दक्षिण को दर्द देने वाला कांग्रेसी दृष्टिकोण

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हितेश शंकर

आजकल कच्चातिवु द्वीप की बहुत चर्चा है। विशेषकर, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों से लेकर संसद तक में इसका जिक्र कर चुके हैं, कुछ लोग कह रहे हैं कि अभी इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है? दरअसल, इस मुद्दे को चुनाव के संदर्भ में देखना ही नहीं चाहिए। न ही राष्ट्रीय स्तर पर इसे बदलने और श्रीलंका को कष्ट देने की स्थिति या आग्रह है, बल्कि ‘कच्चातिवु’ एक ऐसा संवेदनशील संदर्भ बिंदु है, जो बताता है कि हमें राष्ट्रीय मुद्दों को आखिर कैसे देखना चाहिए।

हितेश शंकर

कच्चातिवु द्वीप कभी भारत का हिस्सा हुआ करता था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1974 में श्रीलंका को सौंप दिया। इसी से जुड़ा एक और घटनाक्रम है। 10 मई, 1961 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘‘मैं इस छोटे से द्वीप को बिल्कुल भी महत्व नहीं देता और इस पर अपना दावा छोड़ने में मुझे कोई झिझक नहीं होगी। मुझे इसका अनिश्चितकाल तक लंबित रहना और संसद में दोबारा उठाया जाना पसंद नहीं है।’’

सवाल वह छोटा-सा द्वीप नहीं, बल्कि भारी उपेक्षा से लदी यह अहंकार पूर्ण शैली है। आप लोकतांत्रिक देश में यदि संसद, वहां के लोगों की राय के हिसाब से बात करें तो ठीक है, लेकिन लोकतंत्र में एक व्यक्ति की पसंद या नापसंद का कोई अर्थ नहीं रह जाता। नेहरू जी के कथन में अहंकार का भाव नजर आता है। स्वयं को ही सर्वोच्च समझना, यह एक परिवार की दृष्टि हो सकती है, लेकिन समाज की, एक लोकतांत्रिक देश की यह दृष्टि कभी नहीं हो सकती।

कच्चातिवु द्वीप के मामले में कांग्रेस ने पूरे देश को अंधेरे में रखा। इसे श्रीलंका को सौंपते समय यह नहीं देखा गया कि रोजगार या रणनीतिक दृष्टि से इस क्षेत्र का क्या महत्व है। किसी भी देश के लिए कई बार एक छोटी-सी जगह बहुत महत्वपूर्ण होती है। उदाहरण के लिए लक्षद्वीप, मिनिकॉय द्वीप शृंखला या पश्चिम में वेरावल। ये मछली पालन, पर्यावरण सुरक्षा आदि की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं। इसी तरह, कच्चातिवु की कहानी है। रामेश्वरम के पास जब मछलियां कम हो गईं, तब मछुआरे आगे कच्चातिवु तक जाते थे। वहां मछलियां प्रचुरता में हैं। अब वहां जाने पर कई बार मछुआरों को पकड़ लिया जाता है। इस देखते हुए कुछ समझौता आदि किया गया होता, तो शायद आज ऐसी स्थिति नहीं आती। कांग्रेस सरकार के इस निर्णय का संताप आज भी तमिलनाडु के मछुआरे झेल रहे हैं। यह द्वीप श्रीलंका में नेदुनथीवु और भारत में रामेश्वरम के बीच स्थित है और इसका उपयोग पारंपरिक रूप से दोनों पक्षों के मछुआरों द्वारा किया जाता रहा।

आज बात किसी राष्ट्रीय निर्णय को पलटने की नहीं, बल्कि इस मामले में बरती गई राजनीतिक अदूरदर्शिता को चिह्नित किए जाने की है। कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को सौंपने को लेकर संसद में कोई बहस नहीं हुई थी। इसका अर्थ तो यह हुआ कि जो मैं कहूं, वही सही। यानी स्वयं को सबसे समझदार और सर्वोच्च समझने की जो सोच नेहरू की थी, वही सोच इंदिरा गांधी की भी थी। शायद यही कारण है कि मछुआरों की पारंपरिक आवाजाही और रोजगार को राजनीति के जरिए बाधित करने वाला यह मुद्दा आज भी टीस देता है।

