माओवाद एवं नक्सली हिंसा पर आधारित फिल्म ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ पूरे देश में 15 मार्च को प्रदर्शित हो चुकी है। यह फिल्म 2010 में बस्तर में 76 सुरक्षाकर्मियों की हत्या पर आधारित है। फिल्म के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह, निदेशक सुदिप्तो सेन एवं नायिका अदा शर्मा से तृप्ति श्रीवास्तव ने फिल्म की विषयवस्तु पर बातचीत की। प्रस्तुत हैं वार्ता के प्रमुख अंश-
आपको (विपुल) फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ के लिए न्यायालय तक जाना पड़ा था। अब आपने फिल्म ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ बनाई है। दोनों को लेकर किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
‘केरल स्टोरी’ को बनाते समय मन में यही था कि एक सत्य कथा को सामने लाने के लिए नया तरीका अपनाया जाए। यदि इसमें थोड़ी भी गलती हो जाए तो न्याय नहीं मिल सकेगा। जब फिल्म तैयार हो गई तो बड़ी संतुष्टि हुई कि चलो, कुछ अच्छा काम किया है। हमें अंदाजा था कि इसका कुछ लोग विरोध कर सकते हैं, लेकिन वे लोग इस हद तक जाएंगे, ऐसा नहीं सोचा था। इससे हमें पता चल गया कि हमने फिल्म के माध्यम से अन्याय पर कितनी गहरी चोट की है। उससेजो सबक मिला, वह ‘बस्तर’ को बनाने में काम आया।
आपने (सुदिप्तो सेन) विषय के रूप में ‘बस्तर’ को क्यों चुना यह नक्सलवाद पर किस प्रकार चोट करती है?
केरल से लेकर बस्तर तक बहुत बड़ी साजिश रची गई है। इसका दायरा बहुत बड़ा है। इस्लामवादियों और वामपंथियों का काम क्या है? क्यों वामपंथी देशों में इस्लाम नहीं है? अगर मुस्लिम वहां नमाज पढ़ें या टोपी लगाएं तो उन्हें पागलखाने में डाल दिया जाता है। सीरिया और मध्य-पूर्व की लड़ाई के बाद पूरी दुनिया में इनका सच सामने आया है। परिणाम यह हुआ कि आज आधा यूरोप इस स्थिति में है कि कहीं वे इस्लामी देश न बन जाएं? बहुत पहले से ही हमारे देश में इस्लामी तत्वों और वामपंथियों की तरफ से एक बहुत बड़ी साजिश रची गई है।
1947 के बाद से जो लोग देश चला रहे थे, उन्होंने इन तत्वों का हर जगह प्रभाव बढ़ाया। आज हमारे देश में वामपंथ प्रभावी नहीं है, लेकिन उसकी मानसिकता गहराई तक समा चुकी है। जब हम ‘केरल स्टोरी’ पर काम कर रहे थे, उसी समय ‘बस्तर’ के लिए भी तैयारी चल रही थी। हमारे देश के खिलाफ जो साजिश हुई है उसके लिए वर्षों से मैं शोध कर रहा था। लोग ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्म बनाने के लिए तैयार नहीं थे, तब मैं विपुल जी के पास गया। कोई सोच भी नहीं सकता था इस्लामी आतंकवाद या कट्टरपंथ के खिलाफ फिल्म बनाने की बात। हम ‘एक्टिविस्ट’ की तरह काम कर रहे थे। इस देश में वामपंथियों का चरित्र हमेशा दोहरा रहा है। जब हमने फिल्म बनाने का विचार किया तब लाल गलियारा उत्तर बंगाल से केरल तक फैला था। हालांकि आज वह एक छोटी जगह में सिमट गया है। कुल मिलाकर आज 30-32 जिले हैं, जो अभी भी माओवाद की चपेट में हैं। उसका केंद्र बस्तर है। इसलिए हमने बस्तर को चुना।
‘बस्तर’ बनाते समय यह मन में नहीं आया कि क्या इस बार फिर से खतरा मोल लेना ठीक है रहेगा?
हमें (विपुल) इस देश की संपूर्ण पद्धति पर भरोसा है। इसलिए ‘द केरला स्टोरी’ के बाद हुई परेशानी के बाद भी ‘बस्तर’ के निर्माण के लिए आगे बढ़ा। हमने सोचा था कि ‘द केरला स्टोरी’ से दोगुने मुकदमे होंगे तो भी न्यायालय हमारे साथ खड़ा रहेगा। इसलिए हमें कभी डर नहीं लगा कि क्या होगा। ‘बस्तर’ हमने इसलिए बनाई, क्योंकि हमारे देश में बहुत कम लोगों को नक्सलियों की असलियत पता है। एक पूरा ‘इकोसिस्टम’ है, जो शहरों में बैठकर नक्सलियों को बढ़ावा देता है। लोग शहरों में बैठकर भारत के टुकड़े करने की साजिश रच रहे हैं। इस विषय को लोग गंभीरता से नहीं लेते। हमें लगा कि इस पर लोगों का ध्यान आकर्षित करना है तो इस फिल्म को प्रभावशाली बनाना होगा। अभी तक इस फिल्म का विरोध नहीं हुआ है, जिससे हमें लगता है कि ‘द केरला स्टोरी’ के बाद लोगों को समझ में आ गया है कि फिल्म पूरी प्रामाणिकता के साथ बनाई गई है। इसलिए बिना पूर्ण जानकारी के विरोध करना गलत है। हमारे साथ तथ्य, सत्य है तो फिर डरने की कोई जरूरत नहीं है।
आपने (अदा) फिल्म में एक आई.पी.एस. अधिकारी की भूमिका निभाई है। इसके लिए आपको कितनी मेहनत करनी पड़ी?
