल हैदराबाद के नागरिक भारत में रहने के इच्छुक थे। निजाम की निजी फौज के तौर पर मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सशस्त्र दस्ते के रूप में रजाकारों की फौज खड़ी की गई। यह हैदराबाद में घूम-घूम कर आतंक मचाने लगी और जजिया इकट्ठा करने लगी।
हिंदू महासभा और आर्य समाज ने इसका विरोध किया और भारत में सम्मिलित होने के लिए आंदोलन चलाया। डॉक्टर बुगुर्ला रामाकृष्ण राव इस आंदोलन के प्रखर नेता थे। रजाकारों की फौज गांव-गांव में जाकर लूटपाट कर रही थी, निदोर्षों की हत्या कर रही थी, स्त्रियों की इज्जत लूट रही थी। 22 मई, 1948 को हैदराबाद के गंगापुर स्टेशन पर एक रेलगाड़ी में सवार हिंदू यात्रियों पर हमला किया गया।
भैरनपल्ली का नरसंहार
15 अगस्त, 1948 को देश ने स्वतंत्रता की पहली वर्षगांठ मनाई। 27 अगस्त, 1948 को रजाकारों की फौज ने राज्य की पुलिस से मिलकर भैरनपल्ली गांव पर आक्रमण कर दिया। जून 1948 से ही रजाकार बार-बार भैरनपल्ली पर आक्रमण कर रहे थे। ग्रामीण स्थानीय स्तर पर संगठित होकर कुल्हाड़ी, लाठी, फरसा, गुलेल इत्यादि पारंपरिक हथियारों मात्र से उन्हें भगा रहे थे। ग्राम रक्षक टोलियां हर रात पहरा देती थीं। चरवाहे दूर-दूर तक जाकर रजाकारों के आने की सूचना देते थे। ग्रामीणों ने बहुत से गुलेली पत्थर इकट्ठे कर लिए थे। जिसको जो मिला, उसी से ग्रामीणों ने रजाकारों का जमकर मुकाबला किया।
इन ग्रामीण तरीकों से ही वे रजाकारों के तीन हमले विफल करने में सफल हो गए। परंतु चौथी बार रजाकारों की संख्या बहुत बड़ी थी। ग्रामीण मुकाबला नहीं कर पाए। जनजातीय समाज का वार्षिक त्योहार बैठकुमा मनाया जा रहा था। 27 अगस्त को रजाकार और हैदराबाद स्टेट पुलिस ने मिलकर भैरनपल्ली पर आक्रमण कर दिया। ग्रामीण सुरक्षा गार्डों को पकड़ कर गोली मार दी गई। निहत्थे, निर्दोष ग्रामीणों को चुन-चुन कर, कतार में खड़ा कर मारा गया। गोलियां बचाने के लिए एक के पीछे एक खड़ा कर इकट्ठे तीन-तीन लोगों को एक ही गोली से मारा गया। औरतों को निर्वस्त्र करके मृत ग्रामीणों के पास जबरदस्ती नाच कराया गया और उनसे बलात्कार किया गया। अनेक स्त्रियों ने कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी। 120 से ज्यादा लोग मारे गए। इस घिनौने अत्याचार ने पूरे हैदराबाद की जनता में आक्रोश भर दिया।
रजाकारों के द्वारा किस प्रकार से निर्दोष जनता को आतंकित किया गया, इसका आंखों देखा हाल वर्ष 2017 में द हिंदू में एक स्थानीय वरिष्ठ नागरिक चलाचंद्र रेड्डी के शब्दों में प्रकाशित है। उन्होंने बताया कि गुलेल जैसे पारंपरिक हथियार से भी ग्रामीणों ने क्रूर रजाकारों को रोके रखा परंतु रजाकारों की बंदूकों के सामने ग्रामीण कब तक लड़ पाते। बहुत से लोग घायल हो कर जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गए। बहुत से लोग मारे गए। स्त्रियों के आभूषण छीन लिये गए।
पटेल का आपरेशन पोलो
इस घटना के उपरांत सरदार पटेल ने हैदराबाद में भारतीय सेना भेजने का निर्णय लिया। यह 13 सितंबर को भेजी जानी थी। किसी ने कहा कि 13 तिथि अशुभ है, इसलिए आपरेशन 14 सितंबर को प्रारंभ किया जाए। सरदार पटेल ने कहा, इसे 12 तारीख कर दिया जाए। तत्कालीन हैदराबाद स्टेट के केंद्रीय सलाहकार के.एम. मुंशी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सेना की लामबंदी की तिथि 9 सितंबर निश्चित की गई थी क्योंकि 3 दिन उन्हें हैदराबाद में अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचने में लगने थे।
इसे आपरेशन पोलो नाम दिया गया और आखिर में 13 सितंबर को आरंभ होने के बावजूद यह शुभ निष्कर्ष तक पहुंचा। भारतीय सेना ने मात्र 5 दिन में ही इस अभियान को निपटा दिया। यह सरदार पटेल की सैन्य बुद्धि और कूटनीति का ही परिणाम था। इस प्रकार हैदराबाद का विलय भारत में हो गया। मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमान के मुखिया कासिम रिजवी और हैदराबाद के प्रधानमंत्री लायक अली पाकिस्तान भाग गए।
भैरनपल्ली का हादसा और आपरेशन पोलो इस बात को दर्शाते हैं कि रजवाड़ों का विलय कितना जटिल और विशाल कार्य था। इस अमूल्य योगदान के लिए देश सदा सरदार पटेल का आभारी रहेगा। देश उन वीरों के प्रति भी कृतज्ञ है जिन्होंने राष्ट्रीय एकता और संप्रभुता की रक्षा स्थानीय स्तर पर भैरनपल्ली गांव में की और सर्वस्व बलिदान कर दिया।
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