दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए हो रहे चुनावों के बीच, मैं अभी पश्चिम बंगाल के आसनसोल से यह संपादकीय लिख रहा हूं। यहां दो घटनाओं की बड़ी चर्चा है। पहली घटना 14 अप्रैल को बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती के दिन की है। झारखंड के साहिबगंज में झामुमो द्वारा किए जा रहे एक प्रदर्शन के दौरान झामुमो नेता नजरूल इस्लाम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए उन्हें 400 फीट जमीन में गाड़ने की बात कही।
दूसरी घटना 17 अप्रैल की बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले की है। मुर्शिदाबाद जिले के शक्तिपुर में रामनवमी शोभायात्रा पर बम फेंके गए। इस घटना में 20 से अधिक लोग जख्मी हो गए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा पर लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इसे अंजाम देने का आरोप लगाया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्माद को पोसने की राजनीति कैसे बढ़ती है, इसके ये दो उदाहरण हैं। ऐसा ही एक और उदाहरण है कांग्रेस नेता इमरान मसूद का, जिसने 2014 में प्रधानमंत्री मोदी की बोटी-बोटी करने की बात कही थी, जिसके पुरस्कारस्वरूप मसूद को 2014 में, फिर 2019 में और अब 2024 में भी लोकसभा का टिकट दिया गया है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुने हुए प्रतिनिधियों को ललकारने, हत्या की धमकी देने या कट्टरपंथी-अतिवादी विचारधारा के समर्थन में ताल ठोकने वाली भारत की इन घटनाओं के सामने अंतरराष्ट्रीय जगत की दो और घटनाएं रखकर देखिए- हाल ही में अमेरिका में रहने वाली भारतीय मूल की फिलिस्तीन समर्थक और हिंदू विरोधी 28 वर्षीय रिद्धि पटेल को नौकरी से निकाल दिया गया। वह ‘सेंटर आफ रेस, पावर्टी एंड एनवायरनमेंट’ संस्था में काम करती थी। उसे नौकरी से इसलिए निकाला गया, क्योंकि उसने कैलिफोर्निया स्थित बेकर्सफील्ड में वहां के मेयर को खुलेआम मारने की धमकी दी थी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में कट्टरता को बढ़ावा देने वाले कथित पढ़े-लिखों के विरुद्ध ऐसी ही एक कार्रवाई गूगल ने भी की है। इस्राएल और हमास के बीच छिड़े य़ुद्ध के बीच गूगल ने अपने 28 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। ये कर्मचारी हमास के समर्थन में गूगल और इस्राएली सरकार के साथ काम करने का विरोध कर रहे थे। इस पूरे विरोध का मुख्य कारण प्रोजेक्ट निंबस है, जिस पर 2021 में गूगल और इस्राएल सरकार के बीच हस्ताक्षर किए गए थे। इन्होंने कंपनी की नीति का उल्लंघन करते हुए कैलिफोर्निया और न्यूयॉर्क स्थित परिसर में विरोध प्रदर्शन किया था, जिस पर यह कार्रवाई हुई।
किंतु ऐसा क्यों है कि अपने यहां लोकतांत्रिक व्यवस्था के संरक्षण के लिए अत्यंत संवेदनशील पश्चिम भारत में लोकतंत्र ललकारने वालों के लिए उदार हो जाता है या कहिए कई बार उन्हें शह देता हुआ दिखता है।
याद कीजिए-
ग्रेटा थनबर्ग! स्वीडन की रहने वाली कथित पर्यावरणविद, जिसने ‘किसान आंदोलन’ के समय हिंसा भड़काने की पूरी साजिश रची थी। और इसके समर्थन में पश्चिम का एक पूरा तंत्र खड़ा था। ‘किसान आंदोलन’ के दौरान उसी ग्रेटा ने एक टूल किट सोशल मीडिया पर डाली थी, दुनियाभर के लोगों से विरोध प्रदर्शन में शामिल होने और आंदोलन का समर्थन करने की अपील की गई थी। इस टूल किट में ज्यादा से ज्यादा अराजकता कैसे फैलाएं, इसके बारे में तरीके बताए गए थे।
आश्चर्य है कि तब लोकतंत्र के प्रति संवेदनशील बताए जाने वाले ‘लिबरल’ अराजकता के पक्षकार बनकर घूम रहे थे।
ये कुछ उदाहरण हैं, चेहरे हैं, दुनियाभर में फैले उन्मादियों, अराजकतावादियों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी बोलने वाले, एक जैसी सोच रखने वाले लोगों के छद्मतंत्र का। ऐसा जाल जो सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जगह-जगह फैला है।
याद रखिए! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आज कुछ, कल कुछ और नहीं बोला जा सकता है। बोलने की छूट के नाम पर कुछ भी बोलने की छूट के साथ बहुत बड़े खतरे जुड़े हैं।
अनियंत्रित, उन्मादी बयान की एक छोटी सी चिंगारी भी सामुदायिक आक्रोश के दावानल को भड़काने का कारण बन सकती है। समय रहते यदि सही कदम उठाए जाएं तो चुल्लूभर पानी से यह आग बुझाई भी जा सकती है। विश्व के सभी देशों में जहां भी लोकतंत्र है, लोकतांत्रिक व्यवस्था को सही से चलाने के लिए, लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखने के लिए ऐसे दोमुंहे चेहरों और इनके छद्मतंत्र को उजागर करने की आवश्यकता है। दरअसल अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी बोलने वालों को यह जान लेना चाहिए कि यह स्वतंत्रता तभी तक है जब तब लोकतांत्रिक व्यवस्था है।
रिद्धि पटेल प्रकरण केवल विदेश में घटी घटना मात्र नहीं, बल्कि एक रूपक, एक मिसाल होना चाहिए जिसे देखकर सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों को घूरने-ललकारने वालों को सबक मिले- लोकतंत्र से मिली स्वतंत्रता की एक सीमा है, और किसी ने भी यह सीमा लांघी तो उसकी खैर नहीं!
@hiteshshankar
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