इसमें मुझे ‘द केरला स्टोरी’ से दोगुनी मेहनत करनी पड़ी। ‘द केरला स्टोरी’ में मेरा किरदार एक कॉलेज की लड़की का था। वह किरदार, आईजी के किरदार से आसान था। यह मेरा सौभाग्य रहा कि हमें सीआरपीएफ की कई महिला कमांडो से मिलने का अवसर मिला। मैंने दंतेवाड़ा के सीआरपीएफ कैंप में कुछ दिन बिताए। वहां पर न तो कोई नेटवर्क था और न ही फोटो खींचने की अनुमति। मैं हर किसी से कुछ न कुछ सिखती रहती हूं। सीआरपीएफ में काम करने वाली लड़कियों की आंखों में निडरता है, वे किसी को भी खत्म कर सकती हैं। मैं वहां पर आईजी से भी मिली। मैंने देखा कि वे किस तरह से ‘कमांड’ करते हैं।
फिल्म ‘बस्तर’ में आपने जो सत्य दिखाया है, वह कई लोगों को हजम नहीं होता है। इस पर कुछ कहना चाहेंगे?
जो लोग मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं, उन्हें तो तकलीफ होगी। यह दोहरापन कहां से आता है कि जब हम कश्मीर में आतंकवाद पर बात करते हैं, तो कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता। जब हम केरल में आतंकवाद पर बात करते हैं, तो कहा जाता है कि आप इस्लामोफोबिक हैं। हमारे सच से कई लोगों का दोहरापन सामने आया तो वे हमारे खिलाफ हो गए। जब हमारे 76 जवान बलिदान हुए थे, उस समय जो लोग सत्ता में थे उन्होंने क्या किया? उन हत्यारों को कोई सजा दी गई? उनके परिवार वालों को कोई सहायता राशि दी गई? इस तरह के साजिशकर्ता, जो देश को तोड़ने का काम कर रहे हैं, के बारे में बात करेंगे तो दुश्मनी होना तो स्वाभाविक है।
गांव के कुछ लोग नक्सलियों का साथ देते हैं। ‘बस्तर’ फिल्म बनाने के दौरान आपका (विपुल) क्या अनुभव रहा?
जब हम बस्तर में थे तब वहां के लोग कहा करते थे कि जब तक यहां 30-40 लोग नहीं मरते हैं, तब तक न्यूज चैनलों पर हमारे बारे में कोई खबर तक नहीं दिखाई देती है, जबकि नक्सलवाद निरंतर चल रहा है। नक्सलियों का खतरा आतंकवाद से भी बड़ा है। एनएचआरसी की रपट कहती है कि कश्मीर में 1952 से
लेकर आज तक 47,000 लोग मारे गए, जबकि पिछले 50 वर्ष में माओवादी हिंसा के कारण पूरे देश में 55,000 लोगों की मौत हुई। कश्मीर के बारे में मीडिया पिछले कई दशकों से चर्चा करता रहा है, परंतु बस्तर में इतने लोग मर गए और लोगों को पता भी नहीं है।
‘बस्तर’ को बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य क्या है?
सुदिप्तो सेन- सुरक्षाकर्मियों के बलिदान पर जेएनयू में खुशियां मनाने वालों को पता है कि बस्तर में क्या चल रहा है। नक्सली पहले किसी को गोली नहीं मारते। पकड़े जाने पर पहले आंख निकालते हैं, फिर टांग, कान काटते हैं। वे उनके साथ घंटों बर्बरता करते हैं। उसके बाद इच्छा हुई तो गोली मार देते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं, ताकि वहां के रहने वालों के अंदर नक्सलियों के प्रति डर उत्पन्न हो और उनके खिलाफ कोई आवाज न उठा सके। बस्तर में 2000-2500 करोड़ रु. का एक काला अर्थतंत्र चलता है। इसका पैसा शहरों में पहुंचता है, विदेशों में जाता है। यह एक बहुत खतरनाक गठजोड़ है। इसकी जानकारी सबको होनी चाहिए। इसलिए बस्तर ‘फिल्म’ बनाई गई।
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