गुरु तेग बहादुर सिंह जी की जयंती प्रतिवर्ष वैशाख पंचमी के दिन मनाई जाती है, जो इस वर्ष 29 अप्रैल को मनाई जा रही है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार उनका जन्म 21 अप्रैल 1621 को हुआ था लेकिन सिख कैंलेडर की तिथि के अनुसार गुरु तेग बहादुर जी का जन्म वैशाख महीने की कृष्ण पक्ष पंचमी को हुआ था। अपना समस्त जीवन मानवीय सांस्कृतिक की विरासत की खातिर बलिदान करने वाले गुरु तेग बहादुर जी का जीवन अनेक शौर्य गाथाओं से भरा हुआ है। सिख धर्म में उन्हें क्रांतिकारी युगपुरुष के रूप में जाना जाता है। सिखों के नवें गुरू तेग बहादुर सदैव सिख धर्म मानने वाले और सच्चाई की राह पर चलने वाले लोगों के बीच रहा करते थे, जिन्होंने न केवल धर्म की रक्षा की बल्कि देश में धार्मिक आजादी का मार्ग भी प्रशस्त किया। सिखों के 8वें गुरू हरिकृष्ण राय की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद तेग बहादुर को नवां गुरू बनाया गया था, जिनके जीवन का प्रथम दर्शन ही यही था कि धर्म का मार्ग सत्य और विजय का मार्ग है। 1 अप्रैल 1621 को माता नानकी की कोख से जन्मे तेग बहादुर ने धर्म और आदर्शों की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावार कर दिए थे। 14 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में वीरता का परिचय दिया था और उनकी इस वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने ही उनका नाम ‘तेग बहादुर’ अर्थात् तलवार का धनी रखा था।
गुरू तेग बहादुर ने हिन्दुओं तथा कश्मीरी पंडितों की मदद कर उनके धर्म की रक्षा करते हुए अपने प्राण गंवाए थे। क्रूर मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें हिन्दुओं की मदद करने और इस्लाम नहीं अपनाने के कारण मौत की सजा सुनाई थी और उनका सिर कलम करा दिया था। उस आततायी और धर्मान्ध मुगल शासक की धर्म विरोधी तथा वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरूद्ध गुरू तेग बहादुर का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों में गुरू तेग बहादुर का स्थान अद्वितीय है और एक धर्म रक्षक के रूप में उनके महान् बलिदानों को समूचा विश्व कदापि नहीं भूल सकता। उस समय औरंगजेब ने आदेश पारित किया था कि राजकीय कार्यों में किसी भी उच्च पद पर किसी हिन्दू की नियुक्ति नहीं की जाए और हिन्दुओं पर ‘जजिया’ (कर) लगा दिया जाए। उसके बाद हिन्दुओं पर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला हो गया। अनेक मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिदें बनवा दी गई और मंदिरों के पुजारियों, साधु-संतों की हत्याएं की गई।
हिन्दुओं पर लगातार बढ़ते अत्याचारों और भारी-भरकम नए-नए कर लाद दिए जाने से भयभीत बहुत सारे हिन्दुओं ने उस दौर में धर्म परिवर्तन कराकर मजबूरन इस्लाम धर्म अपना लिया। औरंगजेब के अत्याचारों के उस दौर में कश्मीर के कुछ पंडित गुरू तेग बहादुर के पास पहुंचे और उन्हें अपने ऊपर हो रहे जुल्मों की दास्तान सुनाई। गुरू जी ने उनकी पीड़ा सुनने के बाद मुस्कराते हुए कहा कि तुम लोग बादशाह से जाकर कहो कि हमारा पीर तेग बहादुर है, अगर वह मुसलमान हो जाए तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर के सूबेदार शेर अफगन के मार्फत यह संदेश औरंगजेब तक पहुंचाया तो औरंगजेब बिफर उठा। उसने गुरू तेग बहादुर को दिल्ली बुलाकर उनके परम प्रिय शिष्यों मतिदास, दयालदास और सतीदास के साथ बंदी बना लिया और तीनों शिष्यों से कहा कि अगर तुम लोग इस्लाम धर्म कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिए जाओगे।