1974 की बात उसी साल खत्म नहीं हुई थी। 1991 में तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार ने इसके विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। जब 1997 में जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं, तो वे इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी गईं। प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय स्तर का निर्णय लेते हुए इस द्वीप को लेकर जनभावना और जुड़ाव को नहीं समझा गया। शायद बातचीत से बात संभल सकती थी, मगर तुरत-फुरत निर्णय करने से श्रीलंका और तमिलनाडु के लोगों के बीच एक तनातनी पैदा करने वाला यह एक स्थाई मुद्दा बन गया।

सत्ता में बैठे किसी भी राजनीतिक दल को यह सोचना चाहिए कि जब भी वह कोई संवेदनशील राष्ट्रीय निर्णय ले रहा हो, तो उसके लिए व्यापक सहमति बनाना आवश्यक होता है। वैसे, दक्षिण भारत को दर्द देने वाली कांग्रेस की अदूरदर्शी सोच का यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं है। याद कीजिए, पिछले दिनों कांग्रेस सांसद डीके सुरेश ने बयान दिया था कि ‘दक्षिण के राज्यों का अलग ही देश बनाया जाना चाहिए।’ बाद में कांग्रेस ने इस बयान से किनारा करते हुए इसे उनका निजी बयान बताया, लेकिन इस बयान के बाद कांग्रेस को उस नेता के खिलाफ जैसी कठोर कार्रवाई करनी चाहिए थी, वैसा कुछ नहीं किया गया।

प्रश्न है- एक तरफ तो राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा निकालते हैं, दूसरी तरफ उनके नेता सीधे-सीधे भारत को तोड़ने वाले, उत्तर और दक्षिण को बांटने वाले बयान देते हैं। मत भूलिए, राहुल गांधी भी इस देश को केवल संघीय व्यवस्था से बंधे राज्यों का एक समूह भर मानते हैं। वे राष्ट्रीय एकात्मता के भाव जैसी किसी बात को नहीं मानते। ऐसी सोच अंग्रेजों की हो सकती थी, लेकिन जिनको इस देश ने चुना हम उनसे ऐसी सोच की अपेक्षा नहीं रखते। क्या कारण है कि कांग्रेस ‘बांटो और राज करो’ की अंग्रेजों की सोच लेकर कदम बढ़ाती है।

भारत एक देश था, है और हमेशा रहेगा, लेकिन कांग्रेस शायद ऐसा नहीं सोचती। वह देश को उत्तर और दक्षिण में देखती है। हर राज्य की राजनीति को अलग देखती है। कांग्रेस दक्षिण में हिंदुत्व में भेदकर सत्ता पाने की कोशिश भी कर चुकी है। 2018 में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने हिंदुओं में विभाजन के लिए अलग पैंतरा खेला था। कर्नाटक की सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग पंथ का दर्जा देने की बात कही थी, तब भी इस बात का वहां विरोध हुआ था। कर्नाटकवासी और लिंगायतों ने स्वयं कहा था कि लिंगायत हिन्दू धर्म से अलग नहीं हैं।

भारत हमेशा से एक रहा है। आध्यात्मिकता के आंगन में विकसित एक प्राचीनतम संस्कृति। सुदूर दक्षिण तमिलनाडु में अपर्णा यानी गौरा जी का मंदिर… राजनीतिक विभेद से परे भारतीय एकात्मता की दृष्टि से देखिए, इस देश के आध्यात्मिक आधार की दृष्टि से देखिए। कन्याकुमारी और कौन हैं! अपर्णा दक्षिण में रहकर सूदूर उत्तर में स्थित कैलाशपति यानी महादेव के लिए तपस्या करती हैं। उत्तर-दक्षिण में शिव परिवार की पूजा होती है। आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, पूर्वजों के माध्यम से यह देश शुरू से एक ही तो है। अगर आप अंग्रेजों की दृष्टि से देश को देखेंगे तो अंग्रेजों की गति को ही प्राप्त होंगे।

सरस्वती को काल्पनिक बताने वाले संस्कृत और तमिल के संबंध को कृत्रिम बताने वाले, आर्य-द्रविड़ सिद्धांत गढ़ने वाले यदि इस देश की जड़ों से जुड़े होते तो अहंकार में भरकर यहां के लोगों को बांटने और मनमाने फैसले करने से बचते।
कच्चातिवु एक द्वीप का नाम नहीं, बल्कि मदमत्त राजनेताओं द्वारा इस देश को दी गई टीस और उससे उपजे सबक का नाम है।

@hiteshshankar

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