भाई मतिदास ने जवाब दिया कि शरीर तो नश्वर है और आत्मा का कभी कत्ल नहीं हो सकता। यह सुनकर औरंगजेब ने मतिदास को जिंदा ही आरे से चीर देने का हुक्म दिया। औरंगजेब के फरमान पर जल्लादों ने भाई मतिदास को दो तख्तों के बीच एक शिकंजे में बाधकर उनके सिर पर आरा रखकर आरे से चीर दिया और उनकी बोटी-बोटी काट दी लेकिन जब भाई मतिदास को आरे से चीरा जाने लगा, तब भी वे भयभीत हुए बिना ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। अगली बारी थी भाई दयालदास की लेकिन उन्होंने भी जब दो टूक लहजे में इस्लाम धर्म कबूल करने से इन्कार कर दिया तो औरंगजेब ने उन्हें गर्म तेल के कड़ाह में डालकर उबालने का हुक्म दिया। सैनिकों ने उसके हुक्म पर उनके हाथ-पैर बांधकर उबलते हुए तेल के कड़ाह में डालकर उन्हें बड़ी दर्दनाक मौत दी लेकिन भाई दयालदास भी अपने अंतिम श्वांस तक ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। अगली बारी थी भाई सतीदास की लेकिन उन्होंने भी दृढ़ता से औरंगजेब का इस्लाम धर्म अपनाने का फरमान ठुकरा दिया तो उस आततायी क्रूर मुगल शासक ने दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए उन्हें कपास से लपेटकर जिंदा जला देने का हुक्म दिया। भाई सतीदास का शरीर धू-धूकर जलने लगा लेकिन वे भी निरंतर ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे।
औरंगजेब के आदेश पर 22 नवम्बर 1675 के दिन काजी ने गुरू तेग बहादुर से कहा कि हिन्दुओं के पीर! तुम्हारे सामने तीन ही रास्ते हैं, पहला, इस्लाम कबूल कर लो, दूसरा, करामात दिखाओ और तीसरा, मरने के लिए तैयार हो जाओ। इन तीनों में से तुम्हें कोई एक रास्ता चुनना है। अन्याय और अत्याचार के समक्ष झुके बिना धर्म और आदर्शों की रक्षा करते हुए गुरू तेग बहादुर ने तीसरे रास्ते का चयन किया। जालिम औरंगजेब को यह सब भला कहां बर्दाश्त होने वाला था। उसने गुरू तेग बहादुर का सिर कलम करने का हुक्म सुना दिया। 24 नवम्बर के दिन चांदनी चौक के खुले मैदान में एक विशाल वृक्ष के नीचे गुरू तेग बहादुर समाधि में लीन थे, वहीं औरंगजेब का जल्लाद जलालुद्दीन नंगी तलवार लेकर खड़ा था। अंततः काजी के इशारे पर जल्लाद ने गुरू तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया, जिसके बाद चारों ओर कोहराम मच गया। इस प्रकार अपने धर्म में अडिग रहने और दूसरों को धर्मान्तरण से बचाने के लिए गुरू तेग बहादुर और उनके तीनों परम प्रिय शिष्यों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे दी। धन्य हैं भारत की पावन भूमि पर जन्म लेने वाले और दूसरों की सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले उदार चित्त, बहादुर व निर्भीक ऐसे महापुरूष। हिन्दुस्तान तथा हिन्दू धर्म की रक्षा करते हुए शहीद हुए गुरू तेग बहादुर को उसके बाद से ही ‘हिन्द की चादर गुरू तेग बहादुर’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपनी कुर्बानी दी, इसीलिए उन्हें ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है।
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